यह बहुत बड़ा प्रश्न है और इसका उत्तर बहुत ही चकरा देने वाला है, लेकिन वास्तविक उत्तर देने के पहले मैं कुछ भ्रांतियों का निवारण करना चाहूंगा। इस प्रश्न का उत्तर हमारे DNAऔर जीन्स की जटिल कार्यप्रणाली में निहित है. पोस्ट का सारसंक्षेप सबसे नीचे दिया गया है.
भ्रांति 1ः हम इसलिए मरते हैं ताकि भविष्य की पीढ़ियों के लिए स्थान सुलभ हो सके।
जीन्स (Genes) बहुत स्वार्थी होते हैं और प्रत्येक व्यक्ति का शरीर इन जीन्स को संग्रहित करने का माध्यम है. ये जीन्स आनेवाली पीढ़ियों में अपनी प्रतियां (copies) पहुंचाना चाहते हैं. चूंकि माता-पिता और बच्चे एक ही संसाधन का उपयोग करते हैं इसलिए माता-पिता की मृत्यु से खाली हुए स्थान को प्रकृति एक बच्चे से भर देती है. माता-पिता में उपस्थित प्रत्येक जीन के उनकी संतान में आने की संभावना 50% होती है. लेकिन माता-पिता में उस जीन के होने की संभावना 100% होती है क्योंकि वह उनमें पहले से ही है. इसलिए विकासवाद को इसमें कोई रूचि नहीं है कि माता-पिता की मृत्यु होने पर बच्चे उनका स्थान अवश्यंभावी रूप से लें.
भ्रांति 2: हम इसलिए मर जाते हैं क्योंकि उम्र बढ़ने के साथ-साथ हमारी कोशिकाएं/DNA खराब होने लगता है.
यह तो वही बात हो गई जैसे खराब गाड़ी चलानेवालों की मृत्यु खून बह जाने से होती है. यह मृत्यु के घटित होने तक होने वाली प्रक्रिया है लेकिन नश्वरता का विकासवादी (Evolutionary) कारण नहीं है.
हमारी सोमेटिक कोशिकाएं (somatic cells, हमारे शरीर की कोशिकाएं) विभाजित होने पर कभी-कभी उत्परिवर्तन (म्यूटेशन, mutations) के कारण खराब हो जाती हैं. ये म्यूटेशन कोशिकाओं को खराब या नष्ट कर सकते हैं, जो कि बुरी बात है लेकिन यह समस्या इतनी बड़ी नहीं है. लेकिन कभी-कभी बड़े म्यूटेशन कुछ गंभीर खतरा उत्पन्न करते हैं: वे कोशिकाओं को उनकी सीमा से अधिक बढ़ने और विभाजित होने देते हैं. हमें कैंसर इसी से होता है. चूंकि यह खतरा समय बढ़ने के साथ-साथ बढ़ता जाता है इसलिए हर कोशिका प्राकृतिक रूप से मरने के पहले केवल कुछ बार ही विभाजित हो सकती है. लेकिन इसे नियंत्रित करने वाला जीन भी काम करना बंद कर सकता है. तो हमारे बूढ़े होने का एक कारण यह भी है कि हमारी सोमेटिक कोशिकाएं बूढ़ी होती जाती हैं, वे खराब और उत्परिवर्तित होती हैं, और उनमें से कुछ कैंसर कोशिकाएं बन जाती हैं.
लेकिन कोशिका/DNA के खराब होने वाला विचार यह मानता है कि प्राकृतिक विकास इसकी काट नहीं कर सकता. यह बात सही नहीं है. हर प्राणी का जीवनकाल और कैंसर होने की दर अलग-अलग होती है और यह कोशिका/DNA में आनेवाली खराबी से नियंत्रित नहीं होती. यदि हम शरीर के आकार और प्राकृतिक विकास तथा विविधीकरण पर ध्यान दें तो पाएंगे कि DNA में होनेवाले रिपेयर का जीवनकाल से कोई संबंध नहीं दिखता. जीवनकाल हालांकि पारिस्थितकी (ecology) से संबंधित दिखता है: खतरनाक जीवन जीनेवाले स्तनधारी प्राणी कम उम्र में ही मर जाते हैं भले ही हम उन्हें उन खतरों से बचाने का प्रयास करें. इसमें भी अनेक अतियां देखी गईं हैंः एक ओर तो ऑस्ट्रेलिया के कठोर झाड़ीदार परिवेश में हमें नर एंटेकाइनस (antechinus) मिलता है जो अपने प्रजनन काल के अंत में ही थकान से मर जाता है, दूसरी ओर रोमहीन छछूंदर है जो अपनी भूमिगत कॉलोनियों में तीन दशकों से भी अधिक समय तक जीवित रह सकती है.
यदि हम जीनोमिक्स (genomics) का अध्ययन करें तो हमें और अधिक आश्चर्यजनक बातें दिखती हैं. हमारे DNA में ऐसे जीन्स के बंडल होते हैं जिनका एकमात्र काम हमारे जीनोम के प्राचीन स्वरूप की रक्षा करना होता है. P53 नामक एक चतुर जीन कोशिकाओं के विभाजन पर कठोर नियंत्रण रखता है. यदि कोशिका में बहुत म्यूटेशन होते हैं तो P53 उनका विभाजन रोक देता है और सुधारतंत्र को चालू करता है. यदि सुधार संभव नहीं होता तो यह कोशिका को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करता है. मनुष्य को होनेवाले आधे से भी अधिक कैंसर के रोगों में देखा गया है कि म्यूटेशन P53 की कार्यप्रणाली को प्रभावित कर देते हैं. रोचक तथ्य यह है कि अन्य स्तनधारी प्राणियों में P53 से संबंधित जीन्स के अनेक परिवार होते हैं. रोमहीन छछूंदर में ऐसे जीन्स के दो विशिष्ट वर्जन मिले हैं जो उन्हें कैंसर नहीं होने देते.
हम यह भी जानते हैं कि जेनेटिक संशोधन कोशिकाओं की वंशावली को अक्क्षुण रख सकते हैं. इसका उदाहरण हमें कुत्तों में दिखता है. 11,000 वर्ष पहले हमने कुत्तों को पालना शुरु किया था. जिन कुत्तों को पहले-पहल पाला गया अब उनके नामोनिशान भी नहीं हैं. वे कुत्ते अब उत्पन्न नहीं होते लेकिन उनकी कोशिकाएं एक-पीढ़ी से दूसरी में अवांछित रूप से पहुंचती गईं और वे विद्यमान कुत्तों के जननांगों में कैंसर का कारक बनती हैं.
शरीर के अंगों को स्थाई क्षति पहुंचने का मामला भी इसी से जुड़ा है. कुछ अंग रोगमुक्त हो जाते हैं और कुछ अंगों का पुनःसृजन हो जाता है, लेकिन कुछ अंगों के साथ ऐसा नहीं होता. गिरगिट का एक पैर अलग हो जाने पर वैसा ही नया पैर उग आता है. एक जैलीफ़िश ऐसी भी होती है जो अपने शरीर को नुकसान पहुंचने पर अपने विकास को रिवर्स कर देती है. चाहे जो हो, प्राकृतिक चयन (natural selection) वास्तव में ऐसे जीवों की रचना करने में सक्षम है जो अपनी कोशिकाओं और DNA को होने वाले नुकसानों को सुधार सकते हैं और अपने खराब हो चुके अंगों को भी ठीक कर लेते हैं.
तो हमने यह देखा कि इवोल्यूशन इन समस्याओं का समाधान कर सकता है लेकिन हमारे मामले में ऐसा नहीं होता. मनुष्यों से इसकी यह कैसी शत्रुता है?
दरअसल, इवोल्यूशन हमारा मित्र नहीं है. यह हमारे जीन्स का मित्र है. और यह सच है कि हमारे जीन्स हमारी परवाह नहीं करते, और इसका कारण बहुत महत्वपूर्ण है.
म्यूटेशन ऐसी समस्या है जिसका समाधान इवोल्यूशन कर सकता है. लेकिन यह मृत्यु का समाधान नहीं करता. दुर्घटनाएं होती रहती हैं. रोग होते रहते हैं. हमारे जीन्स हमें सुरक्षित रखने का कितना ही प्रयास क्यों न करें लेकिन कभी-कभी वे हार मान लेते हैं. ऐसी पराजयों का सामना हमारे जीन्स को अक्सर ही करना पड़ता है और यह सब कुछ रैंडम होता है. इसका अर्थ यह है कि हमारे जीन्स किसी व्यक्ति-विशेष के जीवन को सुनिश्चित करने के लिए खुद से इ्नवॉल्व नहीं हो सकते. जीन्स केवल खुद को कॉपी करके एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक फैलकर स्वयं की उत्तरजीविता (survival) सुनिश्चित करते हैं.
इस प्रकार यदि हम जीन की दृष्टि से देखें तो हमारे सर्वाइवल में किया जानेवाला हर निवेश हमारी भावी संततियों के निर्माण और सर्वाइवल के लिए की जाने वाली सौदेबाज़ी है. यदि हमारी मृत्यु रेंडमली होने की संभावनाएं बढ़ेंगी तो हमारे जीन्स को हमारा सर्वाइवल सुनिश्चित करने में कोई रूचि नहीं होगी.
हमारे जीवन के हर एक दिन में दुनिया हमारे जीवन का फैसला करने के लिए पांसे फेंकती रहती है. सांप काट लेता है, हम मर जाते हैं. हर एक दिन बीतने के साथ-साथ हमारी मृत्यु होने की संभावना बढ़ती जाती है. और एक औसत समय तक जीवित रहने के बाद हम मर जाते हैं.
आप इन बातों को अपने जीन्स के नज़रिए से देखिए. आपके जीन्स आपको एक व्यक्ति के बारे में नहीं जानते. उनका व्यवहार सांख्यिकी के आधार पर तय होता है. वे किसी ऐसे व्यक्ति में निवेश नहीं करना चाहते जो औसतन मर चुका है. औसत के आधार पर युवा व्यक्तियों के आगे भी जीवित रहने की संभावना अधिक होती है. इसलिए यदि आपके जीन्स को (औसतन) आपके सर्वाइवल और/या आपके वृद्ध शरीर के स्थान पर युवा शरीर के पुनःनिर्माण में से चुनाव करना हो तो वे युवा शरीर को चुनेंगे.
और यह चुनाव वे अक्सर ही करते हैं. जब हम बड़े हो रहे होते हैं तो हमें उन जीन्स की ज़रूरत होती है जो बहुत अधिक कोशिकीय प्रसार की अनुमति देते हैं. कोशिकीय प्रसार न हो तो हमाऱा शरीर विकसित नहीं हो सकता. लेकिन एक सीमा तक विकसित हो जाने के बाद हमें कोशिकीय प्रसार की आवश्यकता नहीं होती बल्कि यह एक बड़ी समस्या बन जाता है. इसलिए यहां एक बारीक संतुलन रखना पड़ता है. बचपन में जो बात हमारे लिए अच्छी होती है वही हमारे वयस्क हो जाने पर बुरी हो जाती है. DNA में ऐसे जीन्स भी होते हैं जो इन खतरों को नियंत्रित करने वाले जीन्स के स्विच को हमारे पूरा जीवनकाल में ऑन-ऑफ़ करते रहते हैं, लेकिन इस गतिविधि से सिस्टम और अधिक जटिल हो जाता है और गलतियां होने की संभावना बढ़ जाती है. हमारे पूरे जीवनकाल में हमारे शरीर में यह जीनोमिक नृत्य अत्यंत सूक्षम स्तर पर चलता रहता है. इस प्रकार यह कोई अचरज की बात नहीं है कि कुछ जीन्स किसी कालखंड में हमारे सहायक होते हैं लेकिन आगे जाकर वे हमें नुकसान पहुंचाने लगते हैं.
हंटिंग्टन रोग (Huntington’s Disease) इसका एक उदारण है. यह एक प्रबल जेनेटिक गड़बड़ी है जो हमारे मस्तिष्क को धीरे-धीरे नष्ट करके हमें मार देती है. इस रोग का आरंभ लोगों के जीवन के मध्यकाल में होता है, लेकिन यह देखने में आया है कि हंटिंग्टन जीन से प्रभावित लोगों की औसत से अधिक संतानें होती हैं. यह माना जाता है कि हंटिंग्टन जीन P53 की गतिविधि को बढ़ाकर हमारे इम्यून सिस्टम को मजबूत करता है जिससे हमारा शरीर अधिक स्वस्थ होता है और संतानोत्पत्ति की क्षमता में वृद्धि हो जाती है. इस प्रकार के कुछ अन्य रोगों के उदाहरण हैं एथेरोस्क्लेरोसिस (atherosclerosis), सार्कोपीनिया (sarcopenia), प्रोस्टेट हाइपरट्रोफ़ी (prostate hypertrophy), ऑस्टियोपोरोसिस (osteoporosis), कार्सीनोमा (carcinoma) और एल्ज़ीमर्स (Alzheimer’s) रोग.
जैसे-जैसे जीवन बीतता जाता है, हमारे जीन्स इस बात की परवाह करना बंद कर देते हैं कि हमारे साथ क्या घटित होता है. औसत जीवन जी लेने के बाद हमारे जीवित रहने की संभावना खत्म हो जाती है और हमारे जीन्स यह मान लेते हैं कि हम पहले ही मर चुके हैं. इस बिंदु पर हमारी जीनोमिक प्रोग्रामिंग में मौजूद अजीबोगरीब चीजें एक्टीवेट और डीएक्टीवेट होने लगती हैं क्योंकि इसके विरुद्ध अब कोई स्पष्ट प्रतिरोध नहीं होता.
यह सोचकर हैरत भी होती है और दुःख भी होता है कि किस प्रकार यह प्रभाव स्वयं को सुदृढ़ करता है. जब हमारे मृत होने की संभावना अधिक बढ़ जाती है तो हमारे जीन्स हमारी चिंता करना छोड़ देते हैं. विकास के लाखों-करोड़ों वर्षों में यह घटित होता आया है इसलिए हमारे DNA ने हर तरह की अच्छी-बुरी चीजें जमा कर ली हैं जो हमारे जीवन की दोपहर बीतने के बाद अपने लक्षण दिखाने लगती हैं. मनुष्य के जीनोम में ऐसी त्रासदियां निहित हैं और इनमें से अधिकांश जीन्स हमारे सामान्य विकास और प्रजजन में अपनी भूमिका भी निभाते हैं. ये गड़बड़ियां एक खास उम्र के बीत जाने के बाद प्रकट होने लगती हैंः यह उम्र वह होती है जब इवोल्यूशन हमारे बारे में सोचना बंद कर देता है क्योंकि सांख्यिकी के आधार पर हम पहले ही मर चुके होते हैं.
इस प्रकार, मृत्यु एक इवोल्यूशनरी भविष्यवाणी है जो स्वयं को अनेक प्रकार से फलीभूत होता दिखाती है. यही कारण है कि अनश्वरता को पाने की कोई एक कुंजी नहीं है.
सार-संक्षेपः हमारे DNA में मृत्यु की प्रोग्रामिंग या स्कीम है. शरीर की कोशिकाएं एक निश्चित संख्या तक ही विभाजित हो सकती हैं. जब वे विभाजित होना बंद कर देती हैं तब शरीर में बूढ़ी कोशिकाओं की संख्या बढ़ती जाती है और नई कोशिकाएं बहुत अधिक नहीं बनतीं. बूढ़ी कोशिकाएं अपना कार्य अच्छे से नहीं कर पातीं, शरीर को अनेक रोग घेर लेते हैं, अंगों को काम करने के लिए पर्याप्त शक्ति व ऊर्जा नहीं मिलती, और एक दिन प्राणांत हो जाता है. कोशिकाओं में बहुत से अवांछित परिवर्तन भी आते रहते हैं जिन्हें हम म्यूटेशन कहते हैं. इन म्यूटेशंस के कारण कोशिकाओं की कार्यप्रणाली प्रभावित होती रहती है. हमारे जीन्स इन घटनाओं पर नियंत्रण रखते हैं लेकिन एक समय के बाद वे अपना काम ठीक से नहीं करते क्योंकि तब तक वे स्वयं को हमारी संतानों के माध्यम से अगली पीढ़ी में पहुंचा चुके होते हैं और उनका इतना ही स्वार्थ है. हमारे जीन्स के लिए हम तभी तक उपयोगी हैं जब तक हम संतानोत्पत्ति कर सकते हैं. एक औसत अवस्था तक जी लेने के बाद उनकी कोडिंग में मौजूद गड़बड़ियां अपना प्रभाव दिखाने लगती हैं लेकिन वे इन्हें सुधारने का प्रयास नहीं करते क्योंकि उनके लिए हम अनुपयोगी हो जाते हैं.
Suzanne Sadedin, Evolutionary Biologist के एक क्वोरा उत्तर पर आधारित. Photo by Cristian Grecu on Unsplash
उम्दा लेख!
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बहुत ही अच्छा लेख है।
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“हमारे जीन्स के लिए हम तभी तक उपयोगी हैं जब तक हम संतानोत्पत्ति कर सकते हैं. एक औसत अवस्था तक जी लेने के बाद उनकी कोडिंग में मौजूद गड़बड़ियां अपना प्रभाव दिखाने लगती हैं लेकिन वे इन्हें सुधारने का प्रयास नहीं करते क्योंकि उनके लिए हम अनुपयोगी हो जाते हैं”
इस हिसाब से हमें एक निश्चित समय सीमा के अंदर सन्तानोपत्ति के बारे सोचना चाहिए। अन्यथा अधिक आयु में संतान होने पर गड़बड़ी वाले जीन का ट्रांसफर होना तय हैं ?
तो इस नजरिये से एक आदर्श उम्र भी होगा जो संतानोत्पति के लिए आदर्श होगा?
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Very nice!!!
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