बहुत समय पहले अरब में अल मंसूर नामक शासक था जो वहां का खलीफा भी था.
अल मंसूर को शायरी बहुत अच्छी लगती थी और वह शायरों से बार-बार उनका कलाम सुनने की फरमाइश करता था. जब कभी उसे किसी शायर की कोई नज़्म बहुत पसंद आती तो वह उसे ईनाम भी देता था.
एक दिन तालिबी नामक एक शायर खलीफा के पास आया और उसने खलीफा को अपनी एक लम्बी नज़्म सुनाई. नज़्म सुनाने के बाद उसने अदब से सर झुकाया और ईनाम मिलने का इंतज़ार करने लगा.
खलीफा ने शायर से पूछा – “तुम्हें कैसा ईनाम चाहिए?… तीन सौ सोने की शर्फियाँ या मेरी कही गई इल्म की तीन बातें?”
शायर खलीफा को खुश करना चाहता था इसलिए उसने कहा – “मेरे आका, धन-दौलत पाने के बजाय हर आदमी इल्म की बातें सुनना ज्यादा पसंद करेगा”.
खलीफा ने मुस्कुराते हुए कहा – “बहुत अच्छा. तो मेरी इल्म की पहली बात सुनो. अगर तुम्हारा कोट फट जाए तो उसमें पैबंद मत लगाओ. वह बदसूरत लगेगा”.
“या खुदा” – शायर ने मन मसोसकर सोचा – “सोने की सौ अशर्फियाँ हाथ से निकल गईं”.
खलीफा ने मुस्कुराते हुए फिर कहा – “अब मेरी इल्म की दूसरी बात सुनो. अपनी दाढ़ी में कभी भी ज्यादा तेल मत चुपडो. तुम्हारे कपड़े गंदे हो जायेंगे”.
“मेरी सोने की दो सौ अशर्फियाँ हाथ से नक़ल गईं” – शायर ने बहुत रंज से भीतर-ही-भीतर कहा.
खलीफा मंद-मंद मुस्कुराते हुए बोले – “और इल्म की तीसरी बात यह है कि…..”
“रहम करो खलीफा!” – शायर चिल्लाया – “इल्म की इस बात को अपने लिए ही रखो और मुझे इसके बदले में सोने की अशर्फियाँ दे दो!”
खलीफा बेतरह हंस दिए और वहां मौजूद हर शख्स भी हंस पड़ा. उन्होंने अपने खजांची को शायर को सोने की पांच सौ अशर्फियाँ देने के लिए कहा क्योंकि उसने वाकई बहुत अच्छी नज़्म सुनाई थी.
खलीफा अल मंसूर लगभग तेरह सौ साल पहले हुए थे. बग़दाद शहर उन्होंने ही बनवाया था.
(A story/anecdote about a caliph and a poet – in Hindi)
अरे वाह हुजूर,, शायर और खलीफा की ये दास्ताँ तो बड़ी ही रोचक लगी…आपको पढने में आनंद आता है….लगे रहिये…हम पढ़ रहे हैं…..
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