इस ब्लॉग के नियमित पाठक और सम्माननीय टिप्पणीकार श्री जी विश्वनाथ जी ने कुछ दिनों पूर्व मुझे एक ईमेल फौरवर्ड भेजा. उसे मैं यहाँ अनूदित करके पोस्ट कर रहा हूँ. आपको धन्यवाद, विश्वनाथ जी!
एक दिन एक पेंसिल ने इरेज़र (रबर) से कहा – “मुझे माफ़ कर दो…”
इरेज़र ने कहा – “क्यों? क्या हुआ? तुमने तो कुछ भी गलत नहीं किया!”
पेंसिल बोली – “मुझे यह देखकर दुःख होता है कि तुम्हें मेरे कारण चोट पहुँचती है. जब कभी मैं कोई गलती करती हूँ तब तुम उसे सुधारने के लिए आगे आ जाते हो. मेरी गलतियों के निशान मिटाते-मिटाते तुम खुद को ही खो बैठते हो. तुम छोटे, और छोटे होते-होते अपना अस्तित्व ही खो देते हो”.
इरेज़र ने कहा – “तुम सही कहती हो लेकिन मुझे उसका कोई खेद नहीं है. मेरे होने का अर्थ ही यही है! मुझे इसीलिए बनाया गया कि जब कभी तुम कुछ गलत कर बैठो तब मैं तुम्हारी सहायता करूं. मुझे पता है कि मैं एक दिन चला जाऊँगा और तुम्हारे पास मेरे जैसा कोई और आ जाएगा. मैं अपने काम से बहुत खुश हूँ. मेरी चिंता मत करो. मैं तुम्हें उदास नहीं देख सकता.”
पेंसिल और इरेज़र के बीच घटा यह संवाद बहुत प्रेरक है. उन्हीं की भाँती माता-पिता इरेज़र और बच्चे पेंसिल की तरह हैं. माता-पिता अपने बच्चों की गलतियों को सुधारने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं. इस प्रक्रिया में उन्हें कभी-कभी ज़ख्म भी मिलते हैं और वे छोटे – बूढ़े होते हुए एक दिन हमेशा के लिए चले जाते हैं. बच्चों को उनकी जगह कोई और (जीवनसाथी) मिल जाता है लेकिन माता-पिता अपने बच्चों का हित देखकर हमेशा खुश ही होते हैं. वे अपने बच्चों पर कभी कोई विपदा या चिंता मंडराते नहीं देख सकते.
Photo by Joanna Kosinska on Unsplash
चीजों की तरह लोग भी अपनी भूमिका से इस तरह अभिन्न मान लिए जाते हैं कि उन पर इस तरह से सोचा ही नहीं जाता, जिस तरह के उदाहरण से यहां स्पष्ट किया गया है.
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सत्य वचन !
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बहुत सुन्दर!
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वह तो अच्छा है, जब लोग पेन से लिखना प्रारम्भ करते हैं तब इरेज़र भी हार मान लेता है।
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उनके लिए अब करेक्शन-टेप आ गया है.
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आभार!
एक स्प्ष्टीकरण:
मूल विचार मेरे नहीं हैं।
मुझे किसीने ईमेल फ़ोर्वर्ड किया था और पढकर अच्छा लगा।
आपकी याद आ गई सो आपको फ़ोर्वर्ड किया था।
आजकल बहुत वयस्त हूँ और आपके और अन्य मित्रों के ब्लॉग पर टिप्पणी करने के लिए समय नहीं मिल रहा है।
बस थोडा समय चुराकर ब्लॉग को पढता हूँ।
कल कुछ दिनों के लिए हैदरबाद जा रहा हूँ और शाय्द इंटर्नेट से दूर रहूँगा।
सोमवार वापस आ जाऊंगा और इस बीच यदि हम सम्पर्क में नहीं रहते तो कृपया अन्तथा न लें।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
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शायद हम सब के होने का यही कारण है। पेंसिल के होने का भी कारण वही है जो रबर का। पेंसिल भी लिखते लिखते अपना वज़ूद खो बैठती है।
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बहुत प्रेरणा दायक कहानी कहानी के भितर बहुत बङा संदेश बहोत अच्छा लगा
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thanks apka bahut bahut dhanyavad jo ap nayi nayi kahaniyan yahan post karte hain jinko padkar hamein achchha lagata hai apki posting hamako badi shiksha milti hai
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निशांत जी इस प्रेरक प्रसंग से दीपक के प्रकाश देकर अंधकार नष्ट करते हुए फ़ना होने का ध्यान आया .विश्वनाथ जी की ईमानदारी को साधुवाद .
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यही जीवन है मित्र – पेंसिल अंतत तय कर लेती है इरेजर में मॉर्फ होना। और जीवन चक्र चलता रहता है।
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उन्मुक्त जी की बात सही लगती है–हमें कहीं न कहीं एक-दूसरे के लिये कुछ न कुछ तो करते रहना पड़ता है……
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Sundar… waaah .. Ati sundar. मेरे होने का अर्थ ही यही है!
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क्या बात है.. !! हमारे आस पास ऐसी कई चीज़े हरदम मौजूद रहती है.. पर शायद नज़र उठाकर देखने की फुर्सत नहीं बस
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बड़ी सुंदर मन को छूती बात ……
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