कैलाश वाजपेयी – कविता – ऐसा कुछ भी नहीं

sorrow


ऐसा कुछ भी नहीं जिंदगी में कि हर जानेवाली अर्थी पर रोया जाए.

काँटों बीच उगी डाली पर कल
जागी थी जो कोमल चिंगारी,
वो कब उगी खिली कब मुरझाई
याद न ये रख पाई फुलवारी.
ओ समाधि पर धूप-धुआँ सुलगाने वाले सुन!
ऐसा कुछ भी नहीं रूपश्री में कि सारा युग खंडहरों में खोया जाए…..

चाहे मन में हो या राहों में
हर अँधियारा भाई-भाई है,
मंडप-मरघट जहाँ कहीं छायें
सब किरणों में सम गोराई है.
पर चन्दा को मन के दाग दिखाने वाले सुन!
ऐसा कुछ भी नहीं चाँदनी में कि जलता मस्तक शबनम से धोया जाये.

साँप नहीं मरता अपने विष से
फिर मन की पीड़ाओं का डर क्या,
जब धरती पर ही सोना है तो
गाँव-नगर-घर-भीतर- बाहर क्या.
प्यार बिना दुनिया को नर्क बताने वाले सुन!
ऐसा कुछ भी नहीं बंधनों में कि सारी उम्र किसी का भी होया जाए.

सूरज की सोनिल शहतीरों ने
साथ दिया कब अन्धी आँखों का,
जब अंगुलियाँ ही बेदम हों तो
दोष भला फिर क्या सूराखों का.
अपनी कमजोरी को किस्मत ठहराने वाले सुन!
ऐसा कुछ भी नहीं कल्पना में कि भूखे रहकर फूलों पर सोया जाए.

(A poem of Kailash Vajpeyee)

There are 4 comments

  1. shashibhushantamare

    प्रिय निशांत जी,
    डाक्टर कैलाश बाजपेई जी की ये कविता उनके जैसे कालजयी कवी सर्वोतम रचनाओं में से एक है /
    मै उनकी इस रचना को सादर प्रणाम करता हूँ /
    मै उन चंद भाग्यवांन लोगो में से एक हूँ जिन्हें नितांत क्षणों में स्वयं डा. बाजपेयी ने अपने मुखारविंद से सुनाई /
    और उनका पितातुल्य वात्सल्य भी पाया /
    उनकी इस रचना के बाबत इतना ही कहने का साहस कर सकता हूँ कि ये भी उनकी ही तरह कालजयी है /
    पुनश्च, आपको भी सादर धन्यवाद जो आपने इसे अपने ब्लॉग पर उत्तम स्थान दिया /

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