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मैं मध्यवय की ओर बढ़ रहा व्यक्ति हूँ. मेरी आंतरिक प्रेरणा और उन्नति का संबंध इस ब्लॉग से है. यह देखकर हर्ष और आश्चर्य होता है कि हिंदीज़ेन मेरे लिए जड़ नास्तिकता से समर्पित आध्यात्मिकता तक की यात्रा का माध्यम बना. इस ब्लॉग की स्थापना से पहले अनेक वर्षों तक मैं अंतर्दृष्टि खोजने के प्रयास करता रहा, जो मुझे तभी उपलब्ध हुई जब मैंने उसे पाने के प्रयास बंद कर दिए, और सहजता एवं सजगता से अपने जीवन में व्यवस्था और मूल्यों को आधार दिया. इस लंबी यात्रा में मुझे कुछ चीज़ें सही और कुछ गलत दिखीं. मैंने सही को अपना लिया पर गलत का तिरस्कार नहीं किया. जब मुझे सकारात्मकता और मूल्यों पर आधारित संयमित जीवन जीने के लाभ दिखे तो मैंने शुभ विचारों को प्रसारित करने का दृढ़निश्चय किया, जिसका परिणाम आपके सामने है.

मैं अनुवादक हूँ. मुझे पढ़ना-लिखना अच्छा लगता है. अपने छात्र जीवन का लगभग अधिकांश समय मैंने महाकाय पुस्तकों को पढ़ने में बिताया, लेकिन मैंने दोस्ती-यारी और आवारागर्दी भी बखूबी की. मुझे संगीत, चित्रकला, फोटोग्राफी, भारतीय-जापानी दर्शन, इंटरनेट, और अपने परिवार के साथ समय बिताना बहुत अच्छा लगता है. मैं फ़िल्में बहुत देखता था पर अब उसपर विराम लग चुका है. मुझमें बहुतेरे ऐब भी थे जिनमें से कई से मैं उबर चुका हूँ. अब कुछ ही ऐसी चीज़ें बची हैं जिनको में खुद से निकालना चाहता हूँ, वे हैं – क्रोध, झुंझलाहट, टालमटोल… लिस्ट अभी भी लंबी है 🙂

मुझे लगता है हम लोगों में से अधिकांश लोग ऐसे ही होते हैं. हम सभीको भले प्रतीत न हों पर अपने मूल रूप में हम बुरे नहीं हैं. हमारी कमजोरियां और ताकत बहुत बड़ी नहीं है, हम चाहें तो उन दोनों को थोड़े से प्रयास से ही कम या ज्यादा कर सकते हैं.

इस ब्लॉग की कुछ पोस्ट और इसकी साज-सज्जा आदि देखकर कुछ पाठकों को यह लगता है कि मैं बौद्ध धर्मावलंबी हूं. मैंने ब्लॉग पर बौद्ध-जापानी दर्शन के ऊपर बहुत कुछ लिखा है लेकिन मैं बुद्ध की उपासना नहीं करता. मैं बौद्ध धर्म या किसी अन्य धर्म-दर्शन का पारंपरिक अर्थ में अनुयायी नहीं हूं. मैं अज्ञेयवादी हूँ, लेकिन मैंने विश्व के श्रेष्ठ विचारों में से आत्मोन्नति के मोती चुने हैं. मैं वेदांत, सूफ़ी, ताओ, थेरवाद, विपश्यना, अष्टांग योग, ज़ेन आदि में श्रेय के सूत्र पाता हूं.

मुझे लगता है कि हम किसी एक परमेश्वर के अस्तित्व पर चर्चा नहीं कर सकते क्योंकि उसकी ऐसी कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है जिसपर सभी सहमत हो जाएँ, और ऐसा कभी होने की उम्मीद भी नहीं है. मैं किसी ग्रन्थ या शास्त्र को देववाणी के रूप में नहीं मानता और उनपर चर्चा भी नहीं करता. मेरे अनुसार वे केवल उपयोगी जीवन के लिए मार्गदर्शन उपलब्ध कराते हैं या विद्वेष कायम रखने के तर्क देते हैं.

मैं यह मानता हूँ कि हमें किसी की भी आस्था को चोट पहुंचाने का अधिकार नहीं है, क्योंकि आस्था बहुत मूल्यवान चीज है. अधिकांश मामलों में किसी व्यक्ति की आस्था उसकी व्यावहारिक बुद्धि, करुणा, और मैत्रीभाव आदि से जुड़ी होती है और हमें यह अधिकार नहीं है कि हम उसकी आस्था को खंडित कर दें, क्योंकि हम उसे इतने ही उत्तम विचार उपलब्ध नहीं करा सकते. जिन व्यक्तियों के भीतर इन विचारों का संग्रह हैं उन्हें चाहिए कि वे इन्हें अपने तक ही रखें और तब तक इनकी चर्चा नहीं करें जब तक उनसे पूछा न जाए.

मैं यह मानता हूँ कि किसी अन्य व्यक्ति को अपने धर्म या मत का अनुयायी बनाने का प्रयास करना अहंकार की पराकाष्ठा है, हांलांकि मुझे ऐसा करनेवालों के विचार बड़े ही रोचक लगते हैं क्योंकि वे अक्सर ही पारलौकिक सत्ताओं या सुख के बारे में बड़ी गहराई से आँखें चमकाते हुए बताते हैं. स्थापित धर्मों या मत आदि से मेरा कोई मतभेद नहीं है लेकिन मैं उनके पुरोहितों और जड़ उपासकों की कभी-कभी आलोचना कर बैठता हूँ. मेरा जन्म ऐसे हिन्दू परिवार में हुआ जहाँ मुझे धर्म और पूजा की ओर कभी धकेला नहीं गया. मुझे अन्य धर्म या दर्शन की पुस्तकें पढ़ने से रोका नहीं गया. ऐसा होना भी नहीं चाहिए.

यदि किसी भी धर्म या मत को माननेवाले व्यक्ति की आस्था उसे उत्तरोत्तर मानवीय और सद्गुणी बनाती है तो विश्व के लिए इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता. यही धर्म और दर्शन आदि की उपादेयता है. लेकिन जब धर्म ऐसा नहीं कर पाता है तो वह उतना ही अनुपयोगी सिद्ध होता है जितना कोई हानिकारक अंधविश्वास होता है. ऐसे में उसके अनुयाइयों को गंभीर मानसिक-आत्मिक क्षति पहुँचती है क्योंकि वे इसे सर्वथा शुद्ध मानकर ही चलते हैं. धर्म अरबों मनुष्यों को किसी-न-किसी रूप में संबल देता है, लेकिन यह उन व्यक्तियों के लालच का भी पोषण करता है जो इसे अपने स्वार्थ के लिए तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करते हैं. जड़ धार्मिक विचारों के कारण ही पिछले कुछ दशकों में करोड़ों मनुष्यों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा है. इतिहास गवाह है कि स्वयं को कट्टर धार्मिक माननेवालों ने दुधमुंहे बच्चों की गर्दनों पर गंडासे चलाये हैं.

मैं धार्मिक संस्थानों में वरीयता पदानुक्रम पर भी विश्वास नहीं करता. स्वयं को ऊंची और शक्तिसंपन्न पदवी पर विराजमान करने की अभिलाषा बुराइयों को जन्म देती है. हजारों वर्षों की सभ्यता और संस्कृति ने मनुष्यों को बहुत से सद्गुण दिए हैं, जिनके अनुपालन से सबका हित होता है. यदि कोई इन सद्गुणों को अपने मन में दूसरे से अधिक श्रेष्ठ होने की भावना रखकर अभिमानपरक चिंतन करेगा तो यही सद्गुण मनुष्यता को नीचे गिरा देंगे.

मैं बहुत से आध्यात्मिक गुरुजनों आदि से मिला हूँ. उनके जीवन का अवलोकन करने के बाद मेरी यह स्थापना है कि किसी भी व्यक्ति को ऐसे ही गुरु का शिष्य बनना चाहिए जो अपने अनुयायिओं से किसी भी प्रकार का लाभ नहीं उठाता हो; जो उनसे दान की अपेक्षा नहीं करता हो, और न ही उन्हें कोई सामग्री आदि खरीदने के लिए विवश करता हो. आध्यात्मिकता का संबंध किसी भी प्रकार का दान/चंदा देने, सीडी/पुस्तक, या सात्विक अगरबत्ती-साबुन आदि की खरीद करने से नहीं है. कुछ लोगों को यह सब करने से मानसिक शांति मिलती है इसलिए मैं इन बातों को गलत नहीं मानता, पर मुझे लगता है कि ऐसे व्यवहार के मूल में कहीं अर्थशास्त्र के नियम कार्य करते हैं. यदि कोई किसी मंदिर या आश्रम को बनवाने के लिए प्रयासरत है तो मैं उनसे यही कहता हूँ कि हमें इनसे भी अधिक उपयोगी आश्रयों की ज़रुरत है. कृष्ण, ईसा मसीह, और बुद्ध ने हमें सदैव किसी नदी, सागरतट, पर्वत, या किसी वृक्ष के नीचे ही ज्ञान दिया. किसी भी अनुयायी के लिए केवल सामान्य बैठक ही पर्याप्त है. बड़े-बड़े मंदिर और आश्रम आदि केवल हमारे अहंकार की तुष्टि ही करते हैं.

मैं मानता हूँ कि कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा मसीह, कबीर, और अन्य महात्माओं से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं लेकिन उनके उपदेशों को कुशलतापूर्वक समझकर उनके मार्ग पर चलनेवाले बहुत कम हैं. मैं यह नहीं मानता कि वे किसी पारलौकिक सत्ता का अवतार थे. जो यह मानता हो वह ऐसा मानने के लिए स्वतन्त्र है. उनमें पारलौकिक या मानवीय गुणों के आरोपण से उनका महत्व कम नहीं हो जाता है.

मैं नैतिकता या नीति में नहीं बल्कि सद्गुणों में विश्वास करता हूँ. नैतिकता या नीति का विश्लेषण हर व्यक्ति भिन्न-भिन्न दृष्टि से करता है, जबकि सद्गुण सदैव सभी के लिए समान ही रहते हैं. ऐसा कोई एक स्वर्णिम नियम नहीं है जो सभी के लिए स्वीकार्य हो, यदि वह हो भी तो उसकी व्याख्या करनी पड़ती है, जबकि सद्गुओं को व्याख्या की ज़रुरत नहीं है – प्रेम, करुणा, ईमानदारी, सहजता की कैसी व्याख्या? ये सभी सहज, सरल, और वास्तविक हैं. वास्तविक मैत्रीभाव, सहज दान, सरल प्रेम, विश्व बंधुत्व – इनका कोई विकल्प नहीं है. एक और बात भी है जो महत्वपूर्ण है, और वह यह है कि हम दूसरों को वह करने की स्वतंत्रता दें जो वे करना चाहते हैं बशर्ते इससे हमें कोई परेशानी नहीं होती हो. मैं मानता हूँ कि अनुत्तरित प्रश्न केवल अनुत्तरित प्रश्नों के अस्तित्व को ही सिद्ध करते हैं. उचित व्याख्या की अनुपस्थिति को प्रमाण नहीं माना जा सकता.

मैं मानता हूँ कि स्वयं की, परिजनों की, और अपने पड़ोसियों की सुख-शांति की कामना और उसकी प्राप्ति की दिशा में कार्य करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है. लेकिन ऐसा करते समय हमें ज्यादातर अपने काम से ही मतलब रखना चाहिए. अनावश्यक दूसरों के जीवन में हस्तक्षेप ठीक नहीं है. स्वयं की रक्षा करना भी ज़रूरी है और इसके लिए कभी-कभी हठ एवं बलप्रयोग ज़रूरी हो जाता है लेकिन हमारी सीमा हमारे हाथों के विस्तार तक ही है, उससे अधिक नहीं. हिंसा को कभी-कभी अनावश्यक अनिवार्यता के रूप में देखा जाता है पर उस स्थिति में यह वैसा ही है जैसे किसी छोटी बुराई से लड़ने के लिए बड़ी बुराई को जन्म देना. हिंसा तभी उचित है जब यह व्यापक जनहित के परिप्रेक्ष्य में हो. आक्रामकता में दोष है और दो बुराइयों के योग से अच्छाई जन्म नहीं लेती, यद्यपि उनका संयोग विरल परिस्थितियों में बुराई को बढ़ने से रोक भी सकता है.

मैं यह नहीं मानता कि अपने मूल रूप में मनुष्य में अच्छाई निहित रहती है. हम सब अक्सर वे काम ही करते हैं जिनसे हमारा हित सधता हो. हम लोगों में से वे व्यक्ति जो किन्हीं क्षणों में स्थिरता पा लेते हैं वे विश्व को उसकी गति से चलने देते हैं, उसमें हस्तक्षेप नहीं करते. जो “बस, बहुत हो गया” के सिद्धांत को नहीं समझते या इसे नज़रंदाज़ करते हैं वे दुखों के चंगुल में फंसते हैं. मैं मानता हूँ कि यह हमारा कर्त्तव्य है कि हम ऐसे अनियंत्रित और अकुशल व्यक्तियों को किसी भी प्रकार सही मार्ग पर लाने के लिए कर्म करें. यह कर्म हमें सद्भावना से ही करना होगा.

मैं मानता हूँ कि सफ़ेद और काला सिर्फ फोटोग्राफी में ही चलता है, लेकिन उसमें भी भूरी-धूसर छवियाँ ही आकर्षक दिखती हैं. मैं मानता हूँ कि मन में शुद्ध भावना रखनेवाले सदाशयी व्यक्तियों सी भी बड़ी गलतियाँ हो सकती हैं और ऐसे में अन्य सदाशयी व्यक्तियों के ऊपर आचरण शुद्ध रखने का भार बढ़ जाता है.

और अंत में, मुझे यह लगता है कि दुनिया की तमाम परेशानियों और समस्याओं के लिए हमारा स्वार्थ उत्तरदायी है. विश्व के संकुचित होने के साथ ही हम भी सिकुड़ गए हैं. हम अब बहुत इंस्टैंट में जीते हैं. हम यांत्रिक और संवेदनहीन होते जा रहे हैं. हम पुराने का तिरस्कार करते हैं और नए से ताल नहीं मिला पा रहे हैं. यदि हम अपनी जड़ों की ओर नहीं लौटेंगे तो हमें इस जीवन से कुछ भी नहीं मिलेगा. हम अपना जीवन परिपूर्णता से नहीं व्यतीत कर पायेंगे. मैं मानता हूँ कि हर व्यक्ति जीवन को पूर्णता से जी सकता है.

यदि आप मेरे किन्हीं विचारों से सहमत नहीं हैं तो मेरी मंशा आपको असहमत करने की भी नहीं है. मुझे आपके विचार जानकर प्रसन्नता होगी.

निशांत मिश्र

There are 27 comments

  1. sushma Naithani

    निशांत आपके बारे में जानकार अच्छा लगा. इस तरह की बात जीवन से ही निकलती है, अच्छे सच्चे मन से निकलती है. इसमें किसी तरह की बनावट नही है. बहुत सालों तक मैं खुद भी नास्तिक रही हूँ, अब भी हूँ, पर अब दूसरों की आस्था का सम्मान करने लगी हूँ. उसे खंडित करने का प्रयास नही करती. किसी भी धर्म की पारंपरिक अनुयायी नही हूँ, पर ये भी समझ में आता है, कि हर समय में नए धर्मों का उदय मानवता का एक बृहद प्रयोग था. करुना और क्षमा शायद ये जो तत्व हर धर्म के भीतर है, वों बहुत बड़ी बात है. वों किसी व्यवस्था, किसी विचारधारा, मोर्डन , पोस्ट मोर्डन डिस्कोर्स का हिस्सा नही है.

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  2. hsonline

    निशांत जी,
    कुछ दिनों से पढ़ रहा हूँ आपका चिट्ठा| बहुत ही अच्छा प्रयास है आपका! धर्म के समबन्ध में मैंने पाया की अनेक विचार मिलते हैं आपसे| अनेक नहीं भी मिलते होंगे 🙂 पर अब आना लगा रहेगा यहाँ| सबसे बढ़कर इसलिए क्योंकि यहाँ एक से एक रोचक कथाएँ एवं प्रेरक प्रसंग जो हैं!
    इसी तरह लिखते रहिये, आप हिन्दी की बड़ी सेवा कर रहे हैं !
    -हितेन्द्र

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    1. Vivek Bisaria

      Anil K Ji, kyo bhasha par jaate ho. Koi bhi vyakti swayam ki abhivyakti k liye koi to shabd chunega hi, wo main ho hum ya I. Language is just a medium of communication/conversation, why to play with it all the times??

      How beautifully Nishant has presented his realself, that is really adorable. Its not just bcoz i think the same way as he do. But the thing is, as already given in the introduction itself, take the best and leave the rest.

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  3. MAHENDRA SAHU

    नशांत जी नमस्‍कार, मैं बस्‍तर जिले के एक छोटे से गांव कोण्‍डागांव में रहता हूं ा मै पिछले कुछ दिनों से आपके ब्‍लॉक का नियमित पाठक हूं आपका यह प्रसास सराहनी है, पढने का शौक मुझे शुरू से रहा है…. यह बात और है कि स्‍कूल की पढाई में कभी मेरा मन नहीं लगा लेकिन आपके ब्‍लॉग में दी गई रोचक, और ज्ञानवर्धक लेखों को पढते हुये मेरा मन कभी भी नहीं उबता ……….. आपके इस सराहनी प्रयास के लिये में आपका आभार प्रकट करता हूं ा आप ऐसे ही हिन्‍दी की सेवा करते रहें तथा रोचक और प्रेरक प्रसंगों का सिलसिला जारी रखें …….. आपका बहुत बहुत धन्‍यवाद ……..

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  4. solobackpacker.com (@solobackpacker)

    पंडितजी, मैं बनारस के पास एक छोटे से कसबे का निवासी हूँ, लेकिन जिंदगी ने दिल्ली की तंग गलियों में लाकर पटक दिया है। अपने बारे में आपने जो जानकारी लिखी है, वो बहुत ही रुचिकर है। ऐसे ही कितने अच्छे बुरे पड़ावों से गुजरकर आज जिंदगी की गाडी यहाँ तक पहुची है। कभी मौका मिला आपसे मिलने का तो अत्यंत ख़ुशी होगी।

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  5. Prakash Pandya. Banswara(Rajasthan)

    आदरणीय निशान्त जी,
    सादर प्रणाम ।
    बौद्धिक सम्पदा को पूरी उदारता के साथ समूचे विश्व में वितरण करते हुए आपका यह उपक्रम यज्ञ-याग से कम नहीं है। ज्ञान पिपासुओं और मुमुक्षुओं की तृषा-क्षुधा तृप्ति में स्तुत्य सहकार के लिए कृतज्ञ भाव से बधाई।
    प्रकाश पंड्या
    बांसवाड़ा- राजस्थान

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  6. devendradmishra2013

    गहन व ईमानदार चिंतन द्वारा जीवन दर्शन की सही व सटीक समझ दी है आपने, जिसके हेतु आपका हार्दिक आभार । आपके ब्लॉग से परिचित होकर बहुत आनंद व संतोष का अनुभव हुआ । शुभकामनायें ।

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  7. Gyani Pandit

    आदरणीय निशान्त जी,
    मैंने आज ही आपका ब्लॉग देखा इसे पढ़ा तो जाना की अपने बहुत मेहनत से इसे बनाया और संभाला है, काफी महत्वपूर्ण जानकारी दी है अपने अपने इस ब्लॉग के माध्यम से – यहाँ पर एक से बढ़कर एक प्रेरणादायक लेख है जो प्रशंसनीय है हिन्दी भाषा में आपका जो अमूल्य योगदान है बस इसके लिये… कमेन्ट के माध्यम से मुझे आपको धन्यवाद् देना था.

    धन्यवाद्…..
    gyanipandit.com

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    1. Nishant

      नमस्ते सुनील कुमार जी, हिंदीज़ेन पर कमेंट करने के लिए धन्यवाद.

      कई साल पहले मैंने हिंदीज़ेन को सामूहिक ब्लॉग में कन्वर्ट करने के बारे में सोचा था लेकिन मुझे अच्छे लेखक/संकलक व गुणवत्ता की सामग्री नहीं मिली. यदि आप हिंदीज़ेन पर अपने नाम से कुछ पोस्ट करवाना चाहते हैं तो उत्तम कोटि की सामग्री मुझे भेज दें. सामग्री कहीं और प्रकाशित नहीं हुई हो तो बेहतर होगा.

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  8. कमल dikshit

    निशांत जी, आपको पढ़ते हुए यह स्पष्ट हुआ कि विचार, अनुभव आदि के बारे में निरंतर संविमर्ष के साथ खुलापन रखना चाहिए और “नेति” के बजाय “स्यात” की सम्भावना बनाये रखना उचित और उपयुक्त होगा. बहुत बहुत बधाई अपने आप को मथकर नवनीत को प्रकट करने का अवसर देने के लिए . क दीक्षित

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