इस वर्ष अप्रेल में मैंने अपने प्रिय मौसेरे भाई को कैंसर के हाथों खो दिया।
अन्नू भैया मुझसे लगभग 7–8 साल बड़े थे। 1980–90 के दौरान मुझे उनके साथ समय बिताना बहुत अच्छा लगता था क्योंकि हम दोनों के पास ही इफरात समय था और उनके पास साइकिल होती थी। बाद में उनके पास लूना या टीवीएस एक्सएल जैसी कोई मोपेड आ गई। मैं उनके साथ शहर के दूरदराज के बाजारों में जाता था। हम गन्ने का रस पीते थे। चार आने में मिलनेवाले पान खाते थे। भोपाल की सेंट्रल लाइब्रेरी में बैठे रहते थे। वे बहुत बेफिक्री के दिन थे।
अन्नू भैया को शुरु से ही रेडियो और टेपरिकॉर्डर वगैरह सुधारना अच्छा लगता था। हमारे पास बाबा आदम के जमाने का रेडियो था जिसके अंदर वाल्व जैसी चीज़ें धीरे-धीरे जलती थीं। उसके पार्ट्स मिलना बहुत कठिन था। मुझे याद है कि उसके पार्ट्स और एंटीना वगैरह के लिए हम दोनों ने न जाने कितनी दुकानों की खाक छानी। पतंग उड़ाना, साइकिल चलाना और मूंछ वाले बल्बों को जोड़कर सर्किट (सीरीज़) बनाना मैंने उनसे ही सीखा था।
बाद में अन्नू भैया की नौकरी रेलवे में लग गई। उनकी शादी हुई और एक बेटा भी हुआ जो अभी इंजीनियरिंग कर रहा है।
अन्नू भैया को 2017 की शुरुआत से ही सर दर्द होता रहा। वे बहुत मोटे कांच का चश्मा लगाते थे इसलिए उन्होंने सोचा कि 50 की उम्र के बाद नज़र कमज़ोर होने के कारण सर दुखता होगा। वे इसे कई महीने तक नज़रअंदाज़़ करते रहे। 2017 के अंत में उन्हें तेज दर्द हुआ और वे बेहोश हो गए। उनकी MRI कराई गई, जिससे पता चला कि उनके ब्रेन में ट्यूमर था।
उन्हें आननफानन में मुंबई लेकर गए जहां ऑपरेशन किया गया। भोपाल लौटने पर कैंसर अस्पताल में उनकी रेडियोथैरेपी और कीमोथैरेपी शुरु कर दी गई ताकि कैंसर पलटकर नहीं आ जाए।
कुछ महीने शांति से बीते (यह 2018 के बीच की बात है) लेकिन उनकी हालत दोबारा बिगड़ने लगी। हाथ-पैरों का कांपना, बोलने और खाने में कठिनाई और इस जैसे ही दूसरे लक्षण। MRI से पता चला कि कैंसर दोबारा आ गया था। फिर मुंबई का एक दौरा और दूसरा आपरेशन। रेडियोथैरेपी और कीमोथैरेपी के दूसरे राउंड शुरु हो गए।
पैसा पानी की तरह बहा जा रहा था। वे सरकारी कर्मचारी थे लेकिन सरकारी तरीके से इलाज कराने में देरी होती इसलिए परिवार ने सीधे ही प्राइवेट इलाज करवाना सही समझा। पत्नी और बेटे के साथ हवाई जहाज से आना जाना और कई-कई सप्ताह तक मुंबई में रुककर कैंसर का इलाज करवाना बहुत अधिक खर्चीला है। कई परिवार आर्थिक रूप से तबाह हो जाते हैं।
पिछले साल दीवाली के आसपास मुझे पता चला कि अन्नू भैया को Glioblastoma multiforme (GBM) नामक ग्रेड-4 कैंसर था। मैं इस बारे में कुछ नही जानता था इसलिए मैंने इंटरनेट पर सर्च किया। यह पढ़ते ही मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई कि यह सबसे खतरनाक किस्म का ब्रेन कैंसर था और इससे प्रभावित व्यक्ति के 2 या 3 साल से अधिक जीवित रहने की कोई संभावना नहीं थी। इसके बारे में मेरे सामने इतना सारा डेटा था कि मैंने बड़े बुझे दिल से यह मान लिया था कि हम एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे थे। कैंसर की गिरफ्त में अन्नू भैया को 2 साल हो चुके थे और हम यह भी नहीं जानते थे कि डायगनोसिस से कितना समय पहले कैंसर ने उनके ब्रेन में जगह बनाई।
पिछले साल दीवाली के बाद अन्नू भैया की हालत बिगड़ती गई। उनका चलना-फिरना भी बंद हो गया। मुंबई ले जाने पर डॉक्टरों ने कह दिया कि अब कोई ऑपरेशन नहीं किया जा सकता क्योंकि कैंसर ब्रेन में बुरी तरह से फैल चुका था।
भोपाल वापसी पर वे बीच-बीच में अस्पताल में भर्ती होते रहे। अब शरीर में भयंकर तरह से झकझोरने वाले दौरे आने लगे थे। दिमाग पूरे शरीर पर से नियंत्रण खोता जा रहा था। एक मन कहता था कि अभी भी कोई चमत्कार हो सकता है, लेकिन दूसरा मन कहता था कि अब गिनती के ही दिन बचे हैं।
इस साल मार्च में अन्नू भैया अस्पताल में भर्ती हुए और कोमा में चले गए। वे पूरे एक महीने कोमा में पड़े रहे और डॉक्टरों ने कई बार परिवार से लाइफ सपोर्ट हटाने के बारे में कहा लेकिन यह निर्णय लेने की किसी को भी हिम्मत नहीं हुई। अंततः 2 अप्रेल को लाइफ सपोर्ट हटा दिया गया और खेल खतम हो गया।
अन्नू भैया तो खैर प्रौढ़ हो चले थे। कैंसर अस्पताल में बहुत से नवयुवक और छोटे बच्चे देखने को मिले जो ग्रेड-4 लेवल के कैंसर से ग्रस्त थे और उनके बचने की कोई उम्मीद नहीं थी।
आमतौर पर आखरी स्टेज के कैंसर के लक्षणों को नज़रअंदाज़ करना बहुत कठिन है लेकिन कैंसर इतना जटिल रोग है कि यह भीतर-ही-भीतर व्यक्ति को खाता रहता है और किसी को पता ही नहीं चल पाता। कभी-कभी कैंसर के कोई लक्षण मौजूद नहीं होते और कभी-कभी बहुत मामूली लक्षण मौजूद होने पर भी व्यक्ति इस गफलत में रहता है कि उसे इतनी गंभीर बीमारी नहीं हो सकती। लोग अपने परिवार, बच्चों, नौकरी, मनोरंजन में इतने रमे रहते हैं कि कैंसर जैसे किसी रोग के होने का बुरा खयाल भी लोगों के मन में नहीं आता।
बहुत से कैंसर वाकई लक्षणहीन होते हैं। कई बार लोगों को पता ही नहीं होता कि किसी खास लक्षण का संबंध कैंसर से भी हो सकता है। लोग अपने शरीर में कुछ अजीब-सा अनुभव करते हैं लेकिन इसे गंभीरता से नहीं लेते। कई बार लोगों के डॉक्टर भी इतनी दूर का नहीं सोच पाते और रोग कुछ सप्ताह में ही प्राणघातक हो जाता है।
इसके अलावा कैंसर के कुछ प्रकार भयंकर उग्रता से बढ़ते हैं और उनपर उपचार की किसी विधि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। बहुत से मामलों में गरीबी या आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण अच्छा इलाज नहीं मिलना भी शीघ्र मृत्यु होने का बड़ा कारण होता है। कुछ खास तरह के कैंसर शरीर के भीतर कई सालों तक पनपते रहते हैं, जैसे अंडाशय का या आंतों का कैंसर। इन्हें साइलेंट किलर कहते हैं। इनके ट्यूमर को कभी-कभी डिटेक्ट होने लायक आकार तक बढ़ने में 10 साल तक लग जाते हैं।
कुल मिलाकर, कैंसर रोग की गंभीरता और जटिलता को मुझ जैसे बहुतेरे लोग तभी समझ पाते हैं जब उनका कोई प्रियजन इसकी चपेट में आकर गुम हो जाता है और कुछ महीनों के भीतर ही कोई खुशहाल परिवार बर्बाद हो जाता है।
और जब हममें से किसी के प्रियजन को यह रोग हो जाता है तब उन कुछ हफ्तों या महीनों के दौरान बहुत सी दूसरी चीज़ें हमारे लिए अर्थ खो बैठती हैं – ये वे दो कौड़ी की चीज़ें हैं जिनपर हम अपनी बेशकीमती ज़िंदगी का दारोमदार डाल देते हैं। हमें दुनिया भर की तुच्छ बातों और चीज़ों के सतहीपन का इल्म होने लगता है। हम यह परवाह नहीं करते कि बिल्डिंग के बाहर किसने हमारी पार्किंग की जगह हथिया ली या किसने हमारे पौधों से फूल तोड़ लिए। हम साल-दर-साल हर दिन नींद से जागने पर अपने प्रियजनों को और अपने पसंदीदा टीवी शो को देखना चाहते हैं।
Photo by Eduard Militaru on Unsplash
Respected sir,,
Very nice post,,,I will miss you you post long time…. salute sir
Regards
Jitender Kumar
Chandigarh
9592755786
पसंद करेंपसंद करें
Sorry for your loss.
पसंद करेंपसंद करें