वर्तमान में पृथ्वी पर या पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे उपग्रहों में से कोई भी टेलीस्कोप इतना शक्तिशाली नहीं है कि वह मनुष्यों द्वारा चंद्रमा पर छोड़े गए बड़े-बड़े उपकरण और मशीनी गाड़ियों को देख सके, छोटे से झंडे को देख पाना तो और भी अधिक कठिन है.
चंद्रमा पर अपोलो अभियानों (अपोलो 11, 12, 14, 15, 16, और 17) के अंतरिक्ष यात्रियों ने सं. रा. अमेरिका के छः झंडे लगाए थे. चंद्रमा के वायुहीन कम गुरुत्व वाले वातावरण में झंडे फहराना संभव नहीं था इसलिए झंडों के चारों ओर धातु के तार का फ्रेम बनाकर उन्हें लगाया गया था. यही कारण है कि ये झंडे हवा में फहरते हुए दिखने का भ्रम देते हैं. ये झंडे साधारण कपड़े और नाइलोन के बने थे और अधिकांश वैज्ञानिकों का यह मानना है कि ये सभी झंडे उच्च तापमान, पराबैंगनी प्रकाश और अन्य विकिरणों के प्रभाव में अब तक पूरी तरह से नष्ट हो चुके होंगे.
आमतौर पर लोग यह मानते हैं कि अंतरिक्ष में दूर-दूर की मंदाकिनियों और तारामंडलों को खोजने मेें सक्षम दूरबीनों को चंद्रमा की सतह की बारीकियां और वहां छोड़े गए उपकरण दिखाई देने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए. लेकिन लोग अंतरिक्ष की विराट दूरियों के पैमानों को बहुत कम करके आंकते हैं. मंदाकिनियां हालांकि चंद्रमा की तुलना में हमसे लाखों प्रकाश वर्ष दूर हैं लेकिन वे चंद्रमा से अरबों-खरबों गुना अधिक बड़ी भी हैं. दूरबीनों को हमेशा उन वस्तुओं को देखने के लिए बनाया जाता है जिन्हें हम किसी अन्य उपाय से नहीं देख पाते. चूंकि हम यह पहले से ही जानते हैं कि चंद्रमा की सतह पर लगाए गए झंडे अभी भी अस्तित्व में हैं इसलिए हमारे पास उन्हें देखने में सक्षम दूरबीन बनाने का कोई उचित कारण नहीं है. आज हमें एक ऐसी दूरबीन बनाने की आवश्यकता है जो सौरमंडल के हर कोने में घट रही घटनाओं को देख पाने में हमारी सहायता करे. एक 60 मीटर चौड़े दर्पण से बनी दूरबीन के ऑप्टिक्स इतने प्रभावी होंगे कि हम उससे पूरे सौरमंडल का अध्ययन बारीकी से कर सकेंगे. ऐसी दूरबीन को बनाने में कई वर्ष लगेंगे और इसमें अपार संसाधन वगैरह भी खर्च होंगे इसलिए यह किसी भी सरकार की प्राथमिकता में नहीं है.
फिलहाल पृथ्वी पर शौकिया या प्रोफेशनली चंद्रमा का अध्ययन करनेवालों के पास ऐसी कोई दूरबीन नहीं है जिसमें बड़े दर्पणों का प्रयोग किया गया हो और जो चंद्रमा पर छोड़े गए 5 झंड़ों को देख पाने में सक्षम हो. सबसे अधिक प्रसिद्ध अपोलो-11 अभियान द्वारा लगाया गया झंडा वापस लौटते समय अंतरिक्ष यान से निकलने वाले प्रणोदन के धमाके से उड़ गया था. चंद्रमा की सतह पर मौजूद अधिकांश भूआकृतियों और मशीनों की फोटो चंद्रमा की परिक्रमा कर रहे उपग्रहों द्वारा ली गई है, पृथ्वी पर मौजूद किसी दूरबीन द्वारा नहीं. लोग इस संबंध में इंटरनेट पर तरह-तरह की भ्रांतियां फैलाते रहते हैं.
ऊपर फोटो में आप अपोलो-12 मिशन द्वारा चंद्रमा पर लगाए गए झंडे और उसकी परछांई को देश सकते हैं. फोटो के स्रोत की लिंक. इस लिंक पर क्लिक करने पर आपको चंद्रमा पर लगे झंडों की वर्तमान स्थिति के बारे में अच्छी जानकारी मिलेगी.
संयुक्त राष्ट्र संघ की बाह्य अंतरिक्ष संधि (United Nations Outer Space Treaty) के अनुसार कोई भी देश चंद्रमा पर अपना आधिपत्य नहीं कर सकता है. 1967 में स्थापित इस संधि के अनुसार अंतरिक्ष में प्रवेश करने वाले हर देश को इसे मानना जरूरी है. अब तक 102 देशों में इस पर अपने हस्ताक्षर किए हैं. अंतरिक्ष कानूनों के बहुत से जानकार अभी भी इस संधि से जुड़ी अनेक बातों को लेकर एकमत नहीं है. बहुत सी प्राइवेट संस्थाएं इसकी कुछ कमियों का फायदा उठा सकती हैं.
यह प्रश्न उठता है कि जब कोई भी देश चंद्रमा पर अपना अधिकार नहीं कर सकता तो अमेरिकी अंतरिक्ष यात्रियों ने वहां पर अपना झंडा क्यों गाड़ा? इसका उत्तर यह है कि अमेरिकी अंतरिक्ष अभियानों में अमेरिका ने अपार धन राशि खर्च की और अपनी राष्ट्रवादी और नागरिक भावनाओं का सम्मान करने के लिए और यह इंगित करने के लिए कि अमेरिका वहां पहुंचने वाला पहला राष्ट्र था, इसलिए उन्होंने वहां पर अपना झंडा लगाया. चंद्रमा पर अपना झंडा लगाना केवल अपनी शक्ति और उपलब्धियों का एक सांकेतिक प्रदर्शन मात्र था. यह चंद्रमा पर अमेरिका के अधिकार को नहीं दिखाता.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन लीला चिटनिस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर …. आभार।।
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गजब की अच्छी जानकारी दी गई है….
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बहुत रोचक….
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