इस प्रश्न के उत्तर का संबंध मनुष्य के विकासवादी जीवविज्ञान (evolutionary biology) की कुछ रहस्यमय और विचलित कर देने वाली कहानियों से है.
स्त्रियों का मासिक धर्म 28 दिनों के चक्र के रूप में होता है. इसके 9वें और 21वें दिन के बीच में एक अंडाणु परिपक्व होकर किसी एक अंडाशय से निकलता है. इस रिलीज़ को अंडोत्सर्ग (ovulation) कहते हैं. अंडाणु अंडोत्सर्ग के 24 घंटे बाद तक ही जीवित रह सकता है. गर्भ ठहरने के लिए इसका शुक्राणु (sperm) से मिलकर निषेचित (fertilise) होना ज़रूरी होता है. इस अवधि में यदि यह किसी स्वस्थ शुक्राणु से मिल जाता है तो नए जीवन के आकार लेने की प्रक्रिया शुरु हो जाती है.
यदि ऐसा नहीं होता है तो इस अंडाणु की जीवन यात्रा वहीं समाप्त हो जाती है. यह या तो भीतर ही गल जाता है, या शरीर द्वारा सोख लिया जाता है, या मासिक धर्म के रक्त-प्रवाह के द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है. अंडाणु का निषेचन नहीं हो सकने पर अंडाशय एस्ट्रोजन (estrogen) और प्रोजेस्टेरोन (progesterone) हार्मोन बनाना बंद कर देते हैं (ये दोनों हार्मोन गर्भावस्था बनाए रखना सुनिश्चित करते हैं). एस्ट्रोजन गर्भाशय की दीवार को मोटा करके उसे गर्भावस्था के लिए तैयार करता है. यदि स्त्री गर्भवती नहीं होती है तो एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन का स्तर गिर जाता है. इस दोनों हार्मोनों के स्तर में होनेवाली गिरावट से मासिक धर्म की शुरुआत होती है. गर्भाशय की दीवार में बनी पोषक पदार्थ की पर्त (एंडोमेट्रियम) गलकर मासिक धर्म के रक्त के साथ योनि (vagina) से निकल जाती है. जब यह पर्त पूरी तरह से निकल जाती है तो शरीर दूसरे मासिक चक्र के लिए तैयार हो जाता है.
बहुत से लोग यह मानते हैं कि ऋतुस्त्राव या मासिकधर्म स्तनधारियों का विशेष लक्षण है पर यह सही नहीं है. यह विशेषता केवल कुछ उच्च प्रजाति के प्राइमेट्स और चमगादड़ों में ही पाई जाती है. इनमें भी आधुनिक स्त्री ही अन्य प्राणियों की तुलना में सबसे अधिक ऋतुस्त्राव करती हैं. ऋतुस्त्राव शरीर के पोषक तत्वों की बर्बादी है, यह स्त्री को कष्ट देता है, और कई हानिकारक प्राणियों को पलने का अवसर उपलब्ध कराता है. ऋतुस्त्राव क्यों होता है यह जानने के लिए हमें सबसे पहले यह समझना चाहिए कि हमें मनुष्य के सबसे अंतरंग संबंध… मां और गर्भस्थ शिशु के बीच के संंबध के बारे में कभी भी सही जानकारी नहीं दी गई.
गर्भावस्था बहुत सुंदर होती है न? आप गर्भावस्था पर कोई किताब पढ़िए. आप उसमें देखेंगे कि मां बनने जा रही एक स्त्री अपने पेट को कोमलता से छू रही है. उसकी आंखें स्नेह और अचरज से भीगी होती हैं. आपको लगेगा कि वह अपने शिशु को विकसित करने और उसकी रक्षा करने के लिए कुछ भी कर सकती है. किताब के पन्ने पलटने पर आप देखेंगे कि स्त्री के शरीर के क्रियाविज्ञान (physiology) ने उसे अपने बच्चे को जन्म देने के लिए बहुत जटिल तरीके से बनाया है.
यदि आप एक स्त्री हैं और गर्भवती हो चुकी हैं तो आपको पता होगा कि गर्भावस्था की वास्तविक कहानी इतनी भावभीनी नहीं होती. शिशु को जन्म देने के महान उद्देश्य और गौरव के पीछे कई सप्ताहों और महीनों तक मितली, अरूचि, थकान, पीड़ा, मानसिक परेशानी, पेशाब की गड़बड़ियां, और ब्लड प्रेशर की दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं. आप उन 15% स्त्रियों में से एक भी हो सकती हैं जिनके लिए गर्भावस्था जीवन के संकट में डालनेवाले खतरे साथ लेकर आती है.
अधिकांश स्तनधारियों के बारे में सोचें तो यह सब बहुत अजीब है. अधिकांश मादा स्तनधारी प्राणी दर्जन भर तक बच्चे देने के बाद भी उछलते-कूदते, शिकार करते या शिकार से बचने के लिए दौड़ते-भागते रहते हैं. तो उन मादाओं में और एक स्त्री में इतना अंतर क्यों है? इस प्रश्न का उत्तर हमारी गर्भनाल या प्लेसेंटा (placenta) में छुपा है. अधिकांश स्तनधारियों में प्लेसेंटा गर्भस्थ शिशु के शरीर का ही एक भाग होता है जो मां की रक्त वाहिनियों से बहुत ही सतही तरीके से जुड़ा होता है और नन्हे प्राणी को पोषण पहुंचाता रहता है. मार्सूपियल (Marsupials, कंगारू जैसे प्राणी) अपने भ्रूण (fetuses) को रक्त तक पहुंचने ही नहीं देते. वे अपनी थैली में मूत्राशय की दीवार से एक प्रकार के दूध का स्त्राव करते हैं. केवल कुछ ही स्तनधारी प्राणी (जिनमें प्राइमेट्स और चूहे शामिल हैं) इस प्रकार से विकसित हुए हैं कि उनका प्लेसेंटा हीमोकॉर्डियल (hemochorial) प्लेसेंटा के रूप में जाना जाता है. इनमें से भी मनुष्यों का प्लेसेंटा सबसे अटपटा होता है.
गर्भाशय के भीतर एंडोमेट्रियल ऊतक (endometrial tissue) की एक मोटी पर्त एंडोमेट्रियम होती है जिसमें बहुत सूक्ष्म रक्त वाहिनियां होती हैं. एंडोमेट्रियम (endometrium) नए-नए भ्रूण को रक्त की मुख्य आपूर्ति से दूर रखता है. बढ़ता हुआ प्लेसेंटा इस मोटी पर्त को चीरकर रक्त वाहिनियों को जमा करके भूखे भ्रूण तक रक्त पहुंचाता है. यह अपने आसपास के ऊतकों से गहराई से जुड़ जाता है, उन्हें तोड़ता है और उनमें ढेर सारे हार्मोन छोड़ता है ताकि वे भीतर बनी खाली जगह में फैलते जाएं. यह इन रक्त वाहिनियों को इस प्रकार से पंगु कर देता है कि मां का शरीर भी उन्हें संकुचित नहीं कर सकता.
इन सारी बातों का मतलब यह है कि बढ़ते हुए भ्रूण को अब अपनी मां से बिना किसी रुकावट के रक्त की सीधी आपूर्ति होने लगती है. यह अब हार्मोन बना सकता है और उन हार्मोनों के द्वारा मां के शरीर में भी हेर-फेर कर सकता है. यह मां की ब्लड शुगर बढ़ा सकता है, उसकी रक्त वाहिनियों को फैला सकता है, और उसके ब्लड प्रेशर में वृद्धि करके खुद को और अधिक पोषक तत्व पहुंचा सकता है. और यह अक्सर ही ऐसा करता रहता है. भ्रूण की कुछ कोशिकाएं प्लेसेंटा से होते हुए मां के शरीर की रक्त धारा में पहुंच जाती हैं. वे मां के रक्त और अंगों, यहां तक कि मस्तिष्क में भी जीवन भर तक बढ़ती रहती हैं.
हो सकता है कि आपको यह सब पढ़ना अशिष्टता लग रही हो. दरअसल, यह सब विकासवादी दृष्टि से होने वाली प्रतिद्वंदिता है. मां और भ्रूण की विकासवादी रूचियां अलग-अलग हैं. मां का शरीर उसके सभी विद्यमान बच्चों और भविष्य में होनेवाले बच्चों को समान मात्रा में संसाधन उपलब्ध कराना चाहता है. दूसरी ओर, भ्रूण खुद के जीवन की ही चिंता करता है और जितना पोषण मिले उतना ले लेना चाहता है.
यहां एक तीसरा पक्ष प्रवेश करता है – पिता. पिता की रूचियां मां मे उतनी अधिक नहीं होती क्योंकि ज़रूरी नहीं कि वह उसके ही बच्चे को जन्म देने जा रही हो. जीनोमिक इंप्रिंटिंग (genomic imprinting) नामक एक प्रक्रिया से भ्रूण में पिता के शरीर से आए कुछ जीन्स प्लेसेंटा में सक्रिय हो सकते हैं. ये जीन्स निर्ममतापूर्वक मां की ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ करके शिशु के हित में कार्य करते हैं.
हमें ऐसा स्वार्थी हीमोकॉर्डियल प्लेसेंटा क्यों मिला जो भ्रूण और पिता को असाधारण शक्तियां देता है? हमें रिसर्च से पता चलता है कि प्राइमेट्स में प्लेसेंटा बहुत अधिक आक्रामक होता गया है. दुर्भाग्यवश इसके जीवाश्मीय प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि शरीर के ऊतकों का जीवाश्मीकरण ठीक से नहीं होता.
लेकिन इसके परिणाम स्पष्ट हैं. अन्य स्तनधारी प्राणियों की गर्भावस्था बहुत ही नीति-नियम से चलने वाली प्रक्रिया है क्योंकि वहां मां बहुत निर्दयी हो जाती है. उसके बच्चों का जीना या मरना उसके हाथों में होता है. वह उनके पोषण की आपूर्ति को नियंत्रित करती है. उसका शरीर उन्हें कभी भी शरीर से बाहर फेंक सकता है या अवशोषित कर सकता है. मनुष्य स्त्रियों में गर्भावस्था इसके बिल्कुल विपरीत किसी समिति द्वारा नियंत्रित की जाती है- और इस समिति में ऐसे सदस्य होते हैं जिनकी रूचियां उलट होती हैं और वे एक-दूसरे से बहुत कम सूचनाएं शेयर करते हैं. यह एक रस्साकशी है जो किसी युद्ध की ओर बढ़ती जाती है. बहुत सी खतरनाक परिस्तिथियां जैसे एक्टोपिक गर्भावस्था (जिसमें भ्रूण गर्भाशय के बाहर बढ़ने लगता है), गर्भजनक डायबिटीज़, और बहुत हाइ ब्लड प्रेशर आदि इस अंतरंग प्रक्रिया की कुछ गड़बड़ियां हो सकती हैं.
लेकिन इन सारी बातों का ऋतुस्त्राव या मासिकधर्म से क्या लेना है? बोर मत होइए, हम उसी की बात करने जा रहे हैं.
स्त्री के दृष्टिकोण से हीमोकॉर्डियल प्लेसेंटा होने के बाद भी गर्भावस्था हमेशा ही एक बड़ी इन्वेस्टमेंट है. प्लेसेंटा के स्थापित होते ही वह न केवल उसके अपने हॉर्मोनों पर नियंत्रण खो देती है बल्कि प्लेसेंटा के बाहर आ जाने पर हैमरेज का खतरा भी उठाती है. इसलिए यह लाजमी है कि स्त्री भ्रूण को बहुत ही जतन व सावधानी से पनपने के लिए चुने. किसी कमज़ोर व आगे जाकर मरने की संभावना वाले भ्रूण को गर्भावस्था में पनपने देने का कोई औचित्य नहीं है.
यहीं पर एंडोमेट्रियम का महत्व सामने आता है. आपने शायद कहीं पढ़ा हो कि एंडोमेट्रियम नन्हे और नाज़ुक भ्रूण को लपेटकर उन्हें बहुत आरामदायक वातावरण उपलब्ध कराने की तैयारी करता है. लेकिन होता इसके ठीक विपरीत है. रिसर्च करनेवालों ने चूहों के पूरे शरीर पर भ्रूणों को उगाकर देखा है. केवल एंडोमेट्रियम ही एकमात्र वह स्थान है जहां उन्हें भ्रूण को उगाने में सबसे अधिक कठिनाई आई.
पोषण देने वाली व्यवस्था देने के विपरीत एंडोमेट्रियम ऐसे खतरनाक परीक्षण स्थल के रूप में कार्य करता है जहां केवल सबसे मजबूत भ्रूण ही पनप सकते हैं. स्त्री प्लेसेंटा को उसकी रक्त धारा तक पहुंचने में जितना देर लगाती है उतना ही अधिक उसे यह निर्णय करने का मौका मिलता है कि भ्रूण को कम-से-कम खतरा उठाकर कैसे नष्ट किया जा सकता है. इसके विपरीत भ्रूण प्लेसेंटा में शीघ्रातिशीघ्र स्थापित होना चाहता है ताकि वह वह मां का पोषक रक्त भी प्राप्त कर सके और अपने सर्वाइवल के लिए उसे जोखिम में डाल सके. यही कारण है कि एंडोमेट्रियम मोटा व मजबूत होता जाता है और भ्रूण का प्लेसेंटा और अधिक आक्रामक होता जाता है.
लेकिन इन सबसे कुछ समस्याएं भी उत्पन्न होती हैं. यदि भ्रूण मर जाए या गर्भाशय में जीवन-मरण के संकट में फंस जाए तो क्या होगा? एंडोमेट्रियम की सतह पर रक्त की आपूर्ति सीमित होनी चाहिए अन्यथा भ्रूण प्लेसेंटा को वहीं अटैच कर देगा. लेकिन रक्त की आपूर्ति सीमित हो जाएगी तो ऊतक मां से मिलने वाले हॉर्मोन के सिग्नलों के लिए प्रतिक्रिया ठीक से नहीं करेगा और समीप स्थित भ्रूण से मिलनेवाले सिग्नलों के लिए अधिक संवेदनशील हो जाएगा जो वास्तव में यह चाहता है कि एंडोमेट्रियम उसके हित में ही कार्य करे. इसके अलावा, इससे संक्रमण होने की संभावना भी बढ़ जाती है क्योंकि इसमें पहले से ही मृत कोशिकाएं और ऊतक होते हैं.
ऊंची प्रजाति के प्राइमेट्स में इसका हल यह निकाला गया कि पूरे के पूरे सतही एंडोमेट्रियम को शरीर से बाहर फेंक दिया जाए जिसमें मृत भ्रूण हो या गर्भ नहीं ठहर पाने पर बेकार हो गया अंडाणु हो. यह व्यवस्था बहुत अच्छी नहीं है लेकिन यह काम करती है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह गर्भावस्था के पहले या उसके दौरान हॉर्मोनों द्वारा कुछ रासायनिक परिवर्तनों के किए जाने पर आसानी से संपन्न हो जाती है. दूसरे शब्दों में, यह प्राकृतिक चयन का अनूठा उदाहरण है जिसमें विचित्र समाधानों से जटिल समस्याएं हल की जा सकती हैं. यह उतना बुरा नहीं होता जितना दिखता है. कोई स्त्री अपने पूरे जीवनकाल में औसतन केवल 400 बार ही ऋतुस्त्राव करती है.
हम नहीं जानते कि हमारा आक्रामक प्लेसेंटा मनुष्यता को यूनीक बनाने वाले अन्य लक्षणों से किस प्रकार से संबद्ध है. लेकिन ये लक्षण किसी तरह से एक-दूसरे के साथ घुलते-मिलते रहे, जिसका अर्थ यह है कि कुछ अर्थों में हमारे पूर्वज बहुत हद तक सही थे. जब हमने (लाक्षणिक रूप से) “ज्ञान का फल” चखा – जब हमने विज्ञान और तकनीक की ओर यात्रा करनी प्रांरंभ की, जिसने हमें सीधे-सादे पशुओं से पृथक कर दिया और हमें मैथुनिक नैतिकता के अनोखे विवेक तक ले गई – शायद यही वह कालखंड रहा होगा जब स्त्रियों के लिए मासिक धर्म की यातना और गर्भावस्था व बच्चे को जन्म देने की पीड़ा नियत कर दी गई. और यह सब हीमोकॉर्डियल प्लेसेंटा के कारण हुआ.
Suzanne Sadedin, Evolutionary Biologist के एक क्वोरा उत्तर पर आधारित. Photo by Asdrubal luna on Unsplash