यह क्वोरा पर मेरे फ़ेवरिट लेखक बालाजी विश्वनाथन ने लिखा है.
मान लो कि तुम्हारे दादा एक छोटे से कस्बे में रहते थे. यह कस्बा भारत के औसत कस्बों जैसा ही था जहां हर समुदाय और आर्थिक पृष्ठभूमि के लोग रहते हैं. इनमें कुछ लोग संपन्न होते हैं, कुछ लोग गरीब, और बहुत से लोग औसत होते हैं.
तुम्हारे दादा के कई खेत हैं और एक फ़ैक्ट्री भी है. वे कस्बे के सबसे संपन्न व्यक्ति हैं. वे पुराने खून चूसनेवाले जमींदारों की तरह नहीं हैं और कस्बे में उनकी छवि एक परोपकारी व्यक्ति की है.
एक दिन किसी बड़ी यूनिवर्सिटी से पढ़कर निकला युवक किशन कुमार उस कस्बे में आता है. किशन कुमार बहुत टैलेंटेड और विद्वान है. वह अपने ज्ञान और नए विचारों से सभी को प्रभावित कर लेता है.
किशन कुमार तुम्हारे दादा को कस्बे की गरीबी के बारे में समझाता है. वह दादा को लोगों की गरीबी दूर करने के लिए प्रेरित करता है और कुछ करने के लिए कहता है. चूंकि तुम्हारे दादा का पुश्तैनी घर बहुत बड़ा है, वे किशन कुमार और उसके दो दोस्तों को रहने के लिए थोड़ी जगह दे देते हैं. उनके खाने-रहने का भी अच्छा ध्यान रखते हैं.
कुछ दिनों के बाद किशन कुमार अपने कुछ और दोस्तों को घर ले आता है. ये लोग पड़ोसी कस्बों में बाढ़ आ जाने के कारण अपना सब कुछ खो बैठे थे और उन्हें मदद की ज़रूरत थी. दादा को लगता है कि यह थोड़े दिनों की दिक्कत है, लेकिन घर में खाली जगह नहीं थी इसलिए दादा तुम्हारे चाचा-चाचियों को कुछ कमरे शेयर करने के लिए कह देते हैं.
कुछ महीनों तक कस्बे की राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिस्तिथियों का अध्ययन करने के बाद किशन कुमार दादा से कहता है कि उनके अपने घर में ही भीषण असमानताएं हैं इसलिए शुरुआत घर से ही करनी पड़ेगी. वह दादा से कहता है कि उन्हें नौकर-नौकरानियां रखने की पुरानी सामंती मानसिकता से बाहर निकलना चाहिए. घर में सभी से कहा जाता है कि वे घर, खेत, और फैक्ट्री के काम मिल-जुल कर करेंगे. अब मालिक और नौकर एक साथ मिलकर कंधे-से-कंधा मिलाकर काम करने लगे. किशन कुमार ने लोगों को बताया कि इसे ही साम्यवाद या कम्युनिज़्म कहते हैं. सभी लोगों को यह समतावादी पक्षपातहीन विचार बहुत अच्छा लगा. वे साथ बैठकर खाते और हंसते-गाते थे. सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था.
एक वर्ष बीत गया.
किशन कुमार को एक नया विचार सूझता है. वह लोगों से कहता है कि उन्हें घर, जमीन, और वस्तुओं को निजी संपत्ति नहीं मानना चाहिए क्योंकि हमें सब कुछ समाज से ही मिलता है इसलिए इनपर समाज का ही अधिकार होना चाहिए. अब घर में छोटे बच्चे भी अपने कपड़े, साइकल, किताबें, पेन वगैरह दूसरों के साथ शेयर करने लगते हैं. कोई यह नहीं कहता कि वह चीज उसकी है और वह किसी दूसरे को नहीं देगा.
दादा और उनके परिवार के सदस्यों को यह नीति अच्छी नहीं लगती लेकिन वे किशन कुमार को निराश नहीं करना चाहते इसलिए उसकी बात मान लेते हैं.
दादा वर्ष में एक बार परिवार के सभी सदस्यों को तीर्थयात्रा पर लेकर जाते हैं. उस वर्ष जब वे लौटकर आए तो घर का पूरा नज़ारा बदल चुका था.
इस बीच किशन कुमार ने बहुत से गरीब परिवारों को घर में आश्रय दे दिया. दादा के परिवार का सारा सामान एक कमरे में ठूंस दिया गया. किशन कुमार ने कहा कि पूरे कस्बे में एक व्यक्ति के पास रहने के लिए औसतन केवल 25 वर्ग फीट जगह थी इसलिए हमारे परिवार के 10 सदस्यों को 250 वर्गफुट का कमरा दे दिया गया.
हमारे पुश्तैनी घर में हर जगह अजनबी लोग घूमते दिखते थे. फर्श पर खाने-पीने की चीजें बिखरी रहती थीं. पूरा घर कबाड़खाना लगने लगा.
किशन कुमार ने दादा से पूछे बिना उनकी बैठक को अपना ऑफ़िस बना लिया. अब वह उनसे कुछ भी करने के पहले पूछता नहीं था बल्कि करने के बाद केवल सूचना दे देता था. दादा को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने किशन कुमार से सवाल-जवाब किया. उसके दोस्त दादा को समझाने के लिए बाहर ले जाते हैं लेकिन वे लौटकर नहीं आते. किशन कुमार का अब रवैया पूरी तरह से बदल चुका है.
अब किशन कुमार लोगों से कहता है कि गरीबी को दूर करने के लिए सभी को रोज़ाना 14 घंटे काम करना ही पड़ेगा. हर तरह की निजी संपत्ति को रखने पर प्रतिबंध लग जाता है. यदि कोई बच्चा अपनी जेब में चॉकलेट छिपा लेता है तो उसे बेंत से पिटने की सजा मिलती है. लोगों से कहा जाता है कि वे किसी भी तरह का मनबहलाव और मनोरंजन नहीं कर सकते. एक कमेटी का गठन किया जाता है जो यह तय करती है कि लोगों को क्या पढ़ना है, क्या देखना है, क्या रखना है. घर से TV और स्कूटर उठा लिए जाते हैं.
दादा का परिवार घर को बरबाद होते मायूसी से देखता रहता है. बाथरूम बुरी तरह से गंधाते रहते हैं. कालीन पता नहीं कहां चला जाता है और दीवारें गंदी होती जाती हैं.
इस कस्बे में कम्युनिज़्म अपने पैर पसार चुका है. लोग हांलांकि अभी भी बहुत गरीब हैे लेकिन कोई भी अब संपन्न नहीं है. केवल किशन कुमार के पास ही सारे संसाधन हैं और वह दादा के महंगे कोट पहनकर घूमता है. अब उसने घर की पूरी एक मंजिल पर कब्जा कर लिया है. कोई भी उसकी मर्जी के बगैर उससे मिल नहीं सकता. पूरे कस्बे में केवल उसके पास ही तुम्हारे दादा की बंदूक है. जिन दो दोस्तों को वह शुरुआत में लेकर आया था उनका अता-पता नहीं चलता. लोग बहुत डरे हुए हैं. कोई नहीं जानता कि कब किसके साथ क्या हो जाए. वे किसी से इन घटनाओं की बातें भी नहीं करते.
उस जगह से भागना हमारे परिवार के लिए असंभव था. केवल मैं ही अपने घर-परिवार को पीछे खतरे में छोड़कर भाग निकलने में सफल हो पाया.
साम्यवाद या कम्युनिज़्म ऐसी विचारधारा है जो प्रारंभ में बहुत रोचक और आकर्षक लगती है लेकिन देर-सबेर यह परिवार, समाज, और देश को तबाह कर देती है. लोग भलमनसाहत में इस विचार को स्वीकृति देकर इसे अपनाते हैं लेकिन यह उन्हें पूरी तरह से खोखला कर देती है.
यह कहानी नोबल पुरस्कार विजेता महान रूसी उपन्यासकार बोरिस पास्तरनाक (Boris Pasternak) के प्रसिद्ध नॉवल ‘डॉक्टर ज़िवागो’ (Doctor Zhivago) पर कुछ-कुछ आधारित है. यह उपन्यास इटली में 1957 में छपा था. इसके कुछ प्रसंगों पर महान फ़िल्मकार डेविड लीन (David Lean) ने 1965 में ‘Doctor Zhivago’ नाम से फ़िल्म बनाई. इस कहानी में जॉर्ज ऑर्वेल (George Orwell) के 1945 में छपे महान लघु उपन्यास (Animal Farm) का कथानक और सोवियत संघ के नेता व्लादिमीर लेनिन (Vladimir Lenin) और जोसेफ़ स्टालिन (Joseph Stalin) के जीवन की झलकियां भी दिख सकती हैं. (featured image)
Very good
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