गोरिल्ला के भोजन का 97% से भी अधिक भाग वनस्पति जगत से आता है. वे फल, पत्तियां, बांस, और जड़ आदि खाते हैं. गोरिल्ला बहुत कम मात्रा में कीड़े-मकौड़े खाते हैं. वनस्पतियों को पचाने के लिए उनका उदर बहुत विशाल होता है.
चिंपाजी भी मुख्यतः वनस्पतियां खाते हैं लेकिन वे कीड़े-मकौड़ों के अलावा वर्ष में 9-10 बार छोटी प्रजाति के बंदरों का शिकार करके उन्हें खा जाते हैं. इस प्रकार उनके आहार का भी लगभग 95% भाग वनस्पति जगत से आता है.
ओरांगउटान लगभग शुद्ध शाकाहारी प्राणी हैं. वे मुख्यतः फल, पत्तियां, और पेड़ों की छाल खाते हैं. अपवाद स्वरूप उन्हें छोटे लोरिस पकड़कर खाते देखा गया है लेकिन ऐसा तभी होता है जब उन्हें खाने के लिए कुछ नहीं मिले.
गिबन मंकी मुख्यतः फल खाते हैं लेकिन कीड़े, अंडे और छोटे पक्षी भी खाते हैं. भारतीय बंदर और लंगूर भी मुख्यतः बीज और फल आदि खाते हैं.
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि सभी प्रकार के बंदर और कपि मुख्यतः फलाहारी हैं और कभी-कभी मजबूरी में या मौका पड़ने पर छोटे जीव-जंतु भी खा लेते हैं.
इन सभी के लंबे नुकीले केनाइन (canines, शेर और कुत्ते जैसे लंबे-नुकीले दांत, श्वदंत, या रदनक दंत) होते हैं क्योंकि यह ज़रूरी नहीं है कि केवल सर्वाहारी (carnivores) प्राणियों के पास ही केनाइन दांत हों. केनाइन दांतों का उपयोग आत्मरक्षा के लिए, हिंसक जानवरों से बचाव के लिए, या प्रतिद्वंदियों को डराने के लिए भी किया जाता है. वानरों और कपियों में नर के केनाइन मादा की तुलना में बड़े होते हैं और गोरिल्ला में यह स्पष्ट दिखता है. यदि उपयोगी न हो और इससे कोई लाभ न हो तो भी इस प्रकार की शारीरिक विशेषता को विलुप्त होने में लंबा समय लगता है.
चूंकि अधिकांश बंदरों और कपियों के लंबे-नुकीले केनाइन होते हैं इसलिए यह प्रश्न उठता है कि मनुष्यों के केनाइन दांत इतने छोटे क्यों हो गए जबकि हम विकासक्रम में उनसे बहुत संबंधित हैं. केवल दांत ही नहीं बल्कि अन्य प्राइमेट पशुओं की तुलना में मनुष्यों के जबड़ों का आकार भी छोटा होता है. इसका एक संभावित कारण यह हो सकता है कि मनुष्यों ने काटने-छीलने वाले औजारों का उपयोग करना सीखा और आग में खाना पकाने से उनके लंबे दांतों और भारी जबड़ों की उपयोगिता कम हो गई क्योंकि आग में पके भोजन को बलपूर्वक चबाने की ज़रूरत नहीं होती. (featured image)