ये दो अलग अलग प्रश्न हैं और इनका उत्तर भी अलग-अलग देने का प्रयास करूंगा.
हमारा मस्तिष्क या दिमाग याद या स्मृति या मेमोरी को बहुत-बहुत सूक्ष्म रासायनिक परिवर्तनों के रूप में स्टोर करता है. ये रासायनिक परिवर्तन दिमाग की कोशिका न्यूरॉन्स (neurons ) के बीच बनने वाले जुड़ावों पर होते हैं.
हमारे दिमाग में लगभग 1 खरब (100 अरब) न्यूरॉन्स होते हैं. इनमें से हर न्यूरॉन लगभग 10,000 अन्य न्यूरॉन्स से जुड़ा होता है. एक अनुमान के मुताबिक हमारे दिमाग में ऐसे लगभग 100 ट्रिलियन (1 ट्रिलियन = 1000 अरब) जुड़ाव होते हैं. इन जुड़ावों को सिनेप्स (synapse) कहते हैं.
कोई सूचना जब इन न्यूरॉन्स के सर्किट और नेटवर्क से होकर बहती है तो न्यूरॉन्स में होने वाली गतिविधि सिनेप्स पॉइंट्स को प्रतिक्रिया में मजबूत या कमजोर होने का संकेत भेजती है. सिनेप्स के मजबूत या कमजोर होने की कार्रवाई (synaptic plasticity) से दिमाग सूचना को स्टोर करता है. वास्तव में यह प्रक्रिया इतनी जटिल है कि इसे आसानी से नहीं समझा जा सकता. इस मैकेनिज़्म को “long-term potentiation”या “LTP” कहते हैं.
यहां से चीजें और अधिक जटिल होती जाती हैं. हमारे दिमाग में एक भाग होता है जिसे हिप्पोकैंपस (hippocampus) कहते हैं. यह दिमाग का वह भाग है जो मेमोरीज़ को अलग-अलग तरह से हैंडल करता है. एक तरह की मेमोरी तो वे होती हैं जिनका संबंध हमसे होता है. इन्हें ऑटोबायोग्राफ़िकल मेमोरीज़ कहते हैं. दूसरे तरह की मेमोरीज़ अन्य व्यक्तियों, स्थानों और घटनाओं से संबंधित होती हैं. उन्हें एपीसोडिक मेमोरीज़ कहते हैं. लेकिन कुछ वैज्ञानिकों का यह मानना है कि मेमोरीज़ हिप्पोकेंपस में अस्थाई रूप से रहती हैं और बाद में उनकी दोबारा कोडिंग होती है और वे दिमाग के अन्य भागों में वितरित कर दी जाती हैं. इस प्रक्रिया को स्मृति एकत्रीकरण (memory consolidation) कहते हैं और यह तब होती है जब हम सो रहे होते हैं. यह न्यूरोसाइंस (neuroscience) का सबसे बड़ा रहस्य है और अनेक दशकों से इसकी खोज की जा रही है कि अरबों-खरबों सिनेप्स में दीर्घकालीन स्मृतियां किस प्रकार से बसी होती हैं और किस प्रकार से ये पृष्ठभूमि से निकलकर बाहर आ जाती हैं.
तथ्यात्मक ज्ञान और व्यावहारिक कौशलों से जुड़ी मेमोरीज़ अलग-अलग तरह से स्टोर होती हैं. यही कारण है कि हम साइकिल चलाना, ड्राइविंग, और तैरना जैसे कौशल कभी नहीं भूलते लेकिन गणित के सूत्र और शब्दों की स्पेलिंग भूल जाते हैं.
लघुकालीन मेमोरीज़ (Short-term memory) भी दूसरी तरह से काम करती हैं. आप किसी फोन नंबर को कुछ पलों के लिए याद कर लेते हैं लेकिन उतनी ही तेजी से भूल भी जाते हैं. अनुभवों का दोहराव होते रहने से (जैसे किसी फोन नंबर को बार-बार इस्तेमाल करना) शॉर्ट-टर्म मेमोरी लॉंग-टर्म सिस्टम में चली जाती है.
मनुष्य की मेमोरी विज्ञान के कुछ अनसुलझे रहस्यों में से एक है. न्यूरोसाइंस के एक उपशास्त्र में केवल इससे जुड़ी बातों का ही अध्ययन किया जाता है. फिर भी यह इतनी जटिल है कि हम इसके बारे में बहुत कम जानते हैं. यह बहुत बड़ा प्रश्न है कि दिमाग के न्यूरॉन्स किस प्रकार से मेमोरीज़ को कोड करते हैं. इसके बारे में बताने वाले जो मॉडल हम इस्तेमाल करते हैं वे अपर्याप्त हैं.
अब हम दूसरे प्रश्न पर विचार करेंगे कि क्या मेमोरीज़ को कम्प्यूटर या किसी डिजिटल सिस्टम पर ट्रांसफ़र किया जा सकता है.
वर्तमान में तो यह संभव नहीं है और भविष्य में भी इसके हो सकने की संभावना दूर-दूर तक नहीं है.
हम दिमाग में होनेवाली बायोकेमिकल गतिविधियों के बारे में अच्छे से जानते हैं जो हमें यह बताती हैं कि दिमाग मेमोरीज़ को किस प्रकार से प्रस्तुत करता है लेकिन हम इसकी कोडिंग और प्रस्तुतीकरण की पद्धतियों के बारे में नहीं जानते. इसका अर्थ यह है कि हमें इसका ज्ञान नहीं है कि मेमोरीज़ को उनके न्यूरल नेटवर्क से किस प्रकार से डिकोड किया जा सकता है.
लेकिन यह हमारी बड़ी समस्या नहीं है.
सबसे बड़ी समस्या यह है कि मेमोरीज़ के बारे में हम जितना भी जानते हैं उससे यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य का दिमाग मेमोरीज़ को कंप्यूटर की भांति किसी मेमोरी मॉड्यूल में स्टोर करके नहीं रखता. कंप्यूटरों में लॉंग-टर्म स्टोरेज अलग-अलग पार्ट्स जैसे RAM, हार्ड-डिस्क, फ्लैश ड्राइव, और डेटा क्लाउड में स्टोर रहती है. लेकिन दिमाग में मेमोरीज़ उसी न्यूरल नेटवर्क में फैली रहती हैं जो उन्हें प्रोसेस करता है. इसके परिणामस्वरूप मेमोरीज़ को उस सिस्टम से निकालकर कहीं और ट्रांसफर नहीं किया जा सकता जो उन्हें स्टोर, डिकोड और प्रोसेस करने का काम एक साथ ही करता है.
साफ़-साफ़ कहें तो किसी दिमाग में स्टोर मेमोरीज़ को पढ़ सकने के लिए हमें उस पूरे दिमाग को शरीर से बाहर सिम्युलेट करना पड़ेगा जो फिलहाल असंभव है. (featured image, Neurons)