इनमें से कोई भी नहीं. और दोनों. इसमें दरअसल एक बहुत रोचक विरोधाभास है.
यदि आप विकासवाद के आधार पर चिंतन करेंगे तो पाएंगे कि वास्तव में न तो मुर्गी जैसा कोई जीव है और न ही अंडे जैसी कोई वस्तु.
आप कन्फ़्यूज़ हो रहे होंगे. मैं समझाने की कोशिश करता हूं.
मुर्गियां और अन्य कोई भी जीव स्थाई प्रकृति के जीव नहीं हैं. वे हर क्षण विकसित हो रहे हैं. उनमें हर क्षण परिवर्तन हो रहे हैं.
इसी प्रकार उनके अंडे और अंडों के भीतर स्थित पदार्थ भी हर समय विकसित हो रहे हैं.
करोड़ों वर्ष पहले पृथ्वी पर डायनोसॉर की एक प्रजाति रहती थी. वह कुछ-कुछ मुर्गी जैसी दिखती थी. लेकिन उसकी “चोंच” में दांत थे और “पंखों” में नाखूनी पंजे थे. उसका आकार भी दूसरे डायनोसॉरों जितना नहीं था. यदि हम उसे रात में देखते तो शायद मुर्गी ही समझ लेते.
समय के साथ-साथ इस जीव में परिवर्तन आते गए. इसके दांत विलुप्त हो गए और पंखों के सिरहाने पर नाखूनी पंजे जैसे अवयव भी विलुप्त हो गए. इसमें कुछ दूरी तक उड़ने की क्षमता थी पर वह भी विलुप्त हो गई.
लेकिन किस बिंदु पर आकर वह जीव मुर्गी बन गया? एक तरह से सोचें तो वह आज भी मुर्गी नहीं है. मुर्गी जैसा कुछ भी नहीं है.
किराने की दुकान से आपने जो अंडे खरीदे हैं वे उसी नन्हे डायनोसॉर के हैं जो अभी भी विकास की प्रक्रिया में है और कोई नहीं बता सकता कि वह अंततः क्या बनेगा. यह अपनी तरह का पहला जीव है और आखिरी भी. न तो यह मुर्गी है और न ही इसके बच्चे मुर्गी बनेंगे.
ये निरंतर विकसित होते जा रहे जंतुओं के स्पेक्ट्रम का एक भाग हैे जिन्हें हम मनुष्य अपनी सुविधा के लिए “मुर्गी” कहने लगे हैं लेकिन वास्तव में वे केवल किसी प्रजाति के डायनोसॉर ही नहीं बल्कि किसी जल-स्थलचर (amphibian) प्राणी या किसी एककोशीय प्राणी का ही अतिउन्नत रूप हैं.
इस तरह न तो कोई पहली मुर्गी थी और न ही कोई पहला अंडा था. हम करोड़ों वर्षों की विकासवाद की श्रंखला में किसी बिंदु पर एक लकीर खींचकर उसे मनमाने तरीके से बांट देते हैं और इसपर विचार करने लगते हैं कि पहले मुर्गी आई या अंडा.
इस तरह हम बहुत रैंडम निर्णय पर पहुचते हैं. जिस मुर्गी या अंडे को आप खाने जा रहे हैं वह केवल एक जीव है. उसे नहीं पता कि आपने उसके अस्तित्व को एक लकीर खींचकर परिभाषित कर दिया. इस लकीर के दूसरी ओर के जीव इस “मुर्गी” से कोई कमतर जीव नहीं थे. यदि आप उन्हें देख पाते तो यही कहते कि, “यह एक मुर्गी है”.
जीव विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे विरोधाभास बहुत सामान्य हैं. जीवन के दूसरे क्षेत्रों मे भी हम उनके दूसरे रूप देखते हैं. रूढ़िवादी या उदारवादी में कौन बेहतर है? हत्या और बलात्कार में से क्या अधिक बुरा है? इस प्रश्नों के उत्तर हां या न में देना सरल नहीं है. जीवन से जुड़ी बहुत सी बातों को केवल “हां” या “ना” और “अच्छा” या “बुरा” बता पाना संभव नहीं है. अपने चिंतन का विस्तार करके आप मनन करेंगे तो पाएंगे कि जीवन अस्तित्व का स्पेक्ट्रम ही है. (featured image)