बहुत खोजबीन से पता चला है कि 1920 के आसपास अफ्रीका में कांगो नदी के मुहाने पर किसी शिकारी ने एक चिंपांजी का शिकार किया. चिंपांजी के शरीर को चीरने-फ़ाड़ने के दौरान शिकारी की बांहें पूरी तरह से खून से सन गईं. शिकारी की उंगलियों में घाव थे और कोहनियां छिली हुई थीं और चिंपांजी के खून का वायरस उसके घाव से होकर उसके शरीर में चला गया.
इसके बाद एक-के-बाद-एक दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं घटती रहीं जिन्होंने स्थिति को 1990 तक अति गंभीर बना दिया.
उस चिंपांजी के भीतर एक अलग तरह का वायरस था जिसे SIV कहते हैं. लेकिन वह चिंपांजी और दूसरे चिंपांजी एक दूसरी तरह के बंदर मंगाबे (mangabey) का शिकार करके उन्हें खा जाते थे. इस प्रक्रिया में चिंपांजी के भीतर मौजूद SIV मंगाबे बंदरों के भीतर मौजूद एक अन्य खतरनाक वायरस से जुड़कर नई स्पीशीज बनाता गया. इस तरह ये अधिक शक्तिशाली, अधिक प्राणघातक और आसानी से फैलनेवाला बनता गया.
मनुष्य के भीतर SIV वायरस के कण वायरॉन (virions) रक्त वाहिनियों में फैलते गए. इन वायरस कणों के फैलने की एक विशेष प्रक्रिया होती है. ये रक्त की CD4 श्वेत रक्त कणिकाओं (white blood cells) से चिपकते गए और उनमें और अधिक वायरस उत्पन्न करने की फैक्ट्रियां बनती गईं.
इस प्रक्रिया में बहुत से वायरस नष्ट भी होते गए क्योंकि मानव शरीर की कोशिकाएं उनके प्रजनन के लिए पूरी तरह से उपयुक्त नहीं थीं. ये वायरस रक्त की अधिकांश कोशिकाओं को नुकसान नहीं पहुंचा सके.
लेकिन कुछ वायरॉन वायरस कण बहुत सूक्ष्म और सक्षम थे. उन्होंने बहुत जल्दी ही स्वयं को CD4 कोशिकाओं पर पूरी तरह से कब्जा करने के लिए खुद को ढाल लिया.
इस तरह जो नए वायरस बने वे और अधिक शक्तिशाली हो चुके थे. वे शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं को आसानी से हरा सकते थे. HIV-1 वायरस का जन्म हो चुका था.
वह शिकारी चिंपांजी का मांस लेकर अपने गांव लौटा. सभी ने उस मांस को पकाकर खाया. बाद में शिकारी ने अपनी पत्नी से संसर्ग (sex) किया.
कुछ समय के भीतर उसकी पत्नी के खून में भी HIV पलने-बढ़ने लगा.
इस तरह यह वायरस एक-से-दूसरे में फैलता गया.
(featured image) 3D-printed model of the HIV capsid, the protein shell that encloses the virus’ genetic material.