यह बात इतनी बेतुकी और बेबुनियाद है फिर भी आश्चर्य होता है कि भारत में लाखों-करोड़ों लोग ऐसी बातों में यकीन करने लगे हैं.
कोई भी प्राइवेट अस्पताल या डॉक्टर किसी मृत व्यक्ति को आई.सी.यू. में वेंटिलेटर पर कई दिन तो दूर कुछ घंटों के लिए भी नहीं रख सकते. कुछ घंटों में ही आई.सी.यू. बुरी तरह से गंधाने लगेगा और एक-दो दिन में तो शव के सड़ने की प्रक्रिया गति पकड़ लेगी. यहां मृत्यु से मेरा तात्पर्य हृदय की गतिविधि का पूरी तरह से बंद हो जाना, अर्थात हृदय का पूरी तरह से काम करना बंद करने से है.
मृत्यु होने के कुछ घंटों के भीतर शरीर पत्थर की तरह कठोर हो जाता है. इसे मेडिकल भाषा में रिगर मोर्टिस (rigor mortis) कहते हैं. रिगर मोर्टिस के आने के बाद हाथ-पैर और शरीर के बाकी जोड़ बिल्कुल जाम हो जाते हैं, उन्हें मोड़ना संभव नहीं होता. शरीर तेजी से रंग बदलने लगता है. यह अपनी स्वाभाविक रंगत खोकर समय व तापमान के अनुसार नीला या हरा या काला कुछ भी हो सकता है. मृत्यु होने के कुछ समय के भीतर ही शरीर अपनी गर्माहट खोने लगता है. आई.सी.यू. के ठंडे वातावरण में मृत शरीर कुछ समय में ही पूरी तरह से ठंडा हो जाएगा. 48 घंटों के बाद मृत शरीर फूलने और पिलपिलाने लगता है.
तमिल और हिंदी में गब्बर जैसी फिल्मों ने इस भ्रांत धारणा को हवा दी है. बहुत पढ़े-लिखे लोग भी ऐसे झूठ में विश्वास करने लगते हैं. वेंटिलेटर एक बहुत ही जीवनोपयोगी और जीवनरक्षक यंत्र है लेकिन यह बहुत बदनाम हो गया है और जब भी किसी को वेंटिलेटर पर रखा जाता है तो लोग यह मान लेते हैं कि वह व्यक्ति लगभग मर ही गया है.
ब्रेन-डेथ का मामला इससे बुल्कुल अलग है. ब्रेन-डेथ के मामले में व्यक्ति का हृदय काम कर रहा होता है लेकिन ब्रेन की रिकवरी की संभावना ना के बराबर होती है. ब्रेन-डेड व्यक्ति को वेंटीलेटर पर लंबे समय तक जीवित नहीं रखा जा सकता. ब्रेन-डेथ का डायगनोसिस करना बहुत कठिन है और इससे संबंधित कानून बहुत कठोर हैं. बहुत से परिवार ब्रेन-डेथ की अवधारणा को ठीक से नहीं समझ पाते और यह मानने लगते हैं कि उनका परिजन जीवित है क्योंकि उनके मरीज का हृदय काम कर रहा होता है. इस स्थिति में यदि डॉक्टर मरीज को वेंटीलेटर से हटा दें तो उनपर ब्रेन-डेड मरीज को मार डालने का आरोप भी लग सकता है.
यह मसला बहुत जटिल है लेकिन सबके लिए यह समझ लेना पर्याप्त है कि पैसे कमाने के लिए किसी मृत मरीज को वेंटीलेटर पर भर्ती दिखाना संभव नहीं है.
क्वोरा पर कैंसर विशेषज्ञ डॉ. वेंकटरमण राधाकृष्णन के एक उत्तर पर आधारित. (featured image)