यहां “गलती” थोड़ा कठोर शब्द हो गया है. हम न्यूटन को उन बातों के लिए गलत नहीं ठहरा सकते जिनका उनके कालखंड में किसी को भी ज्ञान नहीं था. उदाहरण के लिए, “गुरुत्व का सिद्धांत” न्यूटन और आइंस्टीन, दोनों की भौतिकी में उपस्थित है लेकिन इनमें अंतर यह है कि न्यूटन के युग में किसी को भी विद्युत-चुंबकीय क्षेत्र और प्रकाश की गति के महत्व की जानकारी नहीं थी. यदि मैक्सवेल ने अपने समीकरण न्यूटन के युग में प्रतिपादित किए होते तो हो सकता है कि न्यूटन उनके आधार पर अपना विशिष्ट सापेक्षता का सिद्धांत दे पाते. लेकिन क्या वह सामान्य सापेक्षता का सिद्धांत भी दे पाते? उसके लिए उन्हें अवकलन ज्यामिति (differential geometry) की आवश्यकता होती जिसका विकास उनकी मृत्यु के कई-कई दशकों बाद हुआ.
न्यूटन ने गुरुत्व के नियम लगभग 300 वर्ष पहले प्रतिपादित किए. इन नियमों में दिए गए प्रसिद्ध समीकरण से हमें गुरुत्व बल की गणना करने में सहायता मिलती है. इस मान का उपयोग करके हम कुछ बहुत महत्वपूर्ण चीजें जैसे अंतरिक्ष में छोड़े जानेवाले राकेट के पथ और उसकी गति को निर्धारित कर सकते हैं. कृत्रिम उपग्रहों को उनकी कक्षाओं में स्थापित करने में भी इस मान का उपयोग किया जाता है.
न्यूटन ने हालांकि गुरुत्व बल के संबंध में हमें बहुत महत्वपूर्ण बातें बताईं लेकिन वे एक बहुत ज़रूरी प्रश्न का उत्तर नहीं दे सके कि – “गुरुत्व कैसे कार्य करता है?”. न्यूटन के बाद भी कई पीढ़ियों तक वैज्ञानिक इस समस्या का समाधान नहीं कर सके.
20वीं शताब्दी के प्रारंभ में स्विस पेटेंट ऑफ़िस में काम करनेवाले एक क्लर्क ने प्रकाश के गुणधर्म पर रिसर्च की और एक पेपर पब्लिश किया जिसका शीर्षक था “विशिष्ट सापेक्षता का सिद्धांत”. उस क्लर्क का नाम अल्बर्ट आइंस्टीन था. उस पेपर में यह बताया गया था कि प्रकाश की वेग नियत था और कोई भी वस्तु इससे अधिक वेग से गति नहीं कर सकती थी. आइंस्टीन का यह सिद्धांत न्यूटन के गुरुत्व के सिद्धांत से कई मामलों में अलग था. लेकिन कैसे?
इसे एक उदाहरण से समझते हैं. सौरमंडल के सारे ग्रह सूर्य के गुरुत्व के कारण उसकी परिक्रमा करते हैं. मान लें कि सूर्य अचानक गायब हो जाता है. अब क्या होगा?
न्यूटन के सिद्धांत के अनुसार सूर्य के गायब होते ही पृथ्वी अपने परिक्रमा पथ से छूटकर एक सीधी रेखा में अंतरिक्ष में गति करने लगेगी. न्यूटन के सिद्धांत के अनुसार दो पिंड के बीच की दूरी कितनी भी हो लेकिन गुरुत्व पर पड़नेवाला प्रभाव तत्काल होगा.
दूसरी ओर, आइंस्टीन के सिद्धांत के अनुसारः सूर्य और पृथ्वी के मध्य की दूरी 15 करोड़ किलोमीटर है और प्रकाश को सूर्य से पृथ्वी तक आने में लगभग 8 मिनट और 30 सेकंड लगते हैं, इसलिए सापेक्षता के सिद्धांत के अनुसार चूंकि कोई वस्तु प्रकाश की गति का अतिक्रमण नहीं कर सकती अतः गुरुत्वीय तरंगें भी प्रकाश की गति से तेज नहीं चल सकतीं. सूर्य के लुप्त हो जाने के बाद भी पृथ्वी पर प्रकाश 8 मिनट और 30 सेकंड तक रहेगा और पृथ्वी 8 मिनट और 30 सेकंड तक अपने परिक्रमा पथ पर घूमती रहेगी, और इसके बाद ही पृथ्वी परिक्रमा पथ से बाहर जाएगी.
न्यूटन ने समय को भौतिकी के एक अवयव के रूप में कभी महत्व नहीं दिया. आज हम यह मानते हैं कि काल दिक् के साथ मिलकर उस मंच का निर्माण करता है जिसपर भौतिकी अपना कार्य करती है. जब हम भौतिकी का कोई समीकरण हल करते हैं तब हमारे उत्तर में दिक् और काल की छाया होती है. आइंस्टीन ने यह दिखाया कि दिक् और काल भौतिकी को अनेक प्रकार से प्रभावित करते हैं.
अपने सिद्धांतों में आइंस्टीन ने दो बड़ी गलतियां की जिन्हें हम अब समझ सकते हैं. उन्होंने सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत में एक “ब्रह्माण्डीय नियतांक (cosmological constant)” का समावेश किया जिसने हमारे ब्रह्मांड को स्थिर बताया, जो न फैल रहा है और न ही सिकुड़ रहा है. जब एडविन हबल ने ब्रह्मांड के प्रसारित होने की खोज की तब आइंस्टीन को अपनी गलती का पता चला और उन्होंने कहा कि उस नियतांक को शामिल करना उनके जीवन की सबसे बड़ी त्रुटि थी. यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया होता तो वे ब्रह्मांड को सदैव परिवर्तित होता हुआ दर्शा सकते थे.
उन्होंने दूसरी गलती यह की कि अपने सिद्धांत में से ब्रह्माण्डीय नियतांक को निकाल दिया. यदि वे ब्रह्माण्डीय नियतांक को बने रहने देते तो गुप्त ऊर्जा या डार्क एनर्जी (dark energy) के अस्तित्व की भविष्यवाणी कर सकते थे! वास्तव में डार्क एनर्जी ब्रह्माण्डीय नियतांक का ही दूसरा नाम है और सामान्य सापेक्षता में ये दोनों गणितीय रूप से एक समान हैं. इस प्रकार उनकी दो गलतियां ये थींः (1) इसे शामिल करना, और बाद में (2) इसे निकाल देना. (image credit)
यह सच है कि कैसे का उत्तर देना हमें सर आइजक न्यूटन ने ही सिखाया है। भले ही वे गुरुत्व के कार्य करने को नहीं समझा पाए हों।
ये तो आपने जबरदस्त बात कही भैया, “हम न्यूटन को उन बातों के लिए गलत नहीं ठहरा सकते जिनका उनके कालखंड में किसी को भी ज्ञान नहीं था”
क्योंकि विज्ञान की एक अभिधारणा के अनुसार “सभी पुराने सिद्धांत विषय संबंधी नए सिद्धांत के उपसिद्धांत कहलाते हैं।” अर्थात सिद्धांतों में संशोधन और विस्तार करना संभव है।
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