100 वर्ष पहले तक विद्युत इंडस्ट्री में इन्सुलेटर के तौर पर लाख (इसे कहीं-कहीं चपड़ा भी कहते हैं) का प्रयोग किया जाता था जो कि कीड़ों से प्राप्त होता है. लाख के लगभग 15,000 मादा कीड़े 6 महीने में 1 पौंड लाख (shellac) बनाते हैं. इस बात से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इन्सुलेटर के रूप में लाख का उपयोग कितना अव्यावहारिक और महंगा था. इस समस्या के समाधान के रूप में एक वैज्ञानिक ने उस पदार्थ का आविष्कार किया जिसने बिजली के तारों और स्विचों में इन्सुलेशन करने के अतिरिक्त 20वीं शताब्दी को अनेक प्रकार से अत्यधिक लाभान्वित किया.
उस आविष्कार का नाम है बेकेलाइट (Bakelite) जिसकी खोज वैज्ञानिक लियो हेंड्रिक बेकेलेंड (Leo Hendrik Baekeland) ने 1907 में की थी. बेकेलाइट वह पहला थर्मोसेटिंग प्लास्टिक था जिसे फ़ीनोल (phenol) और फ़ॉर्मेल्डिहाइड (formaldehyde) को मिलाकर बनाया गया था. फ़ीनोल हमें पेट्रोलियम के सह-उत्पाद के रूप में मिलता है. प्रारंभ में बेकेलाइट को अनुपयोगी पदार्थ माना गया लेकिन इसकी विशेषताओं का पता चलते ही यह हमारे दिन-प्रतिदिन के इतने पक्षों में प्रवेश कर गया कि इसके बिना जीवन कठिन लगने लगा. बेकेलाइट का उपयोग प्रारंभ में आभूषण, खिलौने, इंजन के पार्ट्स, रेडियो बॉक्स, रिकॉर्ड्स, और स्विच वगैरह बनाने में किया गया. यह टूथब्रश में महंगी चांदी और सिगार में हाथी दांत की जगह प्रयोग में आने लगा. 1920 के दशक में अमेरिका में रेडियो सेट विलासिता की वस्तु था. बेकेलाइट ने रेडियो सेट में लकड़ी या धातु की जगह ले ली. प्रेशर कूकरों के हैंडलों में अभी भी बेकेलाइट का प्रयोग होता है. अनेक वैज्ञानिकों ने बेकेलाइट की सफलता से प्रेरित होकर तरह-तरह के प्रयोग करके नए प्रकार के प्लास्टिक जैसे पॉलीथीन, नाइलोन, पॉलीयूरेथीन (polyethylene, nylon, polyurethanes) बनाए जिनका बहुत बड़ा बाजार खड़ा हो गया.
हालांकि बेकेलेंड को इस खोज के लिए नोबल पुरस्कार नहीं मिला लेकिन उन्हें वह सम्मान मिला जो बहुत कम नोबल विजेताओं को मिलता है. टाइम मैगज़ीन ने 1924 में उन्हें पत्रिका के कवर पर छापा.
बेकेलेंड ने 1893 में वेलॉक्स (Velox) फ़ोटोग्राफ़िक पेपर का भी अविष्कार किया. वेलॉक्स पेपर को कृत्रिम प्रकाश में भी डेवलप किया जा सकता था जबकि अन्य पेपर को डेवलप करने के लिए धूप में रखना पड़ता था. इस अविष्कार ने उन्हें करोड़पति बना दिया और उन्होंने अपने लिए एक निजी लैब बनवाई जहां वे नियंत्रित वातावरण में प्रयोग कर सकते थे. उन्होंने अंडे का आकार का एक विशाल चैंबर बनवाया जिसे बेकेलाइज़र का नाम दिया गया. इस चैंबर में वे नियंत्रित दबाव और तापमान में कई प्रकार के प्रयोग कर सकते थे.
यहां यह जानना भी रोचक होगा कि नोबल पुरस्कार विजेता जर्मन रसायनशास्त्री एडोल्फ़ वॉन बायर (Adolf von Baeyer) ने भी बेकेलाइट जैसे पदार्थ पर 1872 में काम किया था लेकिन उन्होंने इसे महत्वहीन मानकर अपने प्रयोग बीच में ही छोड़ दिए थे.
1944 में बेकेलेंड की मृत्यु के बाद से ही उनकी स्मृति में बेकेलेंड पुरस्कार दिए जा रहे हैं. कई बैकेलेंड पुरस्कार विजेताओं को बाद में नोबल पुरस्कार भी मिले हैं. (image credit and Time)