ऊपर दिए गए चित्र में आप यदि अंटार्कटिका को छोड़ दें तो पृथ्वी की सारी बर्फ का कण-कण पिघल जाने पर नारंगी रंग के घेरे में बंद भूमि को छोड़कर बची हुई बाकी सारी भूमि पानी में समा जाएगी. इस तरह आप देख सकते हैं कि सारी बर्फ पिघल जाने पर हमारे पास बहुत कम भूमि बचेगी. और जो भूमि बचेगी वह ऊंचाई पर स्थित वे भूभाग हैं जहां अभी भी बहुत कम लोग रहते हैं. पानी में बहुत सारी भूमि समा जाने पर हमारी कृषि योग्य लगभग सारी भूमि व्यर्थ हो जाएगी.
इसके परिणामस्वरूप पृथ्वी की जलवायु बहुत प्रतिकूल हो जाएगी. मनुष्य नष्ट नहीं होंगे लेकिन आबादी में विकराल गिरावट दर्ज होगी. इस नक्शे को देखकर मैं यह अनुमान लगा सकता हूं कि हमारी सारी उपजाऊ भूमि नष्ट हो जाने के बाद छिछले समुद्र मे मिलनेवाली मछलियों और वनस्पतियों से मात्र कुछ करोड़ लोगों का ही गुज़ारा हो सकेगा.
पृथ्वी की सारी बर्फ का कतरा-कतरा पिघल जाने पर समुद्र की सतह में अधिकतम 70 मीटर की ही वृद्धि हो सकती है. समुद्र की सतह में इससे अधिक वृद्धि तभी हो सकती है यदि कोई बर्फीला धूमकेतु पृथ्वी से टकरा जाए. कई किलोमीटर व्यास का कोई बर्फीला धूमकेतु यदि पृथ्वी से टकराएगा तो हमारे लिए समुद्र के स्तर में आनेवाले परिवर्तन का कोई महत्व नहीं होगा क्योंकि इतने बड़े धूमकेतु की टक्कर से पृथ्वी पर से पूरे जीवन का ही समापन हो जाएगा. ऐसा होने की संभावना न-के-बराबर है लेकिन यह असंभव नहीं है.
अंतरिक्ष में कई बर्फीले धूमकेतु घूम रहे हैं. कई सौ किलोमीटर व्यास वाला ऐसा कोई धूमकेतु यदि चंद्रमा से चकरा जाए जो वह चंद्रमा को नष्ट कर देगा. इस टक्कर के परिणामस्वरूप मलबे की एक बड़ी डिस्क पृथ्वी की परिक्रमा करने लगेगी. गुरुत्व आदि के कारण इसके अंश पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करने लगेंगे. बर्फ के बड़े टुकड़े वायुमंडल में जलने पर पिघलकर बारिश करेंगे जिससे समुद्र की सतह बढ़ती जाएगी.
धूमकेतु और चंद्रमा की इस टक्कर से या तो चंद्रमा या धूमकेतु की कोर बची रह जाएगी जो पृथ्वी का नया चंद्रमा बन जाएगा. मनुष्य पहाड़ों की चोटियों पर बने शिविरों में, वॉटर वर्ल्ड फिल्म में दिखाए गए बहते हुए नगरों में या बहुत बड़े बांधों के भीतर बने तहखानों में रहेंगे. इस आपदा का सामना करना मनुष्यता के लिए बहुत बड़ी चुनौती होगा. इस स्थिति में भी पृथ्वी पर कुछ लाख मनुष्य ही स्वयं को बचा पाएंगे.
वर्तमान में सागरों का स्तर प्रति वर्ष लगभग 1.8 मिली मीटर बढ़ रहा है. हम अपने जीवनकाल में तो सुरक्षित हैं लेकिन हमारी भावी पीढ़ियों को इस समस्या का सामना कभी-न-कभी करना ही पड़ेगा.