ऊपर इस कार की फोटो देखिए. कार को जंग लग रही है.
जंग लगना एक रासायनिक क्रिया है जो ऑक्सीकरण के कारण होती है. जंग धीरे-धीरे एक निश्चित दर पर लगती रहती है. यह दर अनेक कारकों जैसे तापमान, नमी आदि पर निर्भर करती है. आप इस कार को देखें या नहीं देखें या इसके बारे में सोचें या नहीं सोचें, अब से एक वर्ष बाद यह और अधिक जंग खा चुकी होगी और इसके रंगरूप में होने वाले परिवर्तन का अनुमान भी लगाया जा सकता है.
अब ऊपर वाले फोटो में एक-दूसरे में मर्ज हो रही मंदाकिनियों को देखिए. ये हमसे लगभग 3 अरब प्रकाश वर्ष दूर हैं. हबल के माध्यम से हमें दिखनेवाला इनका प्रकाश पृथ्वी पर हमारे अवतरण से बहुत-बहुत पहले से चल रहा है. यदि समय का अस्तित्व मनुष्यों के बिना संभव नहीं होता तो प्रकाश भी यात्रा नहीं करता क्योंकि कोई भी यात्रा करने में समय लगता ही है.
समय न हो तो कोई फल पेड़ से टूटकर नहीं गिरे. समय न हो तो सूर्य सवेरे न निकले. समय न हो तो वर्षा भी न हो. ये तीन कार्य मनुष्यों के न होने पर भी हो रहे थे और होते रहेंगे. यदि यह सब अतीत में नहीं हुआ होता तो हम अपनी गाड़ियों में पेट्रोल भी नहीं भर पाते.
यदि समय तभी अस्तित्व में आया होता जब किसी मनुष्य ने इसके बारे में पहली बार सोचा तो मनुष्य उससे पहले किसी कालक्रम के नहीं होने पर उस बिंदु तक किस प्रकार विकसित हुए? यदि समय अपनी गति चलता नहीं रहा तो डायनोसौरों का विनाश करनेवाला क्षुद्रग्रह पृथ्वी से कैसे टकराया? यदि समय बीतता नहीं रहा तो पृथ्वी किस तरह इतनी ठंडी हो गई कि उसपर जीवन की उत्पत्ति हो सके?
यदि किसी कार्य को होने में समय लगता हो और वह अपने घटित होने के लिए मनुष्य के मन पर आश्रित न हो तो उसे घटित होने के लिए समय को मनुष्य के मन की परिधि के बाहर होना आवश्यक है.
अंतरिक्ष और समय का आपसी और गहरा संबंध है. ये मनुष्यों के होने के पहले से भी अंतर्संबंधित थे और मनुष्यों के नहीं रहने पर भी अंतर्संबंधित रहेंगे.
(NASA के इंस्ट्रक्टर और मिशन कंट्रोलर रॉबर्ट फ्रॉस्ट के Quora उत्तर पर आधारित) Top image credit
आलेख का शीर्षक एक सार्थक प्रश्न
फल पेड़ से टूटकर न गिरे. तो समय का आभास ही न हो। सूर्य निश्चित समय में उदित न हो तो समय का अभ्यास ही न हो।
अर्थात परिवर्तन न हो तो समय का आभास ही न हो। समय की अपनी कोई गति नही होती है। यह (दर) अन्य भौतिक राशियों के आपसी रूपांतरण के आकलन को प्रदर्शित करती है।
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यदि कोई परिवर्तन न हो तो किसी परिवर्तन के न होने में व्यतीत हो रहे समय का ‘आभास’ तो होगा ही न? अंग्रेजी में हम एक बहुत रोचक बात कहते हैं – no news is good news.
“क्या समय का अस्तित्व केवल मनुष्य के मन में ही है?” – यह मूलतः एक दार्शनिक शैली का प्रश्न है लेकिन यहां इसपर सामान्य वृत्ति से विचार किया गया है.
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समय और समयांतराल दो भिन्न-भिन्न चीजें हैं। समयांतराल को समय मान लेने से समय अनंत मालूम पड़ता है। जो की एक भ्रम है। शब्दों पर गौर कीजियेगा
यदि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति नहीं हुई है। अर्थात ब्रह्माण्ड का न आदि है और न ही अंत है तब किसी भी घटना के पूर्व का समय (अवधि) स्वाभाविक रूप से अनंत होगा। और यदि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई है तब भी ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पूर्व का समयांतराल अनंत होगा। इस तरह से आप देखते हैं कि दोनों ही स्थितियों (ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति या उसके आदि-अनंत होने) में समय अनंत प्रतीत होता है। जबकि एक स्थिति तो समय की उत्पत्ति (शुरुआत) दर्शाती है।
समय वस्तुनिष्ठ है। जबकि रंग व्यक्तिनिष्ठ (व्यक्तिपरक) है।
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ज्ञात तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि समय की उत्पत्ति ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ ही हुई थी और उसका अंत भी इसी प्रकार होगा. आप जिसे समयांतराल कह रहे हैं वह भी समय की फ़ैब्रिक का एक टुकड़ा है जिसका एक परिमाण है. वह फैब्रिक कितनी बड़ी है और उसका ओर-छोर कहां है यह कोई नहीं जानता.
विशद दार्शनिक चर्चा इस ब्लॉग का विषय-क्षेत्र नहीं है.
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