शाहबानो का मामला भारत में इस बात का उदाहरण है कि राजनीतिक व्यवस्था अपने निहित स्वार्थ के लिए किसी नागरिक का किस प्रकार से अहित कर सकती है और उसके प्रति अन्याय भी कर सकती है. यूं तो भारत जैसे विशाल और जटिल देश में ऐसे व्यक्तियों की संख्या लाखों में है जिन्हें न्याय नहीं मिल सका लेकिन शाहबानो का मामला अपने आप में अनूठा और सबसे अधिक प्रसिद्ध है.
शाहबानो का विवाह 1932 में इंदौर के एक सफल वकील मोहम्मद अहमद खान से हुआ था. उनका वैवाहिक जीवन सामान्य था और उनके 5 बच्चे हुए. इस विवाह के 14 वर्ष बाद शाहबानो के पति ने एक और कम उम्र की महिला से विवाह कर लिया. दोनों पत्नियां एक साथ एक ही घर में रहती रहीं. कुछ वर्ष बाद पति ने शाहबानो और उनके 5 बच्चों को घर से निकाल दिया. उस समय शाहबानो की उम्र 62 वर्ष थी और उनके पास कोई आसरा न था. वह विवाहित होते हुए भी बेघर थीं.
शाहबानो के पति संपन्न थे और उन्होंने गुजारे के लिए शाहबानो को प्रतिमाह 200 रुपए देने का वादा किया था लेकिन कुछ समय तक देने के बाद उन्होंने रुपए देना बंद कर दिया.
शाहबानो ने इंदौर की लोकल अदालत में अपने पति के विरुद्ध केस दर्ज कर दिया. इससे बौखलाए हुए पति ने शाहबानो को 1978 में तलाक दे दिया और अपनी सारी जिम्मेदारियों से मुंह फेर लिया. अदालत ने भरण-पोषण के लिए शाहबानो को प्रतिमाह 25 रुपए देने का फैसला सुनाया.
इस फैसले से निराश होकर शाहबानो ने मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालय में अपील की और यह अनुरोध किया कि गुजारे की रकम को प्रतिमाह 25 रुपए से बढ़ाकर 179 रुपए 20 पैसे कर दिया जाए. इसके विरोध में पति ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करके यह कहा कि तलाक के बाद शाहबानो के प्रति उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती.
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस्लामी धार्मिक ग्रंथों में विहित विधि के आलोक में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले को सही ठहराया और 23 अप्रैल 1985 को यह निर्णय दिया कि तलाक के बाद भी पत्नी के प्रति पति की जिम्मेदारी समाप्त नहीं हो जाती. अब शाहबानो 69 वर्ष की हो चली थीं. न्यायालय ने पति को पिछले 7 वर्षों का हर्जाना भरने का आदेश दिया.
इस निर्णय के पक्ष और विपक्ष में व्यापक प्रदर्शन हुए. रूढ़िवादी मुस्लिमों ने इसे अपने धार्मिक कानून या शरीयत में दखल माना. राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार 1984 में अभूतपूर्व बहुमत से आई थी. सरकार में बैठे लोगों को यह लगा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को यदि न बदला गया तो अगले चुनावों में पार्टी को खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा. सरकार ने 1986 में संसद द्वारा एक कानून The Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act 1986 पारित करवा कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को शून्य कर दिया. इस प्रकार शाहबानो को अपने तलाकशुदा पति से किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता मिलने के सारे मार्ग बंद हो गए.
1992 में शाहबानो की मृत्यु हो गई. इस फैसले का भारतीय राजनीति पर दूरगामी प्रभाव पड़ा और इसे कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का शिखर (या गिरावट) कहा जाता है. समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) को लेकर होने वाले विमर्शों में शाहबानो का मामला प्रमुखता से उठता रहता है. (image credit)