हॉलीवुड की फिल्मों ने जनसाधारण के मन में अंतरिक्ष और अंतरिक्ष यात्रा के बारे अनेक भ्रांतियां भर दी हैं, जिनमें से कुछ के बारे में मैं आपको बताने जा रहा हूंः
अंतरिक्ष हमारी कल्पना से भी अधिक विशाल है. बहुत से लोगों को लगता है कि जब हम 1969 में चंद्रमा तक जा सकते हैं तो मंगल तक जाना भी हमारे लिए आसान होना चाहिए. लेकिन यह उतना सरल नहीं है जितना प्रतीत होता है. चंद्रमा तक आने-जाने में केवल एक सप्ताह ही लगे थे और इतने समय के लिए भोजन, कपड़े और टॉयलेट आदि की व्यवस्था की जा सकती है. मंगल ग्रह तक जाना उसकी तुलना में पाल वाले पुराने जहाज में बैठकर पृथ्वी का चक्कर लगाने जैसा काम होगा.
हमारे जीवनकाल में कोई भी सुदूर तारों की यात्रा नहीं कर पाएगा और भविष्य में भी इसके होने की कोई संभावना नहीं दिखती. हमारे पास ऐसी कोई तकनीक नहीं है जो इसे संभव कर दे. कुछ लोग वार्प ड्राइव (Alcubierre drive) नामक फैंटेसी के बारे में सोचते हैं जो भौतिकी के नियमों का उल्लंघन करती है. जो तकनीकें फिलहाल उपलब्ध हैं वे अंतरिक्ष यान को अधिक गति नहीं दे सकतीं. सूर्य से दूर जाने पर हमें स्वनिर्भर ऊर्जा स्रोत की आवश्यकता होगी. फिलहाल हमारे पास ऊर्जा का ऐसा कोई भी स्रोत नहीं है जो दीर्घ काल तक यान को चलायमान रख सके.
वान एलेन रेडिएशन बेलट्स कोई ठोस वस्तु नहीं हैं और न ही वे मनुष्य को पलक झपकते खत्म कर देंगी. हम उनके रेडिएशन से बचने के लिए सुरक्षित मार्ग चुन सकते हैं ताकि एक्सपोज़र कम-से-कम हो, लेकिन हमें उनमें से बहुत तेजी से निकलना होगा.
पृथ्वी की निचली कक्षाओं में रहने और गहन अंतरिक्ष में रहने में जमीन-आसमान का अंतर है. पहले में हमें रेडिएशन से बचाव के लिए बहुत कठोर उपाय नहीं करने पड़ते क्योंकि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र हमारी रक्षा करता है. गहन अंतरिक्ष में केवल एक सोलर फ्लेयर हमें भून सकती है. उनसे सैद्धांतिक रूप से बचा जा सकता है लेकिन इसे कभी जांचा-परखा नहीं गया है.
गुरुत्वहीनता हमारे लिए खतरनाक है. इसके दुष्परिणामों से बचने के लिए पृथ्वी पर आना ज़रूरी हो जाता है. यह केवल हमारी हड्डियों को ही नुकसान नहीं पहुंचाती. शरीर से कैल्शियम के निकलने से किडनी में स्टोन हो जाते हैं. यह हमारी दृष्टि पर बुरा प्रभाव डालती है. यह मेटाबोलिज़्म को बिगाड देती है. अंतरिक्ष में रोज़ाना दो से तीन घंटे एक्सरसाइज़ करने पर भी मांसपेशियों में एट्रोफ़ी हो जाती है.
1G का गुरुत्व उत्पन्न करने के लिए हमें बहुत अधिक अपकेंद्रण करना पड़ता है. यदि यह पर्याप्त तेज न हो तो चक्कर आने लगते हैं. फिल्मों में दिखनेवाले सेंट्रिफ्यूगल स्पेस मॉड्यूल सिस्टम बहुत बड़े और सुविधाजनक होते हैं जिन्हें बनाना, रॉकेटों से ऊपर ले जाकर स्थापित करना, और चलाना बहुत कठिन काम है.
बहुत से लोगों को लगता है कि हवाई जहाज में बैठकर ऊपर-और-ऊपर उड़ते-उड़ते हम अंतरिक्ष तक पहुंच सकते हैं. किसी भी पंखों वाले यान को उठान के लिए वातावरण तथा हवा चाहिए और जेट इंजनों को भी प्रणोदन उत्पन्न करने के लिए हवा की ज़रूरत होती है. उसी प्रकार स्पेस शटल को चंद्रमा की यात्रा के लिए डिज़ाइन नहीं किया गया था. ये न तो कभी चंद्रमा तक गया है और न ही जा सकता है.
किसी भी तरह की बंदूक, तोप या गुलेल की सहायता से कोई अंतरिक्ष में नहीं पहुंच सकता. ऊपर जाने के लिए हमें सतत त्वरण चाहिए जिसके लिए स्पेशल इंजन और ईंधन को साथ ले जाना पड़़ता है. पृथ्वी के गुरुत्व से बाहर निकलने के लिए लगभग 8 किलोमीटर प्रति सेकंड की एस्केप वेलोसिटी की आवश्यकता होती है. यदि कोई बंदूक या तोप इस गति को प्राप्त कर सके तो उसकी नली से निकलनेवाली वस्तु फॉयर होते ही नष्ट हो जाएगी.
स्पेस सूट्स बिल्कुल भी आरामदायक नहीं होते. उन्हें पहनकर काम करना बहुत कठिन होता है. उन्हें पहनने या उतारने के लिए भी किसी दूसरे व्यक्ति की मदद लेनी पड़ती है.
कोई कुछ भी कहे लेकिन प्रकाश की गति को प्राप्त करना असंभव है. यह इतनी अधिक है कि हम इसके दसवें भाग को भी नहीं प्राप्त कर सकते. यदि हम प्रकाश की गति से चलने में सक्षम हो भी गए तो हमारा यान पलक झपकते ही धूल-धूल होकर बिख जाएगा. (image credit)
हैलो सर्! जैसे कि आप ने ऊपर लिखा है कि….चांद पर एक बार 1969 में गये थे। तो उस के बाद क्यो नही गये….. जबकि उस समय की टेक्नोलॉजी के मुकाबले अब बहुत सुधार हुए है।
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