कन्फ्यूशियस अपने शिष्यों के साथ लंबी यात्रा पर था. मार्ग में उसने किसी गाँव में रहनेवाले एक बुद्धिमान बालक के बारे में सुना. कन्फ्यूशियस उस बालक से मिला और उससे पूछा:
“विश्व में मनुष्यों के बीच बहुत असमानताएं और भेदभाव हैं. इन्हें हम किस प्रकार दूर कर सकते हैं?”
“लेकिन ऐसा करने की आवश्यकता ही क्या है?”, बालक ने कहा, “यदि हम पर्वतों को तोड़कर समतल कर दें तो पक्षी कहाँ रहेंगे? यदि हम नदियों और सागर को पाट दें तो मछलियाँ कैसे जीवित रहेंगीं? विश्व इतना विशाल और विस्तृत है कि इन असमानताओं और विसंगतियों का उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता.”
कन्फ्यूशियस के शिष्य बालक की बात सुनकर बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने बालक की भूरि-भूरि प्रशंसा की. लेकिन कन्फ्यूशियस ने कहा:
“मैंने ऐसे बहुत से बच्चे देखे हैं जो अपनी अवस्था के अनुसार खेलकूद करने और बालसुलभ गतिविधियों में मन लगाने की बजाय दुनिया को समझने की कोशिश में लगे रहते हैं. और मैंने यह पाया कि उनमें से एक भी प्रतिभावान बच्चे ने आगे जाकर अपने जीवन में कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं किया क्योंकि उन्होंने अपने बचपन की सरलता और सहज अनुत्तरदायित्व का कोई अनुभव नहीं किया.
ज्ञान का हाथी, सहज का दुशाला.
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Aapke chuteele comments bhi mazedar hain.
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भारत के सभी टापरों के चाहे वे आई आई टी के हों, मेडिकल के हों, मैट्रिक के हों, इंटर के हों, बाद के जीवन को देखें तो सचमुच यही लगता है। बिहार में इस तरह के छात्रों की संख्या 10-20000 से कम नहीं होगी पिछले पचास सालों में लेकिन कुछ करनेवाले 200 भी नहीं होंगे। अब तो बच्चे से उसका बचपन ही छिन गया है। दस किलो के बच्चे के पीठ पर बीस किलो का बोझा लाद कर भेज दिया जाता है।
कनफ्यूशियस भी अब कन्फ़्यूज कर जाते अगर होते।
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shayad sahi hai .
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अब तो बचपन भी असमय ही जवान हो जाता है..शानदार पोस्ट..बधाई.
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शब्द-शिखर / विश्व जनसंख्या दिवस : बेटियों की टूटती ‘आस्था’
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So true these days children are becoming adults in a very young age..
the innocence and pureness is loosing somewhere.
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इस प्रेरक प्रसंग को पढवाने का शुक्रिया।
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TOP HINDI BLOGS !
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सहजता कभी कभी बड़े बड़े उपक्रमों की आवश्यकता समाप्त कर देती है।
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हस्ती चढिये ज्ञान की सहज दरीचा डारि,स्वान रूप संसार है,भूकन दे झख मारि !–कबीर
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Very true and touching.It forces you to think about children who have no
Bachpan.
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असमानता सहज है, आखिर उसे दूर करनें की आवश्यकता ही क्या है?
समय से पहले की विद्ध्वता, सहजता का असमय अवसान होती है।
निशांत जी, बोध-दायक प्रस्तुति!!
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बचपन कहीं नहीं गया वो तो आज भी वही है,शायद बड़ों का ही नज़रिया बदल गया लगता है।
गाँव से लेकर शहर तक बच्चे वही हैं और बचपना भी वही। कन्फ्यूशियस ने ऐसे बहुत सारे बच्चे देखे,किन्तु सारे नहीं।
समानतायें-असमानतायें बच्चों में हैं अवश्य किन्तु वो तो प्रकृति है…
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कन्फ्युसियस ने जरुर यह बात किसी और सन्दर्भ में कही होगी वरना समाज में फैली असमानता से अर्दों मासूम बच्चे भूख से मर जाते हैं, इलाज के आभाव में मर जाते हैं. जीवन की बुनियादी सुविधाओं के अभाव में उनका समूचा बचपन नारकीय स्थिति में गुजरता है. ऐसे में निर्जीव भू-आकृतियों और हाड़-मांस के मनुष्यों के बिच फैली असमानता में फरक करने की जरुरत है.
विषय से इतर, आपके ब्लॉग की रूपरेखा की तारीफ किये बगैर रहा नही जा रहा है 🙂
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कृपया पढ़ें…’सहज दुलीचा डारि’
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काफी तर्क संगत है प्रसंग.व्यावहारिकता में भी देखा जाये तो जो बच्चे बचपन में ज्यादा ही समझदार लगते हैं बड़े होकर कुछ खास नहीं कर पाते.
परन्तु ये सामाजिक असमानता कुछ ज्यादा ही है और प्राकृतिक असामनता से इतर भी.
आज कन्फ्यूशियस होते तो शायद कुछ अलग तरह से प्रश्न करते या वह बालक शायद कुछ अलग जबाब देता .
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bachche ne badi baat keh di.
maine Confucius ke Quotes ka sangrah kia hai…shyad aapko achca lage:
http://achchikhabar.blogspot.com/2011/07/confucius-quotes-in-hindi.html
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वाह….
प्रेरनामयी कथा…
बहुत बहुत आभार पढवाने के लिए..
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बहुत बढ़िया…. सहजता से जितना सीखा जाता है, शायद प्रयास से उतना नहीं। फिर विशिष्ट होने के पागलपन में जो अपनी सामान्यता खो देता है, उसे आखिर में कुछ भी हाथ नहीं आता और वो खुद को ठगा हुआ महसूस करता है। प्रवाह में सीखे तो जीवन ज्यादा गहरे उतरता है… ऐसा अनुभव है, कहीं पढ़ा तो नहीं है … 🙂
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आज के सन्दर्भ में ऐसे बच्चे इसलिए बड़े होकर कुछ नहीं कर पाते क्योंकि स्कूल और अध्यापक मिलकर उनकी प्रतिभा को समाप्त कर देते हैं. स्कूल ऐसे बच्चों के लिए नहीं बने हैं. वे उन्हें रगड़ रगड़ कर जब तक अपने जैसा या अन्य बच्चों जैसा नहीं बना देते उन्हें शांति नहीं मिलती. जो बात पाठ बच्चे जानते हैं उसे स्कूल और फिर गृहकार्य में दोहराते दोहराते वे जीवन से ही बोर हो जाते हैं.
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