एक युवा दंपत्ति अपने दो वर्षीय पुत्र के साथ रेगिस्तान में भटक गए और उनका भोजन समाप्त हो गया. उनका शिशु काल कवलित हो गया. अपना जीवन बचाने की चेष्टा में पति-पत्नी ने अपने मृत शिशु का मांस खाना ही ठीक समझा. उन्होंने यह हिसाब लगाया कि वे उसके छोटे-छोटे अंश खायेंगे और बचे हुए हिस्से को कंधे पर टांगकर सुखा लेंगे ताकि आगे की यात्रा में वह उनके काम आये. लेकिन मांस का हर टुकड़ा खाते समय उनके ह्रदय में अपार वेदना उपजती और वे घोर विलाप करते.
यह कथा सुनाने के बाद बुद्ध ने अपने शिष्यों से पूछा, “क्या उस दंपत्ति को अपने ही शिशु का भक्षण करने में सुख प्राप्त हुआ होगा?”
शिष्य ने कहा, “नहीं तथागत, यह संभव ही नहीं है कि उन्हें अपने ही शिशु के मांस के सेवन से कोई सुख मिला हो.”
बुद्ध बोले, “हाँ. फिर भी ऐसे असंख्य जन हैं जो अपने माता-पिता और संतति का भक्षण कर रहे हैं पर उन्हें इसका कोई बोध नहीं है”.
यह कथा भिक्षु तिक न्यात हन्ह ने एक प्रवचन में कही है.
ऐसी ही अप्रिय भावजनक कथा ‘संसार की विडम्बना’ मित्र राहुल सिंह ने कुछ दिन पहले पोस्ट की थी. यदि आपने वह पढ़ ली है तो आप आगे लिखी बात बेहतर समझ पायेंगे.
उपरोक्त बौद्ध कथाओं में तीन बातें उभरती हैं:
पहली यह कि आप किसी भी धार्मिक या दार्शनिक विचारधारा को मानें, यह प्रतीत होता है कि दुनिया में हर चीज़ किसी दूसरी चीज़ से किन्हीं रूप में सम्बद्ध है. जो कभी कुत्ता था वह आज भाई है, और जो आज पिता है वह आगे जाकर कुत्ते के रूप में उत्पन्न हो सकता है. पुनर्जन्म को दृढतापूर्वक माननेवाले पाठक इस स्थापना पर आपत्ति नहीं रखेंगे. जो पाठक पुनर्जन्म की संकल्पना से सहमत नहीं हैं, क्या वे इस सम्बद्धता को किसी अन्य स्तर पर निदर्शित कर सकते हैं? क्या इसे क्वांटम लेवल पर समझा जा सकता है जिसके अनुसार सृष्टि में उपस्थित हर कण पर अनंत बल कार्यशील हैं तथा उसके अनंत प्रयोजन हैं जो उसके भविष्य को निर्धारित करते हैं.
दूसरी बात यह कि पृथ्वी पर मौजूद सारा पदार्थ, जिसमें जीव और निर्जीव सभी वस्तुएं शामिल हैं, वे सभी सौ से भी अधिक ज्ञात रासायनिक तत्वों से मिलकर बने हैं. हाइड्रोजन, कार्बन, ऑक्सीजन, अन्य गैसें, धातुएं, व अधातु तत्व आदि. ये सभी तत्व अरबों वर्षों से रिसायकल होते रहे हैं. जो जल आप पी रहे हैं वह अरबों वर्ष पुराना है. जो फल आप पेड़ से तोड़कर खा रहे हैं वह ताज़ा है पर उन तत्वों से बना है जिनकी उत्पत्ति बिग बैंग के बाद तेरह अरब वर्ष पूर्व हुई थी. समस्त जीवित प्राणी मृत्यु के बाद मिट्टी में या वायुमंडल में मिल जाते हैं. या तो उन्हें कृमि खा लेते हैं या वे वृक्षों द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हैं. कृमि मेढकों का शिकार बनते हैं, मेढकों को सरीसृप उदरस्थ कर लेते हैं, इसी तरह चक्र चलता रहता है. मिट्टी में उगनेवाले पौधे मृत प्राणियों और जंतुओं से पोषक तत्व खींचकर हमारे लिए खाद्य सामग्री बनाते हैं. इसकी पूर्ण संभावना है कि जो कुछ भी हम खा रहे हैं वह कभी-न-कभी किसी जीवित प्राणी (पशु या पौधे) का ही अंश था. पाठक इसे मांसाहार के लिए उचित तर्क के रूप में नहीं लें.
तीसरी बात यह कि ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुएं पहली और दूसरी बात से भी अधिक अमूर्त स्तर पर एक दूसरे से सम्बद्ध हैं. इसे माया की परिकल्पना से समझा जा सकता है, जिसके अनुसार यह विश्व केवल एक भ्रम है. माया के परदे के हटते ही ‘पुत्र’ और ‘मांस’ जैसे टैग बेमानी हो जाते हैं क्योंकि माया के रहते हम एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ से पृथक नहीं देख पाते यहाँ तक कि किसी स्तर पर उनकी एकरूपता के बारे में सोचते भी नहीं हैं.
सुधी ब्लौगर श्री हंसराज सुज्ञ इस कथा को पब्लिश होने से पहले पढ़ चुके हैं. उनके अनुसार यह कथा का उद्देश्य हमारे भीतर जगुप्सा उत्पन्न करना है. यह मोह के प्रति जगुप्सा दर्शाती है क्योंकि सभी संबंध अनित्य है. पुद्गल या पदार्थ या कण ही शाश्वत हैं. वे नष्ट नहीं होते, केवल अपना रूप बदलते रहते हैं. जिस प्रकार उर्जा के बारे में कहा जाता है कि यह कभी नष्ट नहीं होती, मात्र अपना स्वरूप बदलती है. हमारे शरीर के कण कभी किसी पेड़ या पक्षी के शरीर के अंश भी हो सकते है. उपयोगिता यह है कि बोध कथा अपने सटीक सार चिंतन पर पहुँचा भर दे. उपरोक्त बौद्ध कथा में तीन जो बातें उभरती हैं, जिसका आपने उल्लेख किया है, वे सत्य हैं. मोह, माया, राग वश हम स्वीकार करें या नहीं पर यह सत्य है कि:
1 – रिश्ते नाते अनित्य हैं.
2 – पुद्गल (कण) शाश्वत हैं और पर्याय बदलते हैं.
3 – जगत नश्वर है, आत्मतत्व अमर है. प्रिय-अप्रिय सभी मानसिक सोच का विषय मात्र है.
“यह सत्य है कि सभी प्रकार के आहार पुद्गल, किसी न किसी जीव के ग्रहण किए या छोड़े हुए ही तो हैं. इस सत्य को जानते हुए भी मनीषि मांसाहार को भयंकरतम अपराध बताते हैं. वैसे भी मांसाहार दूषण के वास्तविक कारकों से अनभिज्ञ अज्ञानी इसे तर्क बनाकर प्रस्तुत करते ही है, इसमें कोई नई बात नहीं है. किन्तु क्रूरताजन्य और अशान्ति कारकों से, पंचेन्द्रीय प्राणी के प्राण वियोग की भयंकर पीड़ा से मांसाहार दूषण है. और मृत का आहार अंततः हिंसा को प्रोत्साहित करता है इसीलिए निषेध उचित है. गहनता से चिंतन करेंगे तो यह साफ हो जाएगा कि जगत में सारी अशान्ति का कारण मांसाहार ही है.” ~ श्री हंसराज सुज्ञ.
इस पोस्ट पर पाठकों के विचार आमंत्रित हैं. इस कथा को पोस्ट करने से पहले मैंने मित्र राहुल सिंह से विमर्श किया था जिनके सुझाव को मानकर कथा की व्याख्या में कुछ संशोधन किये गए. पाठकों की प्रतिक्रिया का अनुमान इस प्रकार से लगाया जा रहा है:
पहला पाठक : यह कथा केवल मत विशेष के दृष्टिकोण को ही प्रचारित/व्याख्यायित कर रही है.
दूसरा पाठक: सही कहा. मैं पूर्णतः/आंशिक सहमत हूँ.
तीसरा पाठक: औचित्यहीन अविवेकी कथा, जो केवल रुग्ण/अन्धविश्वासी मष्तिष्क का प्रपंच/प्रलाप है.
चौथा पाठक: बकवास! सुबह-सुबह क्या पढ़वाते हो! I unsubscribe!
पंचम स्तम्भ: मै ज्यादा बड़ा बुडबक हूँ सो गौतम बुद्ध की तरह आपकी पोस्ट पढने के बाद मौन हो गया हूँ 😛
-Arvind K.Pandey
http://indowaves.wordpress.com/
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रोचक पोस्ट है।
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इसे पढ़ने में आनंद आया। विचार व्यक्त करने के लिए समय का अभाव है।
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लेख के सार से पुर्णतः सहमत। पर लेख में मांसाहार पर प्रस्तुत एक विचार पर एक विचार आता है -अगर संसार की अशांति का कारक मांसाहार है क्योंकि वह दूसरों की पीड़ा से उपजता है तो क्या कोशर मांस या हलाल का तरीका सही मांस ग्रहण करने के लिए ठीक है ? क्या पेड़ – पौधों की पीढ़ा का अनुभव किसी ने किया है या ये विचार रखा जाता है की जिस पीढ़ा को हम अनुभव नहीं कर सकते वो होती ही नहीं है ? शायद सुना हो ऐसे तरीके जहाँ माली और पौधों के अपनेपन से उपज बढ़ी है , तो पीढ़ा हर जीव – चल या अचल में होती होगी न ? फिर कुछ भी खाएं या न खाएं ? शायद गहन में जाएं तो पता चले की सिर्फ जीने के लिए -अपनी हर ज़रुरत की पूर्ति संसार के किसी और जीव से छीनी हुई ही है !
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every thing is energy,but the material in which energy is developed,feels the pain most,and the same energy reacts different,due to different material or body,everybody feels the pain,that is true,but it starts from the food we eat
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पर मनुष्य इन सब बातों पर विचार करता ही कहां है
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रोचक पोस्ट
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इस बात पर ज्यादातर लोग शायद अंगद की तरह अपना – अपना पैर [बात] जमायेंगे , में तो इतना कहूँगा की ” जैसा खाओगे अन्न , वैसा होगा मन”,आपसे पूरी तरह से सहमत ,
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If we can understand quantum physics and law of energies ,it is absolute truth.Then is there anyway to stop fighting about religions ,cast ,colour or creed ??Fighting against corruption ,dirty politics ,materialistic pleasures and this rat race???It is very deep ,meaningful article!!You really bring great articles which makes you wonder why we are here and what is our purpose ??
Well done!1Congratulation!!
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एकदम से कोई भूला बिसरा गीत याद आ जाता है और हम उसे मन ही मन गुनगुनाने लगते हैं, अचानक ही आप पाते हैं कि वही गीत रेडियो पर बज रहा है। आपके साथ कभी ऐसा हुआ है? मेरे साथ बहुत बार होता रहा है। अभी तीन चार दिन पहले पुनर्जन्म और कर्मफ़ल विषय पर मित्रों की प्रतिक्रिया जानने की इच्छा से एक छोटी सी पोस्ट लिखी थी, पब्लिश नहीं की। वही रेडियो वाली बात हो गई।
इस पोस्ट का लिंक अपनी पोस्ट(जब पब्लिश हुई) में देना चाहूँगा।
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KRIPYA AISI KATHA MAT PRAKASHIT KAREN, MAN VICHLIT HO JATA HAI.
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संबंध कब तक पवित्र रहते हैं, कब अपवित्र हो जाते हैं, सब इस सीमा को निर्धारित करने पर मौन हैं।
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Let us hope that in near future, Genetic engineering will be able to intoduce cholophil in himan skin cells, which can manufacture food by photo synthesis. Then we shall do- neither MANSAHAAR, nor SHAKAHAAR but SURYAHAAR.
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atyant prerak katha.
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Duniya me agar koi sabse bda pap hai to wh kisi ka dil dukhana kyoki isi manusy shari me bhagwan rhta hai na ki mandir m
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Nice
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ये ही वो व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने देश को विश्वस्तर पर उभरती हुई सफल अर्थव्यवस्था के रुप में प्रतिष्ठा दिलाने के लिए किसी भी व्यक्ति की तुलना में कहीं ज्यादा काम किया है. मनमोहन सिंह इससे बेहतर सम्मान के हकदार हैं.
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baat sahi hai,magar apni apni soch hai,sirji.atmosphere ke nusar sabhi jite hai
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