दृष्टि की व्याधियां

बोकुजु नामक एक साधु किसी गाँव की गली से होकर गुज़र रहा था. अचानक कोई उसके पास आया और उसने बोकुजु पर छड़ी से प्रहार किया. बोकुजु जमीन पर गिर गया, उस आदमी की छड़ी भी उसके हाथ से छूट गयी और वह भाग लिया. बोकुजु संभला, और गिरी हुई छड़ी उठाकर वह उस आदमी के पीछे यह कहते हुए भागा, “रुको, अपनी छड़ी तो लेते जाओ!”

बोकुजु उस आदमी तक पहुँच गया और उसे छड़ी सौंप दी. इस बीच यह घटनाक्रम देखकर वहां भीड़ लग गयी और किसी ने बोकुजु से पूछा, “इस आदमी ने तुम्हें इतनी जोर से मारा लेकिन तुमने उसे कुछ नहीं कहा?”

बोकुजु ने कहा, “हाँ, लेकिन यह एक तथ्य ही है. उसने मुझे मारा, वह बात वहीं समाप्त हो गयी. उस घटना में वह मारनेवाला था और मुझे मारा गया, बस. यह ऐसा ही है जैसे मैं किसी पेड़ के नीचे से निकलूँ या किसी पेड़ के नीचे बैठा होऊँ और एक शाखा मुझपर गिर जाए! तब मैं क्या करूंगा? मैं कर ही क्या सकता हूँ?”

भीड़ ने कहा, “पेड़ की शाखा तो निर्जीव शाखा है लेकिन यह तो एक आदमी है! हम किसी शाखा से कुछ नहीं कह सकते, हम उसे दंड नहीं दे सकते. हम पेड़ को भला-बुरा नहीं कह सकते क्योंकि वह एक पेड़ ही है, वह सोच-विचार नहीं सकता”.

बोकुजु ने कहा, “मेरे लिए यह आदमी पेड़ की शाखा की भांति ही है. यदि मैं किसी पेड़ से कुछ नहीं कह सकता तो इस आदमी से क्यों कहूं? जो हो गया, वो हो गया. मैं उसकी व्याख्या नहीं करना चाहता. और वह तो हो ही चुका है, वह बीत चुका है. अब उसके बारे में सोचकर चिंता क्या करना? वह हो गया, बात ख़तम”.

बोकुजु का मन एक संत व्यक्ति का मन है. वह चुनाव नहीं करता, सवाल नहीं उठाता. वह यह नहीं कहता कि ऐसा नहीं, वैसा होना चाहिए’. जो कुछ भी होता है उसे वह उसकी सम्पूर्णता में स्वीकार कर लेता है. यह स्वीकरण उसे मुक्त करता है और मनुष्य की सामान्य दृष्टि की व्याधियों का उपचार करता है.

ये व्याधियां हैं: ‘ऐसा होना चाहिए’ और ‘ऐसा नहीं होना चाहिए’, ‘भेद करना’ और ‘निर्णय करना’, ‘निंदा करना’, और ‘प्रसंशा करना’.

(image credit)

There are 23 comments

  1. sanjay @ mo sam kaun.....?

    भक्त नामदेव के साथ भी एक ऐसा ही वाकया जुडा बताते हैं| एक बार एक कुत्ता उनकी रोटी उठाकर भाग लिया और नामदेव उसके पीछे भाग लिए ताकि रोटियों को घी से चुपड सकें|
    हर जीव अपनी चेतना के स्तर के अनुरूप ही व्यवहार करता है|

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  2. indowaves

    निशांत भाई बहुत दिनों के बाद आपके पोस्ट पे कमेन्ट कर रहा हूँ..वैसे पढता रोज हूँ पर कमेन्ट कभी कभी..सीरियस मूड में हूँ और आपके पोस्ट का अभिप्राय भली भांति ग्रहण कर लिया है..पर फिर भी नान सीरिअस तरीके से ये कहना चाहूँगा कि इस दृष्टि से तो criminal jurisprudence की वाट लग जायेगी ..हा..हा..हा

    -Arvind K.Pandey
    http://indowaves.wordpress.com/

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  3. ANSHUMALA

    कहानी में कहा क्या जा रहा है ये तो मुझे भी आज ठीक से समझ नहीं आया ( आम आदमी जो हूँ विद्वान नहीं ) – मुझे भी लग रहा है की यदि खुद को एक छड़ी मारा तो सह लो किन्तु अपने सामने कोई बड़ा अपराध हो रहा हो उसके प्रति ये रैवैया कही से भी सही नहीं कहा जा सकता है | ऐसा होना चाहिए’, ‘ऐसा नहीं होना चाहिए’ ये बाते हमें गलत और सही का निर्णय करने में सहायक होती है यदि हम मारने वाले से ये ना पूछे की उसने मारा क्यों तो हमें पता कैसे चलेगा की हमें किस बात की सजा दी जा रही है क्या हम में कोई खराबी बुराई है यदि हा तो उसे जान कर ही हम उसको छोड़ सकते है | क्या कहानी में कुछ ऐसा भी है जो लिखा तो नहीं गया है किन्तु कहानी में कही छुपा है यदि हा तो कोई भी उसे मुझे उस बारे में बता दे जो मै नहीं देखा पा रही हूं |

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    1. सुज्ञ

      अंशुमाला जी;

      यह संत चेतना की ऐसी उत्कृष्ट स्थिति है जहाँ गलत और सही का निर्णय ही बेमानी हो जाता है। निर्णय, निष्कर्ष, प्रतिक्रिया और परिणामों के उलझे चक्र की निर्थकता ज्ञात हो जाती है। सही है कि ऐसी उच्च दशा को प्राप्त करना आम व्यक्ति के लिए बहुत ही कठिन है किन्तु सभी के लिए असंभव नहीं। इसीलिए परिश्रम पुरूषार्थ जारी रखने की प्रेरणा के ऐसी बोध कथाएं होती है।

      कहानी में कुछ भी छुपा हुआ नहीं है, कारण के उल्लेख का औचित्य ही नहीं है क्योंकि संदेश ही यह है कि संत को क्यों कारण खोजने के फेर में पड़ना चाहिए?

      यद्पि संत के साथ भी अत्याचार तो होता है किन्तु वे सहनशीलता की मानसिकता पर दृढ़ होते है तथापि उनके सामने अ्गर अन्य पर अत्याचार होता हो तो सम्पूर्ण चिंतन विवेक सहित न्यायपक्ष के साथ खड़े होते है। और ऐसा करते हुए भी हिंसा से निवृत रह पाते है। ऐसा कईं संतो के जीवन चरित्र से ज्ञात होता है।

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      1. shilpamehta2

        क्या सच ही संत स्थिति यह होती है की सही गलत कुछ बचता ही न हो ? यह यदि खुद पर हुए प्रहार तक ही सीमित रहे, तब बात और है | किन्तु यदि हम अपराध और सही कर्म के बीच भेद ही न करें, तब क्या हम “संत” कहलायेंगे ? मुझे तो यह संत की सही परिभाषा नहीं लगती | शास्त्रों के अनुसार भी संत उपदेश देते हैं साधारण मनुष्यों को की कौनसे कर्म सद्कर्म हैं और कौनसे पाप कर्म | तो यदि संत स्वयं ही अंधे बन जाएँ और सही गलत उन्हें ही न दिखे, तब समाज को राह कौन दखा सकेगा ?

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  4. Mahak

    मैं उन साधू महोदय से बिलकुल असहमत हूँ …………..इस प्रकार कि नपुंसक ,कायराना और मूर्खतापूर्ण सोच के चलते ही अपराधियों के हौंसले बुलंद होते हैं

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    1. सुज्ञ

      आज भी यमराज और धर्मराज की व्यवस्था होते हुए भी कहाँ यमराज के सामने प्रतिरोध और धर्मराज के सामने असहनशीलता चलती है। पशुवत प्रतिकार अवश्य करते है पर लेखा कर्मों का चलता है। कर्मों का विधान अटूट है कोई बहाना वहाँ नहीं चलता। शान्ति अगर लक्ष्य है तो आक्रोश पैदा करे वे दृष्टि व्याधियां दूर करनी ही होगी।

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  5. ANSHUMALA

    निशांत जी
    जवाब देने के लिए धन्यवाद | आप की इस बात से सहमत हूं की आप की दी कहानियो का समय देश काल आदि आज के समय से मेल नहीं खाता है इसलिए उनमे दी गई शिक्षा आज पूरी तरह से लागु नहीं हो सकती है | किन्तु मेरा मानना है की जब भी इस तरह की कहानिया इस मकसद से दी जाये की उनसे आज का मानव कुछ प्रेरणा ले या सीखे तो इस बात का ध्यान रखा जाये की कहानियो में दी गई सीख को आज के समय में अपनाना संभव हो भले परेशानियों के साथ , ऐसी सिखों का क्या फायदा जिसे अपनाना असंभव हो जाये | आदर्श के इतने ऊँचे मानदंड नहीं खड़े करना चाहिए की मनुष्य उसे पाने की सोच भी ना सके और पहले ही हार मान जाये , उसकी जगह अच्छा हो नैतिकता आदि की ऐसी शिक्षा दी जाये जो मुश्किल तो दिखे किन्तु जिसे आज का व्यक्ति अपनाने का प्रयास तो कर सके , उसका कुछ अंश भी अपना लेता है तो बड़ी बात होगी | हा यदि कहानी देने का अर्थ बस कहानी किस्सों को पढाना है तो जरुर हर तरह के किस्से दिये जा सकते है | जवाब देर से देने के लिए खेद है मैंने आप का जवाब देखा नहीं था |

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    1. Nishant Mishra

      अंशुमाला जी,
      मेरे विचार से ऊपर सुज्ञ जी ने इन कथाओं के आशय को बेहतर प्रस्तुत किया है. फिर भी, मेरी ओर से यह समझाना ज़रूरी है कि यहाँ कहानियों का प्रस्तुतीकरण सीख लेने के उद्देश्य (मात्र) से नहीं किया जा रहा. इस दृष्टि से देखा जाए तो हम किसी भी कहानी से कोई सीख नहीं ले सकते. सच कहूं तो शायद ही किसी कथा में वर्णित कोई आदर्श हो जिसे आप पूरी तरह से अंगीकार कर सकें. उदहारण के लिए, यदि किसी कथा में सच बोलने की शिक्षा दी गयी हो तो आप अनुमान लगा सकती हैं कि इस सरल से सूत्र को ही जीवन में उतारना कितना दुष्कर होगा. और मेरी समझ है कि मानदंड हमेशा ऊंचे ही होते हैं. Gold standards का ऊंचा होना अनिवार्य है. उसमें थोड़ा-बहुत खोट मिलाकर यदि आप काम चला सकें तो समीचीन होगा. इन कथाओं का यही स्थान है, इतर कथाओं और प्रसंगों के स्रोत सर्वसुलभ हैं.

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  6. meghnet

    कहते हैं कि जीवन प्रवाह के साथ बहते रहने में ही मनुष्य का ब्रह्मत्व है लेकिन पुरुषार्थ के साथ. सुज्ञ जी की टिप्पणियाँ गहन विचार करने योग्य हैं.

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  7. सुज्ञ

    बडी सारगर्भित बात की निशांत जी नें
    सत्कर्मों के “मानदंड हमेशा ऊंचे ही होते हैं. Gold standards का ऊंचा होना अनिवार्य है.”
    ऐसे जीवन मूल्यों को जीवन में उतारना कठिन व दुष्कर होगा ही। शायद इसीलिए इनके साथ कठोर पुरूषार्थ और निरन्तर अभ्यास को आवश्यक शर्त की तरह जोड़ा गया होता है। उच्च मानकों पर खरा उतरना सामान्यजन के लिए भले कठिन हो किन्तु लाखों में एक पुरूषार्थी निकल ही आता है। अल्प संख्या में मगर उच्च गुणवत्ता के संघर्षशील गुणानुरागियों के लिए ही सही, सत्कर्मों के ऐसे बोध दृष्टांत, बोध-कथाएँ, नैतिक जीवनमूल्यों के प्रसंगों का प्रवाह अविरत जारी रहना चाहिए। पुरूषार्थी-विद्यार्थी के लिए यही तो संसाधन है।

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  8. drparveenchopra

    सच में सहनशीलता का गुण भी एक गहना ही है …हमेशा की तरह बेहतरीन प्रस्तुति. दो तीन दिन पहले मेरी श्रीमति जी हमारे बेटे को यह कहानी सुना रही थीं ..किसी पेपर में दो चार दिन पहले आई थीं …शायद अमर उजाला में या फिर टाइम्स ऑफ इंडिया में ….
    आप हमेशा ही बहुत अच्छा लिखते हैं।

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