रेगिस्तान को पार करने के बाद एक युवक सीटा मॉनेस्ट्री पहुँचने में सफल हो गया. उसने महंत के सत्संग में भाग लेने की अनुमति मांगी.
उस दिन दोपहर में महंत ने खेती-किसानी से जुड़ी काम की बातों पर चर्चा की.
चर्चा की समाप्ति होने के बाद युवक ने एक साधू से कहा:
“यह सब बहुत अजीब है. मैं तो यहाँ इस उम्मीद से आया था कि मुझे पाप और पुण्य के बारे में ज्ञानवर्धक प्रवचन सुनने को मिलेंगे, लेकिन महंत ने तो टमाटर उगाने, सिंचाई करने और ऐसी ही बातों का ज़िक्र किया. मैं जहाँ से आया हूँ वहां तो सब यही कहते हैं कि ईश्वर करुणावान है और हमें सदैव उसकी प्रार्थना करनी चाहिए”.
साधू ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया:
“यहाँ हम यह मानते हैं कि ईश्वर ने अपने हिस्से की जिम्मेदारियां बहुत अच्छे से निभा दीं हैं और अब यह हमारे ऊपर है कि हम उसके काम को आगे बढायें”. Image credit
शानदार ! बेहद सार्थक सन्देश देती हुई कथा ! आपकी अनुमति की प्रत्याशा में इसे शेयर कर दिया है !
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अच्छी कथा ! मुझे भी हर समय सांसारिक मोह माया त्यागने का प्रवचन समझ नहीं आता है सब ने त्याग दिया तो संसार चलेगा कैसे क्या सभी का साधू बन जाना ही ठीक है क्या संसारिकता इतनी बुरी है |
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पता नहीं ईश्वर की जिम्मेदारियां के बाद वो कौन सी जिम्मेदारियाँ थी जिसे मानव को पूर्ण करना था। कौन निश्चित करेगा वे जिम्मेदारियाँ यही है।
ईश्वर प्रदत्त संसाधनो का अनियंत्रित भोग-उपभोग भी तो गैरजिम्मेदारी है, परपीड़ा का कारक है। संयमित तो रहना ही पड़ेगा, पुण्य का काम है, दूसरों के लिए अभावो का निर्माण पाप का।
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हमें अपनी जिम्मेदारी के निर्वहन और कर्तव्य का ज्ञान होना चाहिए . सचमुच मालिक कृपालु हैं beautiful narration
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अपनी जिम्मेदारियां सही तरीके से न निभाना पाप ही है|
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प्रत्येक व्यक्ति का अंतःकरण जानता है कि उसकी जिम्मेदारियाँ क्या हैं. वह चाहे तो उसे ईश्वरीय जिम्मेदारियाँ भी समझ सकता है. बढ़िया आलेख.
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हम ईश्वर की प्रकृति से साम्य स्थापित कर लें..
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