अपने छात्रजीवन में मैंने एक नीतिश्लोक पढ़ा था जो मुझे अपनी कमजोर स्मरणशक्ति के बावजूद आज भी याद है, शायद इसलिए कि उसमें व्यक्त विचार गंभीर एवं सार्थक हैं. श्लोक यूं है:
गतानुगतिको लोको न लोको पारमार्थिकः
बालुकालिङ्गमात्रेण गतं मे ताम्रभाजनम्.
इसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है: यह संसार गतानुगतिक (पीछे-पीछे चलने वाला) अर्थात् लकीर का फकीर है. यहां लोग दूसरों के हित-अहित को ध्यान में रखकर कर्म नहीं करते. (इस लौकिक व्यवहार के कारण ही तो) मेरा तांबे का बर्तन महज बालू के (शिव)लिंग के कारण खो गया .
उक्त नीतिवचन का मूल स्रोत मुझे नहीं मालूम. मैंने इसे अपने पाठ्यक्रम के किसी पुस्तक में एक लघुकथा के संदर्भ में पढ़ा था. उस कथा के संक्षिप्त उल्लेख से इस श्लोक का तात्पर्य अधिक रोचक तरीके से समझा जा सकता है. कथा इस प्रकार है:
एक परिव्राजक (भ्रमणरत साधु) एक बार प्रातः एक नदी के किनारे पहुंचा. उसने उस नदी के पास ही कहीं एकांत में शौचादि कर्मों से निवृत्त होने का निर्णय लिया. तांबे का एक बर्तन ही उसकी कुल ‘संपत्ति’ थी जिसे वह छिपा के रखना चाहता था. उसे भय था कि उसकी अनुपस्थिति में उस बर्तन पर किसी चोर-उचक्के की नजर पड़ सकती है और वह उसे खो सकता है. अतः उसने एक तरकीब सोची. नदी के किनारे विस्तृत क्षेत्र में फैली बालू में उसने हाथ से एक गड्ढा बनाया . उसने उसमें अपना तांबे का बर्तन रखा और बालू से ढककर उसके ऊपर बालू का ही एक शिवलिंग बना दिया, ताकि उस स्थल की पहचान वह बाद में कर सके. आने-जाने वाले किसी को किसी प्रकार का शक न होने पावे इस उद्येश्य से उसने आसपास से फूल-पत्ते तोड़कर लिंग के ऊपर चढ़ा दिये, ताकि लोग पवित्र तथा पूज्य मानते हुए उसके साथ छेड़-छाड़ न कर सकें.
किंचित् विलंब के बाद वह उस स्थल पर लौटा तो वहां का दृश्य देख स्तब्ध रह गया. उसने पाया कि इस बीच उस स्थान से गुजरने वाले लोगों ने भी एक-एक कर अनेकों लिंग वहां स्थापित कर दिये थे. कदाचित् परिव्राजक द्वारा स्थापित उस लिंग को देख लोगों ने सोचा कि वहां उस दिन बालुका-लिंग स्थापना के साथ उसकी पूजा का विधान है और तदनुसार अधिक सोच-विचार किये बिना उन्होंने भी वैसा ही किया. उनके इस रवैये का फल परिव्राजक को भुगतना पड़ा, जिसके लिए अपना ताम्रपात्र ढूंढ़ना कष्टप्रद हो गया. तब उसके मुख से उक्त नीतिवचन निकले.
किसी कथा को शब्दशः नहीं स्वीकारा जा सकता. महत्त्व तो उसमें निहित संदेश का रहता है. उक्त कथा इस तथ्य पर जोर डालती है कि मनुष्य समाज में कम ही लोग होते हैं जो किसी मुद्दे पर विवेकपूर्ण चिंतन के पश्चात् स्वतंत्र धारणा बनाते हैं और तदनुकूल व्यवहार करते हैं. अधिकतर लोग लकीर के फकीर बनकर व्यापक स्तर पर लोगों को जो कुछ करते हुए पाते हैं वही स्वयं भी करने लगते हैं. अंध नकल की यह प्रवृत्ति आम बात है. सामाजिक कुरीतियां ऐसे ही व्यवहार के दृष्टांत मानी जा सकती हैं. – योगेन्द्र जोशी
(योगेन्द्र जोशी काशी हिंदू वि.वि. में भौतिकी पढ़ाते थे. अब स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर अपनी अभिरुचियों के अनुसार समय-यापन कर रहे हैं. उनके ब्लॉग “ज़िंदगी बस यही है” और “विचार संकलन” रोचक, ज्ञानवर्धक और पठनीय हैं. image credit)
हाँ, कुछ ही दिनों पहले विचार संकलन की पुरानी प्रविष्टियों को खंगालते वक्त इसे पढ़ा था!
रोचक व सुन्दर नीति कथा! आभार।
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सच में पीछे पीछे चलने के क्रम से ढंग से दर्शाती कथा।
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सुन्दर श्लोक, रोचक कथा, सटीक सन्देश। जोशी जी के ब्लॉगों से परिचय कराने का अभार!
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योगेन्द्र जोशी जी का ब्लॉग देखा कल रात और देखकर मजा आ गया| निशांत भाई, इसके लिए अलग से धन्यवाद|
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i see you posted every post in english as well but you didn’t do it with this one .
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