परिवर्तन

ज़ेन शिष्य ने गुरु से पूछा, “मैं दुनिया को बदलना चाहता हूँ? क्या यह संभव है?”

गुरु ने पूछा, “क्या तुम दुनिया को स्वीकार कर सकते हो?”

शिष्य ने कहा, “नहीं, मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता. यहाँ युद्ध, गरीबी, और न जाने कितनी ही बुरी बातें हैं!”

गुरु ने कहा, “जब तक तुम दुनिया को स्वीकार करना नहीं सीख लो तब तक तुम इसे बदल भी नहीं सकोगे”.

Thanx to John Weeren for this story

There are 15 comments

  1. vishvanaathjee

    सबसे कठिन है स्वयं को परिवर्तित करना।
    जो खुद को सुधार नहीं सकते दुनिया बदलने निकलते हैं!

    आजकल “परिवर्तन” शब्द fasionable हो गया है, courtesy ममता बैनर्जी । पर उच्चारण “पोरिबर्तन” बन गया है ।

    जी विश्वनाथ

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  2. shilpa mehta

    मुझे तो यह कांसेप्ट ही बड़ा confusing लगता है | क्या हम दुनिया को बदल सकते भी हैं ? जिसने दुनिया बनाई – वह कोई है ? या नहीं है ?

    यदि है – तो क्या वह हमसे कहीं अधिक ज्ञानी और सशक्त न होगा ? यदि उसे इसे बदलना सही लगता, और वह इसे बदलना चाहता – तो क्या यह ऐसी ही होती – या फिर कुछ अलग होती ? और यदि वह इसे ऐसी ही चाहता है – तो क्या हमारी यह बदलाव की इच्छा उसकी समझ से बड़ी है ? हो भी – तो क्या हमारी सशक्तता जो उससे बहुत कम है – उस शक्ति से यह संभव है ?

    और यदि यह दुनिया किसी ने नहीं बनाई है – बस ऐसे ही बन गयी है – तो फिर इसे बदलने के प्रयास कितने meaningful होंगे ? what started as an accident , is always an accident – whats the point of trying to change it ?

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