मरने के बाद आदमी ने स्वयं को दो दरवाजों के बीच खड़े पाया. एक पर लिखा था “लालसा”, और दूसरे पर “भय” लिखा था.
एक देवदूत उस तक आया और बोला, “तुम किसी भी द्वार को चुन सकते हो. दोनों ही नित्यता के मार्ग पर खुलते हैं”.
आदमी ने बहुत सोचा पर उसे तय करते नहीं बना. उसने देवदूत से ही पूछा, “मुझे कौन सा दरवाज़ा चुनना चाहिए?”
देवदूत ने मुस्कुराते हुए कहा, “उससे कोई फर्क नहीं पड़ता. दोनों ही यात्राओं की परिणति दुःख में होती है.”
Thanx to John Weeren for this story
दोनों गुफाएँ दुख की घाटी में खुलती हैं. मन के तत्त्व का यथार्थ. बहुत खूब.
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नित्यता के मार्ग तक / पे गुजरने की परिणति दुःख !
मृत्यु के बाद भी सुख का कोई विकल्प नहीं !
तब तो अनित्यता ही भली !
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निष्काम कर्म और मन्यु में जियें,…………. तो मृत्यु के बाद….. लालसा और भय के नहीं बल्कि ….. आनंद और अभय के द्वार मिलेंगे 🙂
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कुँआ और खाई…
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वर्सेटाइल ब्लॉगर, बहुत सही!
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अन्ततः..
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वाह…क्या बात कही…
एकदम सत्य…
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लिंक का एक दरवाजा सोमा जी ने भी खोल दिया है आपके लिए, बधाई.
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क्या करना चाहिए ये भी बता देते तो बेहतर होता , ये भी ठीक है , कम से कम आदमी सोचेगा तो सही इन दो के अलावा कौन सा है सही रास्ता ,
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