सुबह जा चुकी है. धूप गर्म हो रही है और मन छाया में चलने को है.
एक वृद्ध अध्यापक आये हें. वर्षों से साधना में लगे हैं. तन सूख कर हड्डी हो गया है. आंखें धूमिल हो गयी हैं और गड्ढों में खो गयी हैं. लगता है कि अपनों ने बहुत सताया है और उस आत्मपीड़न को ही साधना समझते हैं.
प्रभु के मार्ग पर चलने को जो उत्सुकता है, उनमें अधिकतर का जीवन इसी भूल से विषाक्त हो जाता है. प्रभु को पाना संसार के निषेध का रूप ले लेता है, और आत्मा की साधना शरीर को नष्ट करने का. यह नकार दृष्टि उन्हें नष्ट कर देती है और उन्हें खयाल भी नहीं आ पाता है कि पदार्थ का विरोध परमात्मा के साक्षात का पर्याय नहीं हैं.
सच तो यह है कि देह के उत्पीड़क देहवादी होते हैं और संसार के विरोधी बहुत सूक्ष्म रूप से संसार से ही ग्रसित होते हैं.
संसार के प्रति भोग-दृष्टि जितनी बांधती है, विरोधी दृष्टि उससे कम नहीं बल्कि ज्यादा ही बांधती है. संसार और शरीर का विरोध नहीं वरन अतिक्रमण करना ही साधना है. वह दिशा न भोग की है और न ही दमन की है. वह दिशा दोनों से भिन्न है.
वह तीसरी दिशा है. वह दिशा संयम की है. दो बिंदुओं के बीच मध्य बिंदु खोज लेना संयम है. पूर्ण मध्य में जो है, वह अतिक्रमण है. वह कहने को ही मध्य में है, वह कुछ भोग और कुछ दमन नहीं है. वह न भोग है और न दमन है. वह समझौता नहीं, संयम है.
अति असंयम है, मध्य संयम है. अति विनाश है, मध्य जीवन है. जो अति को पकड़ता है, वह नष्ट हो जाता है. भोग और दमन दोनों जीवन को नष्ट कर देते हैं. अति ही अज्ञान है और अंधकार है, मृत्यु है.
मैं संयम और संगीत को साधना कहता हूं.
वीणा के तार जब न ढीले होते हैं और न कसे होते हैं, तब संगीत पैदा होता है. बहुत ढीले तार भी व्यर्थ हैं और बहुत कसे तार भी व्यर्थ हैं. पर तारों की एक ऐसी स्थिति भी होती है, जब वे न कसे कहे जा सकते और न ढीले कहे जा सकते हैं. वह बिंदु ही उनमें संगीत का बिंदु बनता है. जीवन में भी वही बिंदु संयम का है. जो नियम संगीत का है, वह संयम का है. संयम से सत्य मिलता है.
संयम की यह बात उनसे कही है और लगता है कि जैसे उसे उन्होंने सुना है. उनकी आंखें गवाही हैं. जैसे कोई सोकर उठा हो, ऐसा उनकी आंखों में भाव है. वे शांत और स्वस्थ प्रतीत हो रहे हैं. कोई तनाव जैसे शिथिल हो गया है और कोई दर्शन उपलब्ध हुआ है.
मैने जाते समय उनसे कहा, “सब तनाव छोड़ दें और फिर देखें. भोग छोड़ा है, दमन भी छोड़ दें. छोड़कर… सब छोड़कर देखें. सहज होकर देखें. सहजता ही स्वस्थ करती है, स्वभाव में ले जाती है.’
उन्होंने उत्तर में कहा, “छोड़ने को अब क्या रहा है? छूट ही गया. मैं शांत और निर्भार हो कर जा रहा हूं. एक दुख स्वप्न जैसे टूट गया है. मैं बहुत उपकृत हूं.” उनकी आंखें बहुत सरल और शांत हो गयी हैं और उनकी मुस्कराहट बहुत भली लग रही है. वे वृद्ध हैं, पर बिलकुल बालक लग रहे हैं.
काश, यह उन सभी को दीख सके जो प्रभु में उत्सुक होते हैं.
ओशो के पत्रों के संकलन ‘क्रांतिबीज’ से. प्रस्तुति – ओशो शेलेन्द्र
bahut achha laga yeh lekh. samasya yeh ki bhog aur daman se chhutkara nahi ho pata hai.
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तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा।
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Since I turned towards the meditation and teachings of Sadguru Osho on 10th December, 2003 I have come to the conclusion that there is only one way to attain the swaminess of self and that is to stay in middle in all respect that may be bhog or yog, construction or destruction, sweet or sour. With the utmost blessings of My Sadguru Osho I have stayed in middle in all walk of my life and attaining the bliss and knowledge slowly slowly, slowly slowly, slowly slowly…… Thank you very much My Sadguru.
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मन चंगा तो कठौती में गंगा ।
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मा गृधः ! मा गृधः ! कस्विद्धनम्!
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Plus ça change, plus c’est la même chose – The more you change, the more it remains the same!
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kya baat hai waHhhhhh,,,,,
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ये उदाहरण बुद्ध की शरण में आये किसी युवराज का है… जो पहले तो वासनाओं में डूबा था पर बाद में तप की अतियों में पहुंच गया था.
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Praveen Pandey and Amrendra Nath Tripathi ji Comment ka translation bhi to likh do. Itni sanskrit sab ko nahi aati hai, Jaise ki mujhe samajh nahi aaya aap ka comment.
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शरीर रूपी मंदिर में आत्मा रूपी ईश्वर का वास होता है…जितनी संभाल एक मंदिर की होती है,जितनी श्रद्धा एक मंदिर के लिए होती है,बिलकुल वैसा ही शरीर के लिए भी होनी चाहिए…
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शिक्षा और शान्ति देती सुन्दर आलेख…..
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सुन्दर सीख!
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