सिनेमा और ध्यान

lucid dreamer

एक शिष्य ने अपने गुरु से पूछा, “मैं ग्रन्थ में विचारों को विराम देने, जगत से स्वयं का एकात्म्य अनुभव करने, और अपने शुद्ध वास्तविक स्वरूप को जानने के बारे में पढ़ता रहता हूँ. मैं यह सब बहुत बार पढ़ चुका हूँ लेकिन मैं यह नहीं समझ पाता हूँ कि यह किस प्रकार संभव है. मैं अपनी आत्मा के अस्तित्व पर शत-प्रतिशत विश्वास कैसे कर लूं? यह सब बहुत कठिन जान पड़ता है.”

“ठीक है. क्या तुम्हारे पास सौ रुपये हैं? मैं तुम्हें सौ रुपये में यह दिखा सकता हूँ”, गुरु ने कहा.

“सौ रुपये? रुपये-पैसे से इसका क्या संबंध है?”, शिष्य ने आश्चर्य से कहा.

“तुम सिर्फ एक सिनेमा का टिकट खरीद लो. फिल्म देखने जाओ. लेकिन पहले यह बताओं कि फिल्म देखते समय तुम्हारे चित्त की दशा कैसी होगी?”

“मैं तो सिर्फ फिल्म ही देख रहा हूँगा? और क्या?”, शिष्य ने कहा.

“सिर्फ देखोगे ही? इसका मतलब यह कि तुम अपनी आँखों पर भरोसा कर सकते हो. अपने कानों पर भरोसा कर सकते हो. इसका अर्थ यह भी हुआ कि तुम अपने वास्तविक आत्म पर भी विश्वास कर सकते हो. फिर तो बाहर और भीतर एकात्म्य हो ही जाएगा. फिल्म देखने के पहले तुम्हारा वानर-मन केवल हर बात की पड़ताल ही करता जाता है. लेकिन जब तुम फिल्म देखने लगते हो तक सारे तर्क-वितर्क दरकिनार हो जाते हैं.”

“तुमने कभी विज्ञान की फैंटेसी फ़िल्में देखीं है, स्टार वार्स जैसी? जिनमें अंतरिक्ष यान ब्रह्माण्ड में उड़ते हैं और हीरो लोग बुरे व्यक्तियों का पीछा करते हैं, उनपर मिसाइलें दागते हैं. उस समय तुम वह सब देखकर ठगाए से रह जाते हो. तुम उन दृश्यों पर वाहवाही देते हो. फिल्म में कॉमेडी का दृश्य आने पर तुम हंस पड़ते हो. उदासी भरा दृश्य आने पर तुम्हारा दिल भी भर आता है. तुम और फिल्म दोनों ही एक हो जाते हो, तब न तो कुछ बाहर होता है और न ही कुछ भीतर. तब कोई विचार भी नहीं होता. तुम कल के लिए योजनायें नहीं बनाते, न ही तुम अतीत के लिए पश्चाताप करते हो. तब मन में कोई उधेड़बुन नहीं हो रही होती है. बम गिरते हैं, मिसाइलें दागी जाती हैं और तुम उस एक्शन को जीने लगते हो. यह तुम्हें खुश भी कर सकता है और तुम्हारे भीतर क्रोध भी भर सकता है.”

“इस प्रकार फिल्म देखना भी किन्हीं अर्थों में जागरण में… ध्यान में जीना है. उस समय तुम अपने शुद्ध स्वरूप में शत-प्रतिशत आस्था रखते हो. फिल्म के ख़त्म हो जाने पर तुम्हारी विचार प्रक्रिया पुनः गतिशील हो जाती है और तुम दुखी होने लगते हो. फिर उस फिल्म की रील तुम्हारे मष्तिष्क में घूमने लगती है. इस सब के बाद भी यदि तुम अपने शुद्द आत्म स्वरूप में शत-प्रतिशत विश्वास नहीं करते तो जाओ और रोज़-रोज़ दिन-दिन भर फ़िल्में देखो. फिर कभी कोई समस्या नहीं होगी!”

“ठीक है”.

There are 15 comments

  1. Maheshwari Kaneri

    निशान्त, जो भी आलेख, कथा या कथन तुम हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हॊ सच में बहुत ही ग्यान वर्धक होते है. ऐसी सीख ऐसी चिन्तन अमूल्य ही नहीं दुर्लभ भी हैं.
    आज की पीढी के ये वरदान स्वरुप है. बहुत अच्छा काम कर रहे हो.
    well done.. keep it up…… Thanks……

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  2. aradhana

    सही है. यह बिलकुल उसी प्रकार है जैसे रस की प्रतीति के समय आनंद होता है. साहित्य का अवगाहन करते समय या कोई नाटक देखते समय समय उसकी परिस्थितियों, नायकों और नायक की मनोदशाओं से तादात्म्य स्थापित हो जाने को ही संस्कृत काव्यशास्त्र में ‘साधारणीकरण’ की प्रक्रिया कहते हैं. इस प्रक्रिया द्वारा एक आनंद की उत्पत्ति होती है, जिसे ब्रह्मानंद सहोदर आनंद कहा जाता है.

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  3. Ranjana

    “इस प्रकार फिल्म देखना भी किन्हीं अर्थों में जागरण में… ध्यान में जीना है..”

    बहुत समय से यह विचार मन में घूम रहा था,आज यहाँ पढ़ लिया…

    इन कथाओं में जिस प्रकार से दृष्टान्तों द्वारा समझाया गया रहता है,बातें कितनी सरलता से मन तक पहुँचती हैं…

    बस आनंद आ जाता है…

    आभार आपका इस सद्प्रयास के लिए…

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