रात्रि बीत गई है और खेतों में सुबह का सूरज फैल रहा है. एक छोटा सा नाला अभी-अभी पार हुआ है. गाड़ी की आवाज सुन चांदनी के फूलों से सफेद बगुलों की एक पंक्ति सूरज की ओर उड़ गई है.
फिर कुछ हुआ है और गाड़ी रुक गई है. इस निर्जन में उसका रुकना भला लगा है. मेरे अपरिचित सहयात्री भी उठ आए हैं. रात्रि किसी स्टेशन पर उनका आना हुआ था. शायद मुझे संन्यासी समझ कर प्रणाम किया है. कुछ पूछने की उत्सुकता उनकी आंखों में है. आखिर वे बोल रहे हैं, ”अगर कोई बाधा आपको न हो तो मैं एक बात पूछना चाहता हूं. मैं प्रभु में उत्सुक हूं और उसे पाने का बहुत प्रयास किया है, पर कुछ परिणाम नहीं निकला. क्या प्रभु मुझ पर कृपालु नहीं है?”
मैंने कहा, ”कल मैं एक बगीचे में गया था. कुछ साथी साथ थे. एक को प्यास लगी थी. उसने बाल्टी कुएं में डाली. कुआं कुछ गहरा था. बाल्टी खींचने में श्रम पड़ा पर बाल्टी जब लौटी तो खाली थी. सब हंसने लगे.”
”मुझे लगा, यह बाल्टी तो मनुष्य के मन जैसी है. उसमें छेद ही छेद थे. बाल्टी नाममात्र की थी, बस छेद ही छेद थे. पानी भरा था, पर सब बह गया. ऐसे ही मन भी छेद ही छेद है. इस छेद वाले मन को कितना ही प्रभु की ओर फेंकों, वह खाली ही वापस लौट आता है.
”मित्र पहले बाल्टी ठीक कर लें फिर पानी खींच लेना एकदम आसान है. हां, छेद वाली बाल्टी से तपश्चर्या तो खूब होगी, पर तृप्ति नहीं हो सकती है.”
”और स्मरण रहे कि प्रभु न कृपालु हैं, न अकृपालु. बस आपकी बाल्टी भर ठीक होनी चाहिए. कुआं तो हमेशा पानी देने को राजी होता है. उसकी ओर से कभी कोई इनकार नहीं है.”
ओशो के पत्रों के संकलन ‘क्रांतिबीज’ से. प्रस्तुति – ओशो शैलेंद्र
सही है! मरम्मत भी जरूरी है बाल्टी की। 🙂
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मन में भरे अविश्वास के सारे छेद बंद करते ही ईश्वर का प्रेम सारी प्यास भर देता है।
वरेण्य प्रस्तुति,गहरा भाव…
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बाल्टी की मरम्त में ही जीवन निकला जा रहा है, छेद ही छेद।
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bahut gehri baat…….. “nector in sleeves”……. kuch aise hee…. yaad nahin aa raha english mein novel tha 2nd year.
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इस छिद्र को ही बंद्कर पाना ही मुश्किल है..हम इसी प्रयास में सारी जिन्गगी बीतादेते है..सार्थक पोस्ट..धन्यवाद….
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bahut barhiya.aapaki post dekh kar man ko shanti milti hai
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बहुत अच्छी कहानी है
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baat samajh mein nahi aaee
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