सत्य वचन – एपिक्टेटस (1)

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एपिक्टेटस (जन्म वर्ष 55 – मृत्यु  वर्ष 135) यूनानी महात्मा और स्टोइक दार्शनिक थे. उनका जन्म वर्तमान तुर्की में एक दास परिवार में हुआ था. उनके शिष्य आरियन ने उनकी शिक्षाओं को संकलित किया जिन्हें ‘उपदेश’ कहा जाता है. एपिक्टेटस ने बताया कि दर्शन केवल सैद्धांतिक ज्ञान नहीं बल्कि जीवन जीने का तरीका है. नियति ही सब कुछ निर्धारित और नियंत्रित करती है अतः मनुष्य उसे भोगने को विवश है पर हम उसे निरपेक्ष और शांत रहकर स्वीकार कर सकते हैं. अपने कर्मों के लिए हम ही उत्तरदायी हैं एवं कठोर आत्मानुशासन द्वारा हम उन्हें सुधार सकते हैं. जो कुछ भी हमारी सीमा में है उसे नज़रंदाज़ करने पर या अपनी सीमा के परे स्थित चीज़ों को नियंत्रित करने का प्रयास करने पर दुःख उत्पन्न होता है. संपूर्ण विश्व एक नगर की भांति है और हम सभी उसके रहवासी हैं, इसलिए यह हमारा कर्तव्य है कि हम एक दूसरे का हितचिंतन करें. एपिक्टेटस की शिक्षाओं को अंगीकार करनेवाला व्यक्ति सुख-शांति पाता है.

एपिक्टेटस की सूक्तियों का अनुवाद करना सरल नहीं है इसलिए यहाँ यथासंभव सरल भाषा का प्रयोग किया गया है. यह उनकी सूक्तियों के संकलन की पहली कड़ी है.

1. प्रसन्नता का एक ही मार्ग है, और वह यह है कि हम उन विषयों की चिंता न करें जो हमारे संकल्प और शक्तियों के परे हैं.

2. संपन्नता अधिकाधिक अर्जन में नहीं बल्कि अल्प आवश्यकताओं में निहित है.

3. यदि तुम स्वयं में सुधार लाना चाहते हो तो दूसरों की दृष्टि में मूढ़ ही बने रहने से परहेज़ न करो.

4. अपने दर्शन की व्याख्या नहीं करो, उसे जियो.

5. उन व्यक्तियों के साथ संयुक्त रहो जो तुम्हें ऊपर उठाते हों एवं जिनकी उपस्थिति में तुम अपना सर्वोत्कृष्ट दे सको.

6. यदि कोई तुम्हें बताये कि अमुक व्यक्ति तुम्हारे बारे में बुरा कह रहा है तो उसका प्रतिवाद मत करो, बल्कि उससे कहो, “हाँ, वह मेरे अन्य दोष नहीं जानता अन्यथा उसने उनका भी उल्लेख किया होता”.

7. दूसरों की धारणाएं एवं समस्याएं संक्रामक हो सकती हैं. उन्हें अनजाने में ही अपनाकर स्वयं की हानि मत करो.

8. जो व्यक्ति स्वयं पर हँस सकता हो उसे हँसने के लिए विषयों की कमी कभी नहीं होती.

9. अपनी दुर्दशा के लिए दूसरों को उत्तरदायी ठहराने से यह पता चलता है कि व्यक्ति में सुधार की आवश्यकता है. स्वयं को दोषी ठहराने से यह पता चलता है कि सुधार आरंभ हो गया है. और किसी को भी दोषी नहीं ठहराने का अर्थ यह है कि सुधार पूर्ण हो चुका है.

10. कुछ भी कहने से पहले तुम उसका अर्थ समझ लो, फिर कहो.

11. परिस्थितियां मनुष्य का निर्माण नहीं करतीं. वे तो उसे स्वयं से परिचित कराती हैं.

12. मनुष्य वास्तविक समस्याओं के कारण नहीं बल्कि उनके बारे में अपने दिमागी फितूर के कारण चिंतित रहता है.

13. संकट जितना गहन होता है, उसे विजित करने पर प्राप्त होनेवाला गौरव उतना ही विशाल होता है. तूफानों और झंझावातों का सामना करने से ही नाविकों का कौशल प्रकट होता है.

14. तुम्हारे भीतर क्रोध उत्पन्न करनेवाला व्यक्ति तुमपर विजय प्राप्त कर लेता है.

15. यदि कोई तुम्हें बुरा कहे, और वह बात सत्य हो, तो स्वयं में सुधार लाओ. यदि वह झूठ हो तो उसे हंसी में उड़ा दो.

16. बाहरी वस्तुओं में श्रेष्ठता मत खोजो, वह तुम्हारे भीतर होनी चाहिए.

17. ईश्वर या तो बुराई को मिटा सकता है या नहीं मिटा सकता… या वह मिटा सकता है, पर मिटाना नहीं चाहता.

18. वह मनुष्य स्वतंत्र नहीं है जो स्वयं का स्वामी नहीं है.

19. एक दिन मैं मर जाऊँगा. तो क्या मैं विलाप करते हुए मरूं? मुझे कभी बेड़ियों में जकड़ दिया जाए तो क्या मैं उसका भी शोक मनाऊँ? यदि मुझे कभी देशनिकाला भी मिल जाए तो क्या मैं अपनी मुस्कुराहटों, प्रसन्नता, और संतुष्टि से भी वंचित कर दिया जाऊं?

20. तुम नन्ही आत्मा हो जो एक शव का बोझा ढो रही है.

There are 17 comments

  1. राहुल सिंह

    19 और 20, अलग-अलग नजरिया, लगता नहीं कि एक ही व्‍यक्ति की एक साथ कही बातें हैं.
    पहले दो बिन्‍दुओं को इस तरह पढ़ कर देखे, आशय बदल तो नहीं रहा है और क्‍या इस तरह कहने में कम शब्‍दों में अधिक स्‍पष्‍ट हो रहा है-
    1. प्रसन्नता का एक ही मार्ग है, और वह यह है कि हम उन विषयों की चिंता न करें जो हमारे संकल्प और शक्तियों के परे हैं.
    के बजाय ”अपने संकल्प और शक्तियों के परे विषयों की चिंता न कर, प्रसन्‍नता का मार्ग प्रशस्‍त करें”.
    2. संपन्नता अधिकाधिक अर्जन में नहीं बल्कि अल्प आवश्यकताओं में निहित है.
    के बजाय ”संपन्नता, अल्प आवश्यकताओं में निहित है न कि अधिकाधिक अर्जन में”.

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    1. Nishant

      आपने सही कहा.
      बात घूम-फिर कर फिर से सन्दर्भों पर जाकर अटकेगी.
      अनुवाद सम्बन्धी आपके सुधार प्रशंसनीय हैं. संभवतः मेरी जो शैली विकसित हो गयी है, उससे बाहर मैं प्रयास और परख नहीं करता हूँ. कोशिश यह भी रहती है कि वाक्यों में अल्पविराम लगाने से बचा जाए और लम्बे वाक्यों को तोड़ दिया जाए.

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  2. सुज्ञ

    कहीं से भी दर्शन-शास्त्र देखें नैतिक उपदेश एक समान उपलब्ध होते है। सत्य वाकई एक है।
    1-समता, 2-संयम, 3-सरलता, 4-पुरूषार्थ, 5-सत्संग, 6-समभाव, 7-बुरी संगत दोष, 8-सहजता, 9-शुद्धिकरण, 10-विवेक-वाणी, 11-सकारात्मकता, 12- नकारात्मक चिंतन दोष, 13-क्षमता-सामर्थ्य, 14-निरावेश, 15-आत्मावलोकन 16-आत्मोत्थान, 17-निरपेक्ष भाव, 18-मोह बंधन, 19-आर्त-ध्यान, 20-आत्मबोध(शरीर से भिन्न है आत्मा)

    सार्थक सद्विचार (सुक्तियाँ)

    सार्थक सद्विचार!!

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  3. shilpamehta1

    कितने सुन्दर और सरल सूत्र हैं, और पता नहीं क्यों हम इन सूत्रों पर चल नहीं पाते !!

    सुज्ञ भाई ने कितने इफेक्टिव शोर्ट्फोर्म्स बना दिए !!

    क्या आप मुझे बता सकते हैं कि वर्डप्रेस में “ब्लॉग फोलोवर” कैसे बना जाए ?

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    1. Nishant Mishra

      धन्यवाद शिल्पा जी.
      यह ब्लौग वर्डप्रेस पर बनाया गया है. इसमें ब्लौगर वाले फौलोवर्स को शामिल करने या वह सुविधा देने का विकल्प नहीं है.
      यदि आप वैसा केवल नई पोस्ट की जानकारी के लिए चाहते हैं तो ईमेल से पोस्ट सब्स्क्राइब करना ठीक रहेगा जिसका तरीका साइडबार में बताया गया है.
      या आप फेसबुक पर इसे Like करें तो इसकी नई पोस्ट आपकी wall पर दिखने लगेंगीं.

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  4. vijaykumar

    निशांत भाई ,
    नमस्कार .
    बहुत अच्छी पोस्ट, मैंने इसे अभी अपने घर में पढकर सुनाया , सभी को बहुत पसंद आई है .. आप निसंदेह रूप से बहुत अच्छा कार्य कर रहे है .. कृपया इसे “हृदयम” [ http://www.facebook.com/groups/vijaysappatti/ ] पर पोस्ट करे , ताकि और अधिक लोगो तक ये बाते पहुंचे और अगर एक भी व्यक्ति के जीवन में इन बातो कि वजह से कोई बदलाव आये तो , यही हमारी सच्ची उप्लब्दी होंगी .
    आभार
    विजय

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