जापान में ओबाकू के मंदिर में प्रवेश करनेवाले व्यक्तियों को मंदिर के मुख्य द्वार पर “प्रथम नियम” के शब्द उत्कीर्ण दिखते हैं. इसके अक्षर सामान्य से काफी बड़े हैं और सुलेखन (कैलीग्राफी) के मर्मज्ञ इन्हें सर्वोत्कृष्ट या मास्टरपीस बताते हैं. इन शब्दों को कोसेन ने दो सौ वर्ष पूर्व उत्कीर्ण किया था.
कोसेन ने इन अक्षरों को पहले कागज़ पर उकेरा, जिनसे कारीगरों ने लकड़ी के बड़े-बड़े ब्लॉक बनाए. कोसेन के कार्य पर निगरानी रखने के लिए ज़ेन गुरु ने अपने एक प्रतिभावान एवं निर्भीक शिष्य को तैनात कर दिया. शिष्य ने कोसेन के लिए बहुत सारी स्याही तैयार करवाई और उसके हर काम में भरपूर मीनमेख निकालता रहा.
“नहीं. यह ठीक नहीं बना है”, उसने कोसेन के पहले सुलेख को देखकर कहा.
“अब कैसा है?”
“उफ़! यह तो पहले से भी बदतर है!”, शिष्य ने कहा.
कोसेन अत्यंत धैर्यपूर्वक बड़े-बड़े कागजों पर एक के बाद एक सुलेख तैयार करता गया. अब तक वह “प्रथम नियम” के चौरासी सुलेख तैयार कर चुका था पर उनमें से एक को भी उस शिष्य का अनुमोदन नहीं मिला.
किसी काम से बाहर निकलने के लिए जब शिष्य ने कमरे से बाहर कदम बढ़ाए तो कोसेन ने सोचा, “उसकी नज़र बचाकर लिखने का यही एक अवसर है”. और उसने मन में कोई भी विचार लाये बिना तत्परता से निष्प्रयास ही अपना ब्रश चला दिया.
कोसेन के बनाए हुए इस “प्रथम नियम” को देखते ही शिष्य ने सर्वोत्कृष्ट कहकर अनुमोदित कर दिया.
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When one goes to Obaku temple in Kyoto he sees carved over the gate the words “The First Principle.” The letters are unusually large, and those who appreciate calligraphy always admire them as being a masterpiece. They were drawn by Kosen two hundred years ago.
When the master drew them he did so on paper, from which workmen made the larger carving in wood. As Kosen sketched the letters a bold pupil was with him who had made several gallons of ink for the calligraphy and who never failed to criticize his master’s work.
“That is not good,” he told Kosen after the first effort.
“How is that one?”
“Poor. Worse than before,” pronounced the pupil.
Kosen patiently wrote one sheet after another until eighty-four First Principles had been accumulated, still without the approval of the pupil.
Then, when the young man stepped outside for a few moments, Kosen thought: “Now is my chance to escape his keen eye,” and he wrote hurridly, with a mind free from disctraction. “The First Principle.”
“A masterpiece,” pronounced the pupil.
सहज के सौंदर्य की परीक्षा नहीं ली जाती.
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सहज से लगने वाले कार्यों के पीछे वर्षों का श्रम छिपा होता है।
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महा मेधावी की परीक्षा कैसी? यह तो उसे बंधन में बाधने जैसा था …
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धन्यवाद अरविन्द जी. शिष्य कोसेन की परीक्षा नहीं ले रहा था. वह केवल यह चाहता था की कोसेन अपना कार्य दक्षता नहीं अपितु सहजता से करे.
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इस कहानी से हमने यह सीखा :
हमारे मस्तिष्क की रचना ऐसी है कि यदि किसी गलती की संभावना के प्रति ज्यादा सजगता बरतते हैं तो वह गलती हो ही जाती है। सहज ढंग से काम करें तो दबाव कम रहता है और परिणाम बेहतर होते हैं।
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‘सहज पके सो मीठा होय’ को चरितार्थ करता यह प्रसंग !
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सहजता से किया गया कार्य ही सर्वोत्कृष्ट होता है।
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Nice Post……..
Thanks
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पाठ और टिपण्णी मिल महत प्रेरणा दे गए…
आभार..
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तभी एक अध्यनशील व्यक्ति की ब्लॉगिंग उसके तराशे गये लेखन से कहीं बेहतर है! 🙂
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atisundar sobhagya se mai is mandir me ja rakha hun dekhne se jyada aapke lekh me mandir ki visishtta ka pata chalta hai thankss…
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काम ही सहजता से नहीं किये जाने चाहिए बल्कि जीवन भी सहजता से जिया जाना चाहिए |
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अच्छी रचना बनाने के दबाव में अक्सर रचना अच्छी नहीं बनती।
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you look more ugly when you pretend to show something different than your real nature.
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मैंने जब-जब जबरदस्ती लिखने की कोशिश की तब-तब घटिया लिखा।
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सहजता से किया गया कार्य ही सर्वोत्कृष्ट होता है।
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तनाव मुक्ति = सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति!
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