मैं मानसिक रुग्णालय के उद्यान में टहल रहा था. वहां मैंने एक युवक को बैठे देखा जो तल्लीनता से दर्शनशास्त्र की पुस्तक पढ़ रहा था.
वह युवक स्वस्थ प्रतीत हो रहा था और उसका व्यवहार अन्य रोगियों से बिलकुल अलग था. वह यकीनन रोगी नहीं था.
मैं उसके पास जाकर बैठ गया और उससे पूछा, “तुम यहाँ क्या कर रहे हो?”
उसने मुझे आश्चर्य से देखा. जब वह समझ गया कि मैं डॉक्टर नहीं हूँ तो वह बोला:
“देखिये, यह बहुत सीधी बात है. मेरे पिता बहुत प्रसिद्द वकील थे और मुझे अपने जैसा बनाना चाहते थे.”
“मेरे अंकल का बहुत बड़ा एम्पोरियम था और वह चाहते थे कि मैं उनकी राह पर चलूँ”.
“मेरी माँ मुझमें हमेशा मेरे मशहूर नाना की छवि देखतीं थीं”.
“मेरे बहन चाहती थी कि मैं उसके पति की कामयाबी को दोहराऊँ”.
“और मेरा भाई चाहता था कि मैं उस जैसा शानदार एथलीट बनूँ”.
“और यही सब मेरे साथ स्कूल में, संगीत की कक्षा में, और अंग्रेजी की ट्यूशन में होता रहा – वे सभी दृढ़ मत थे कि अनुसरण के लिए वे ही सर्वथा उपयुक्त और आदर्श व्यक्ति थे.”
“उन सबने मुझे एक मनुष्य की भांति नहीं देखा. मैं तो उनके लिए बस एक आइना था.”
“तब मैंने यहाँ भर्ती होने का तय कर लिया. आखिर यही एक जगह है जहाँ मैं अपने स्वत्व के साथ रह सकता हूँ”.
(खलील जिब्रान की कहानी)
वह सभ्यता धिक्कृत है जो व्यक्ति को स्वत्व के साथ केवल मेण्टल असाइलम में जीने देती है। 😦
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वाह क्या आईडिया है, और अपनी खोज तो शायद मानसिक रूगणालय में ही की जा सकती है और शायद भगवान की भी।
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जीवन में, अपना ज्ञान परखने के मौके पर, सब का अपना हक है|
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ज़िब्रान की यह बात आज भी लागू है. कितने मां बाप हैं जो बच्चे से पूछते हों कि ‘तुम क्या बनना चाहते हो’
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कितनी आशाओं का केन्द्र का वह, लेकिन यह उसके लिए प्रोत्साहन न बन सका, ऐसे कमजोर सोच के व्यक्ति के लिए यही उपयुक्त स्थान था.
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ठीक कहा आपने. जिसको वास्तव में कुछ करना होता है, वह कहीं भी करके दिखा सकता है. विपरीत परिस्थितियों में तो संकल्प और भी मज़बूत होता है. पलायन करने वाले को भागने का बस बहाना चाहिए. उसके लिए पागलखाने में भी जगह नहीं होनी चाहिए.
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जीवन का सच, सीधे शब्दों में।
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दुनिया पागल है या फिर मैं दीवाना!
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SUPER
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उफ़……
सत्य है….असंख्य जीवन की त्रासदी है यह…
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अपने स्वत्व के साथ रह पाना आज की दुनिया में बहुत मुश्किल है लेकिन असम्भव नहीं……
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