कुछ सप्ताह पहले मुझे अपने फूफाजी के गुज़र जाने का दुखद समाचार मिला. उससे पहले मेरे पिताजी के एकमात्र चचेरे भाई चल बसे. बीते कुछ सालों में मेरा परिवार कितना सिकुड़ गया! कई दफा ऐसा भी हुआ कि परिवार में जिन्हें कम दिनों का मेहमान मानते थे वे बने रहे और भले-चंगे संबंधी चल बसे. इसे विधि की विडम्बना मानकर दिलासा दे बैठते हैं कि परिवार के बड़े-बूढ़े तमाम रोगों और कमज़ोरियों के बाद भी बने रहते हैं और घर का कोई नौजवान पता नहीं किस बहाने से सबसे दूर चला जाता है.
पिछले पांच सालों में मेरे दोनों बच्चों का और मेरी बहन के घर में बच्चों का जन्म हुआ. लेकिन अब परिवार बढ़ता कम है और सिकुड़ता ज्यादा है. यह कोई मेरे घराने की ही बात नहीं है. कमोबेश, हर परिवार में यही हो रहा होगा.
मैं दिल्ली में नौकरी करने के कारण अपने गृहनगर भोपाल कम ही जा पाता हूँ. मोबाइल फोन पर तो माता-पिता से संपर्क बना ही रहता है. साल में एक-दो बार जब वहां जाता हूँ या जब वे यहाँ आते हैं तब अनायास ही कितने ही परिजनों और परिचितों के गुज़र जाने का समाचार मन में उदासी भर देता है. सबसे बुरा तो यह सोचकर लगता है कि माता-पिता अपने हमउम्र लोगों को एक-एक कर साथ छोड़ते देखते रहते हैं और इसका उनकी मनःस्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है.
अपनी अनश्वरता का बोध होने पर मनुष्यों में गहन आतंरिक परिवर्तन आता है हांलांकि यह आत्मविकास का कोई मापदंड नहीं है. जीवन-मरण तो सब विधि के हाथ है पर जीवन की नश्वरता का विचार मानव मन में मृत्यु का अस्वीकरण, भय, क्रोध, मनोव्यथा, खेद, और अंततः अपराजेय शत्रु के हाथों मिलनेवाली पराजय को स्वीकार करने की भावना को जन्म देता है.
अपने बड़े कुनबे में मैंने ऐसे बहुत से बुजुर्ग देखे हैं जो उदास ख़ामोशी से अपने अंत समय के करीब पहुंचते जाते हैं. इंटरनेट पर मृत्यु का सामना कर रहे लोगों के कई फोरम भी मैंने तलाशे. उनमें मैंने यह पाया कि अधिकांश व्यक्ति गंभीर रोगों से ग्रस्त रहते हैं और उनका अपना कोई भी नहीं है. ये वृद्धाश्रम या होस्पिस में अपने जैसे लोगों के बीच अपने आखिरी दिन काट रहे हैं. शुक्र है कि भारत में हालात अभी इतने खराब नहीं हैं लेकिन हाल में ही हमने ऐसे कई समाचार सुने जिनमें अकेले पड़ गए बुजुर्गों के साथ बड़ी बुरी गुज़री. किसी-किसी मामले में तो पड़ोसियों को भी उनके चल बसने का पता कई दिन बाद चला.
मेरे एक विदेशी ब्लॉगर मित्र ने ऐसे ही एक स्थान पर कई साल प्रशामक उपचार (palliative care) का काम किया है और अपनी एक पोस्ट में उसने ऐसे व्यक्तियों से होनेवाली चर्चा के निष्कर्षों को लिखा था. अपने बीत चुके जीवन के बारे में पूछे जाने पर वे सभी बहुधा एक जैसी ही शब्दावली और थीम में अपने मन का गुबार निकालने लगते हैं. जिन बातों का ज़िक्र वे आमतौर पर करते हैं वह ये हैं:
1. काश मैंने जीवन अपने मुताबिक़ जिया होता – यह अफ़सोस करने की सबसे आम बात है. जब लोगों को यह लगने लगता है कि उनका जीवन लगभग पूर्ण हो चुका है और वे पीछे मुड़कर देखते हैं तो उन्हें स्पष्ट दिखता है कि उनकी बहुत सी इच्छाएं और सपने तो कभी पूरे नहीं हुए. ज्यादातर लोग तो अपनी ज़िंदगी में तो अपना सोचा हुआ आधा भी साकार होता नहीं देख सके और उन्हें अपने मन को यह समझाना बहुत कठिन था कि इस सबका सम्बन्ध उनके चुनाव से था. ऐसे में यह बहुत महत्वपूर्ण है कि जीवन में जो कुछ भी अच्छा मिले उसके महत्व को सराहा और स्वीकार किया जाए. जब स्वास्थ्य गिरने लगता है तब तक तो बहुत देर हो चुकती है. अच्छा स्वास्थ्य स्वयं में बहुत बड़ी स्वतंत्रता है जिसका भान कम लोगों को ही होता है. जीवन की संध्या में स्वास्थ्य के बिगड़ जाने पर उसमें सुधार की बहुत गुंजाइश नहीं होती.
2. काश मैंने इतनी मेहनत नहीं की होती – अधिकांश पुरुष यह खेद व्यक्त करते हैं. उन्हें अफ़सोस होता है कि वे अपने बच्चों और परिवार को अधिक समय नहीं दे सके. पश्चिमी देशों में परिवार में गहरा भावनात्मक जुड़ाव नहीं होना भी इसका एक कारण है. कई स्त्रियाँ भी यही खेद व्यक्त करतीं हैं. अभी मैं देखता हूँ कि भारत में 1990 के बाद काम में जी जान से जुटी युवा पीढ़ी अभी उम्र के इस दौर में नहीं पहुंची है कि उसे हाड़तोड़ मेहनत करने का अफ़सोस होने लगे पर वह दिन बहुत अधिक दूर भी नहीं हैं. जैसे-जैसे जीवन अधिक मशीनी होता जाएगा, संवेदनाएं शून्य होती जायेंगीं और आत्मिक शांति और संतोष के विकल्प या तो समाप्त हो जायेंगे या उन्हें अपनाना अत्यंत कठिन हो जाएगा. इसलिए अपने जीवन में आज से ही work-life balance स्थापित कर लेना चाहिए.
3. काश मुझमें स्वयं को व्यक्त करने की शक्ति होती – बहुत से लोग दूसरों को नाराज़ नहीं करने के लिए अपने मन को मसोसते रहते हैं. परिणामस्वरूप, वे दोयम दर्जे की ज़िंदगी बिताते हैं और उन्हें वह सब नहीं मिल पाता जो उनका हक होता है. ऐसे लोग भीतर ही भीतर घुलते जाते हैं और अवसाद का शिकार हो जाते हैं. मैंने ऐसे कई वृद्ध जनों को देखा हैं जिनमें दूसरों के लिए बेतरह कड़वाहट होती है और कोई भी उनके पास फटकना नहीं चाहता. यदि आप लोगों से वार्तालाप और संबंधों में पूरी ईमानदारी बरतते हैं तो स्वार्थी लोग भले आपसे नाता तोड़ लें पर बहुत से लोगों से आपके स्वस्थ संबंध स्थापित होते हैं. अब या तो आप हमेशा दूसरों के मन मुताबिक़ चलते रहें या दूसरों के कहने में आकार अपने सुख-शांति को तिलांजलि देते रहें.
4. काश मैं अपने दोस्तों से कभी दूर न जाता – बहुत से लोग दोस्ती-यारी कायम रखने और उसे निभाने को तरजीह नहीं देते. एक उम्र गुज़र जाने के बाद सभी अकेले पड़ जाते हैं. बच्चे अपनी-अपनी राह पर चल देते हैं. परिवार में कोई भी दो घड़ी साथ नहीं बैठना चाहता. ऐसे में करीबी लोगों की कमी खलने लगती है. पुराने दोस्त सब यहाँ-वहां हो जाते हैं और उनकी खोजखबर रखना कठिन हो जाता है. वृद्ध व्यक्तियों को साहचर्य की बड़ी गहरी आवश्यकता होती है. जो व्यक्ति पूरी तरह अकेले रह जाते हैं उन्हें अपने दोस्त नहीं होने का गम सालता रहता है. आनेवाले कठिन समय में तो सभी को अकेलेपन की दिक्कतों से दो-चार होना पड़ेगा इसलिए सभीको अपनी दोस्ती-यारी बरकरार रखनी चाहिए. वर्तमान जीवनशैली में अपने दोस्तों से कट कर रह जाना एक सामान्य बात हो गयी है. उम्र के आख़िरी दौर में आर्थिक या सामाजिक हैसियत का उतना महत्व नहीं होता जितना व्यक्ति के संबंधों का होता है. सिर्फ प्यार और अपनापन ही बुजुर्गों को संयत रखने में सक्षम है.
5. काश मैंने खुद को खुश होने के मौके दिए होते – यह भी बड़ी अजीब बात है. अंत समय तक भी बहुत से लोग यह नहीं जान पाते कि खुश रहना हमारे ऊपर ही निर्भर करता है. मैं अपने आसपास बहुत से वृद्धजनों को देखता हूँ जो बड़ी बोझिल ज़िन्दगी जी रहे हैं. ऐसे लोग हमेशा पुराने पैटर्न पर चलते हुए अपनी ज़िन्दगी बिताते रहे. किसी भी बदलाव का उन्होंने हमेशा विरोध किया. सारी दुनिया आगे चली गयी और वे पीछे रह गए. बाहरी तौर पर तो वे सभी को यह जताते रहे कि उनके भीतर आत्मिक संतोष है पर वास्तविकता में वे खिन्नता से भरे हुए थे. उनका मन भी यह करता रहता था कि वे भी बाहर की रौनक में अपना मन बहलायें पर कुछ तो संकोच और कुछ अकड़ के कारण वे लोगों में घुलने-मिलने और आनंदित होने के अवसर चूकते रहे. दूसरी ओर मैं ऐसे भी कुछ बुज़ुर्ग देखता हूँ जो जोश और जिंदादिली से भरपूर हैं और नयी पीढ़ी के साथ कदम से कदम मिलकर चलते हैं. ऐसे लोग यह जानते हैं कि जीवन और खुशियाँ भी हमें विकल्पों के रूप में मिलती हैं. पूरे होश-ओ-हवास, ईमानदारी, और बुद्धिमानी से अपने हिस्से की खुशियाँ बटोर लेना ही सबके हित में है अन्यथा मृत्युपर्यंत खेद होता रहेगा.
समय रहते चेत जाने वाली बातें.
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बहुत अच्छी बातें। सहेजने लायक।
आज से ही इन्हें गाँठ में बाँध लेता हूँ। आभार।
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बहुत ही अच्छा और मन को छु लेने वाला लेख. कहीं न कहीं हर आदमी की ज़िन्दगी की सच्चाई बयां करता हुआ.सही बात है की ज़िन्दगी की शाम ढलने पे ही लोगों को ये अंदाज़ा होता है की ज़िन्दगी कितनी खूबसूरत है और हमने क्या खो दिया है.बहुत बहुत धन्यवाद इस अच्छे पोस्ट के लिए…
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While reading it I was feeling as if I am reading my own biography . I appreciate how nicely you have written about the feelings of an old person. God has given you this gift . I am 62 years old cardiac patient retired from a bank . Only exception I found is that I will relive the life same way as I have lived in the past. I have no regrets in life though Hazaron khwahishen aisee ki har khwahish pe dam nikle……
With regards
J.K.Sharma
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Hats off to you, Sir!
मेरा यह यकीन है कि खुश-नाखुश होना हमारे ही हाथ में है. फैज़ ने नाउम्मीदी और नाकामी पर क्या खूब कहा है:
दिल नाउम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है,
लंबी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है.
Thanx for your inspiring comment.
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जीवन-मरण तो सब विधि के हाथ है .. पर जो अपने हाथ में है .. वो तो करना ही चाहिए .. अच्छी पोसट !!
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Aaj Lalitji ke lekh mein aapke blog ka jikr padha, yahan aakar aapka likha sabse navntam lekh padha, abhi tak, gehan soch va khuli aankhon ki parinati hai ye lekh, padhkar achha laga.
Shubhkamnayen
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बहुत दिनों पहले एक एस एम एस मिला था:
यदि आपके साथ हर कोई खुश है
तो फिर निश्चित रूप से आपने जीवन में कई समझौते किये हैं
और
अगर आप सबके साथ खुश हैं
तो निश्चित रूप से आपने दूसरों द्वारा की गई कई गलतियाँ की उपेक्षा की है
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निशांत भाई आदमी नाम का जीव कुत्ते की पूँछ की माफिक होता है. रहेगा हमेशा अपनी जिद, सनक और गुरूर में जो उसकी उपलब्धियों से धीरे धीरे रिसती है. क्या आपने कभी नीली या लाल बत्ती वालो को किसी से तमीज से बात करते हुए देखा है ? ये अलग बात है कि जीवन से पिट जाने के बाद पहुचते शमशान के सूने तट पर ही है.
निशांत भाई आपने ने अगर श्रीमद भगवदगीता को ध्यान से पढ़ा है तो आपको ये रहस्य समझ में आएगा कि क्यों मनुष्य विवश है उसी तरह से नाचने पर जैसे मदारी के डमरू पर एक बन्दर. जो समझदार है या जिनपर ईश्वर की कृपा होती है वो एक बैलेंस बना लेते है बाकी अपनी उपलब्धियों और औकात का नगाड़ा बजाते बजाते पहले मृत्यु शैया पर जा पड़ते है और फिर हमेशा के लिए पानी के एक छोटे बुलबुले की तरह सदा के लिए गुमनामी के सागर में विलीन हो जाते है.
वैसे निशांत भाई श्लोक नहीं पोस्ट करूँगा. हां आपको बता देता हू की जरा गीताजी का सातवे अध्याय का श्लोक नम्बर 13 और 14 और अट्ठारवे अध्याय का श्लोक नंबर 61 देखे. आपको समझ में आ जाएगा कि क्यों मनुष्य और कुत्ते की पूँछ में कोई फर्क नहीं.
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प्रिय अरविन्द, महत्वपूर्ण कमेन्ट के लिए आपका आभार.
स्पष्ट कर दूं कि मैंने श्रीमद्भागवद्गीता का सतही अध्ययन ही किया है. आपके सुझाए श्लोक मैं इस कमेन्ट में प्रस्तुत कर रहा हूँ. इनसे सभी को लाभ होगा:
इन तीन गुणों के भाव से यह सारा जगत मोहित हुआ, मुझ अव्यय और परम को नहीं जानता।
गुणों का रूप धारण की मेरी इस दिव्य माया को पार करना अत्यन्त कठिन है।
लेकिन जो मेरी ही शरण में आते हैं वे इस माया को पार कर जाते हैं।
हे अर्जुन, ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में विराजमान हैं और अपनी माया द्वारा सभी जीवों को भ्रमित कर रहे हैं, मानो वे (प्राणी) किसी यन्त्र पर बैठे हों।
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बड़ा ही विचारों को उद्वेलित कर गया आपका लेख। काश हम जीवन जी लें।
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अपनी जिन्दगी का ट्रैक बदलना चाहिये, यह सभी सोचते हैं कभी न कभी। पर जब सोचते हैं तो बदलने से भय भी बहुत लगता है। और सामान्यत: उसी लीक पर चलते रह जाते हैं!
जिन्दगी में परिवर्तन को फेस करना जीवट का काम है, और परिवर्तन कर डालना तो बस नायक बन जाना है!
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जिन्दगी उसी की है ,जो झेलले जिन्दगी ,
सबको रास्ता देती नहीं जिन्दगी ,
बहुत बडिया लिखा आपने हर बार की तरह ,
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सभी के जीवन में ऐसी आत्म प्रवंचना के क्षण कभी न कभी आते ही हैं -तब राहत के लिए उसका आधात्मिक झुकाव ,चिंतन की परिपक्वता ही काम आती है ..मगर यह अचानक ही तो आती नहीं -इस ओर कुछ तो प्रारब्ध और कुछ सतसंगत का असर होता है -इसी सत संगत के लिए हम भी यहाँ आते रहते हैं !
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बहुत ही अच्छी पोस्ट ! जीवन के कई अर्थों को सहज ही मे समेटती हुई .. ओशो रजनीश की एक पुस्तक ’ मरो हे जोगी मरो ’ मे एक कविता मुझे अक्सर जीवन के मायने तलाशती हुई लगती है .
चाहता हूँ , पुष्प यह
गुलदान का मेरे
न मुर्झाये कभी ,
देता रहे
सौरभ सदा
अक्षुण्ण इसका
रुप हो!
पर यह कहाँ संभव ,
कि जो है आज,
वह कल को कहाँ ?
उत्पत्ति यदि,
अवसान निशिचत!
आदि है
तो अंत भी है !
यह विवशता !
जो हमारा हो ,
उसे हम रख न पायें !
सामने अवसान हो
प्रिय वस्तु का,
हम विवश दर्शक
रहे आयें!
नियम शाशवत
आदि के,
अवसान के ,
अपवाद निशचय ही
असंभव-
शूल सा यह ज्ञान
चुभता मर्म में,
मन विकल होता!
प्राप्तियां, उपलबिधयां क्या
दीन मानव की,
कि जो
अवसान क्रम से,
आदि -क्रम से
हार जाता
काल के
रथ को
न पल भर
रोक पाता !
क्या अहं मेरा
कि जिसकी तृष्टि
मैं ही न कर पाता !
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निशांत जी ,नमस्कार
ललित जी की आज की पोस्ट पड़ते-पड़ते आप की पोस्ट पर आ गया |
आ कर अच्छा लगा |आप की पोस्ट की बाते मेरी भुगती हुई हैं| पर मैं किसी पोस्ट पर अपने को टिप्पणी लायक नही मानता |क्यों..? पर एक बात अपनी ,और अपने ही सरल शब्दों में केहना चाहूँगा …
“इतना भी कमजोर नही था मैं
जो मैं अपनों से हारा ,
मैं तो हारा यार के गम में
मुझ को तो यार की कमी ने मारा” |
खुश रहें और स्वस्थ जीवन जियें !
आशीर्वाद!
अशोक सलूजा !
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विचारोत्तेजक आलेख।
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@–पूरे होश-ओ-हवास, ईमानदारी, और बुद्धिमानी से अपने हिस्से की खुशियाँ बटोर लेना ही सबके हित में है अन्यथा मृत्युपर्यंत खेद होता रहेगा….
यही कोशिश रहती है निशांत जी की , की खुश रह सकूँ और खुशियाँ बाँट सकूँ। अभी तक तो ह्रदय में कोई खेद नहीं है फिर भी शायद मृत्यु के करीब आने तक मुझमें और परिपक्वता आ सके।
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Nishant,
main aapke blog ka follower hun aur agar ghar pe time nahi milta to mobile main aapki entries pad leta hun… ye post wakai ek chetna hai… iska koi original source ho to kripiya vo bhi share karen…
dhanyawaad…
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धन्यवाद अतुल. जैसा मैंने पोस्ट में कहा है, आइसलैंड में मेरी एक मित्र नर्स ने बहुत पहले मुझे इस विषय पर मेल लिखीं थीं. उसके लिखे कुछ बिन्दुओं को मैंने व्याख्यायित किया है. यदि आप इंटरनेट पर खोजेंगे तो आपको इससे मिलती जुलती कई पोस्टें मिल सकतीं हैं क्योंकि दुनिया में लाखों लोग किसी विषय पर एक जैसा ही चिंतन-मनन कर रहे होते हैं.
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निशांत जी [जिन्दगी की शाम] एक सच है पर इसी जिन्दगी में कई खुशहाल सुबह भी तो रही है
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सब सच है. बचपन की खुशहाल और अलसाई भोर सच है. जवानी की तीखी धूप सच है. बुढ़ापे की उदास शाम सच है… पर यह ज़रूरी नहीं कि भोर अलसाई हो, धूप तीखी हो, और शाम उदास ही हो.
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बहुत ही अच्छा और मन को छु लेने वाला लेख|
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आपके ब्लाग पर पहली बार ही आना हुआ है लेकिन बहुत प्रभावित करने वाला लेखन और चिंतन है आपका। आप सच कह रहे हैं कि हमें जीने की कला नहीं आती। हमेशा अपने मन को मारते हैं, उसको सर्वोपरी कभी नहीं बनने देते। बहुत अच्छी पोस्ट के लिए आभार।
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समय रहते…इन सारी बातों पर अमल जरूरी है…
संग्रहणीय पोस्ट
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Nishant ji aapki anek post padkar man ko sukun milta h me yaha nayi hi nahi purani posts bi padta hu bahut accha collection h aapka dhanyawad
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आप बहुत ही अच्छा लिखते हैं और आपका ये लेख तो मुझे बहुत ही अच्छा लगा. आप ऐसे ही लिखते रहें और हमें आपके सुन्दर-२ लेखों को पढने का मौका मिले यही मेरी कामना है. धन्यवाद् ……!!
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Nice post
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everyone should correct his own mistakes / understandings / behaviors / at the earliest to live with joy and joy
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