अपने-अपने वनवास

ramabowरामायण में अन्य राजपुत्रों के साथ सुकुमार श्रीराम को भी सीता-स्वयंवर में आमंत्रित करके शिव के धनुष पर प्रत्यंचा चढाने के लिए कहा जाता है. यदि राम इसमें सफल रहेंगे तो उनका विवाह सीता से हो जाएगा. राम धनुष को उठाकर उसे प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए खींचते हैं परंतु धनुष टूट जाता है. अन्य आमंत्रितों में से कोई भी राजा धनुष को हिला भी न पाया था अतः जनकराज राम से अत्यंत प्रभावित होकर अपनी पुत्री सीता का हाथ उनके हाथ में दे देते हैं.

यह सोचना सच में अचरज भरा है कि कोमल और दयालु स्वभाव के स्वामी राम उस धनुष को मोड़कर कैसे तोड़ देते हैं जिसपर उन्हें केवल प्रत्यंचा ही चढ़ानी थी! यह धनुष मिथिला की प्राचीन राजसत्ता का प्रतीक है. धनुष तभी तक उपयोगी है जब इसकी प्रत्यंचा न तो अधिक ढीली हो और न ही अधिक कसी हुई हो. सुकुमार राम द्वारा इसे यूं ही तोड़ देने के पीछे कुछ-न-कुछ प्रयोजन अवश्य है क्योंकि यह कोई साधारण धनुष नहीं था. यह सृष्टि के संहारक महायोगी शिव का धनुष था.

अयोध्या में राम के आगमन पर उनके पिता राजा दशरथ यह विचार व्यक्त करते हैं कि वे अब बूढ़े हो चले हैं और उन्हें राजपाट अपने ज्येष्ठ पुत्र के हवाले कर देना चाहिए. दुर्भाग्यवश राजतिलक की सारी तैयारियों पर पानी फिर जाता है. राजमहल में घटनेवाली बातों के कारण राम को वनवास के लिए अयोध्या छोड़नी पड़ती है. क्या शिव के धनुष के टूटने और राम को राज्य न मिलने की घटना में कोई संबंध है? रामायण में इसपर कोई चर्चा नहीं की गयी है लेकिन यह प्रश्न बहुत रोचक है. चाहे जो हो, हिन्दू कथानकों में कई प्रतीकात्मक बिंदु हैं और इस संबंध के विवेचन की भी आवश्यकता है.

राम के द्वारा शिव के धनुष को खंडित कर देना संभवतः इस बात का प्रतीक है कि राम ने कामनाओं और आसक्तियों का खंडन कर दिया है क्योंकि महायोगी शिव स्वयं अनासक्ति के देवता हैं. क्या इसीलिए राम को राजा नहीं बनाया जाता है? क्या इसीलिए उन्हें चौदह वर्ष के वनवास पर भेजा जाता है ताकि वे अपने भीतर कुछ मोह-माया लेकर वापस लौटें? ध्यान दें कि चौदह वर्ष के बाद रावण के वध के उपरान्त राम के व्यवहार में हमें कैसा विचित्र आवेश दिखता है. वे सीता से कहते हैं कि उन्होंने रावण का वध सीता को पाने के लिए नहीं बल्कि धर्म की रक्षा और अपने कुल की मर्यादा को अक्षुण रखने के लिए किया. इससे यह प्रतीत होता है कि शीघ्र ही राजा बनने जा रहे व्यक्ति के लिए यह अशोभनीय था कि वह अपनी पत्नी के प्रति अपने भावनाओं को सबके समक्ष व्यक्त करे. उसे प्राप्त करने के लिए धनुष को खंडित करते समय तो उसने अपने मनोभावों का प्रकटन किया पर ऐसा वह दुबारा नहीं करेगा.

प्राचीन दृष्टाओं ने राजाओं से ऐसी ही अनासक्ति की अपेक्षा की थी. यहाँ राजत्व का महत्व परिवार से भी बढ़कर था. यही कारण है कि राम को सर्वोच्च पदवी पर आसीन कर दिया गया. आज शायद हम इन विचारों से सहमत न हो सकें लेकिन यह स्पष्ट है कि महाकाव्य में वर्षों तक निर्जन वन में विचरण करने को त्रासदी की भांति नहीं बल्कि ऐसी कालावधि के रूप में देखा गया है जिसमें राम राजमुकुट का भार वहन करने योग्य बन रहे हैं.

निर्जन वन में पकने/विकसित होने की यही थीम महाभारत में दोहराई गयी है. कृष्ण इन्द्रप्रस्थ का राज्य स्थापित करने में पांडवों की सहायता करते हैं पर वे पाँचों भाई मूर्खतापूर्वक जुए में अपना सब कुछ हार जाते हैं. इसके परिणामस्वरूप उन्हें तेरह वर्ष का वनवास मिलता है. वन में जब युधिष्ठिर अपने भाग्य का रोना रोते हैं तो महात्मा उन्हें स्मरण कराते हैं कि श्री राम ने भी दोषहीन होते हुए भी उनसे एक वर्ष अधिक का वनवास झेला. महात्मा पांडवों से कहते हैं कि अपना सर धुनने की बजाय इस अवधि को नए कौशल सीखने में लगाएं. पांडव नयी चीज़ें सीखते हैं. शिव के वेश में साधारण आखेटक से द्वंद्व में परास्त होकर अर्जुन नम्रता सीखते हैं, बूढ़े वानर (हनुमान) की पूँछ उठा पाने में असमर्थ होने पर भीम का गर्व चूर हो जाता है और उसमें दीनता आती है. अज्ञातवास के एक वर्ष की अवधि में सभी पांडव बंधु अपने मान-अपमान को ताक पर रखकर साधारण नौकर-चाकरों की भांति दूसरों की सेवा करते हैं. इतना सब होने के बाद ही वे महाभारत के महायुद्ध में कृष्ण की अगुवाई में अपने शत्रुओं का दमन कर पाते हैं.

कॉर्पोरेट जगत में अपना मुकाम बना चुके अधिकतर लीडर्स भी कभी-न-कभी अपना वनवास काट चुके होते हैं. किसी CEO, या सफल उद्यमी से बात करिए और आप देखेंगे कि उनकी आँखें सालों तक कॉर्पोरेट के बीहड़ में बिताये वक़्त की दास्ताँ बयान करतीं हैं. यह वो वक़्त था जब कोई उन्हें पूछता नहीं था, उन्हें पीछे धकेल दिया जाता और उनके काम की कीमत तक नहीं दी जाती थी. उनसे भय खानेवाले दोयम दर्जे के लोग उन्हें ताकत और दौलत से दूर कर देते थे. वे आपको उन दिनों के बारे में बताएँगे जब लोग उन्हें नवागंतुक या उससे भी बुरा… गयाबीता जानकर व्यवहार करते थे. यह अफसोसनाक है पर बहुत से लीडर्स अपने जीवन के इस दौर को सकारात्मकता से नहीं लेते. इससे उनमें असुरक्षा की भावना आ जाती है और वे कड़वाहट से भर जाते हैं. अपनी ही राख से फिर जीवित हो जानेवाले पौराणिक फीनिक्स पक्षी बनने की बजाय वे विशाल वटवृक्ष बन जाते हैं जो सबको शीतलता तो देता है पर अपने नीचे घास का एक तिनका भी नहीं पनपने देता.

यह देखने में आया है कि किसी मंझोली कंपनी का लीडर अपने टीम के सदस्यों में यह भावना भरने में रूचि लेता है कि वे शक्तिशाली हैं. पर सच्चाई यह है कि निर्णय लेते समय वह निपट अकेला होता है. उसने अपने नीचे किसी प्रतिभा समूह या दूसरी कमान का विकास नहीं किया है. यदि आप उससे इस बारे में पूछेंगे तो वह इस प्रत्यक्ष सत्य को स्वीकार करने से ही इनकार कर देगा. उसे शायद इसका पता ही नहीं है. एक समय ऐसा भी था जब वह किसी तेजी से विकसित हो रही कंपनी में मार्केटिंग विभाग का मुखिया था. लेकिन जब उस कंपनी में नए CEO ने काम संभाला तो वह उसका विश्वासपात्र नहीं बन सका और छंटनी के योग्य बन गया. उसे किसी दूर देश में बड़े पदनाम के साथ मामूली काम निपटाने के लिए तीन साल के लिए भेज दिया गया. उस तीन वर्षों में वह कॉर्पोरेट निर्जनता में बिखर गया. उसके भीतर कड़वाहट, खीझ, एवं गुस्सा भर गया और उसने तय कर लिया कि वह लडेगा और विजेता बनकर दिखाएगा. इसी जूनून में उसने अपना पद छोड़ दिया और नई कंपनी में प्रवेश किया. वर्षों तक संघर्ष करने के बाद अब वह बहुत बड़ी कंपनी में बड़ी जिम्मेदारी का पद संभाल रहा है और उन लोगों से भी बेहतर स्थिति में है जिन्होंने उसे कभी छंटनी के लायक समझा था. अपनी गौरवपूर्ण वापसी के हर क्षण को वह आनंदपूर्वक भोगता है. उसने सबको अपना महत्व जता दिया है.

लेकिन इन घटनाओं ने उसे बहुत बदल दिया है. वह अब पहले की भांति उदार नहीं रहा. उसे हर कोई खतरा जान पड़ता है. उसे आपने सहयोगियों से विश्वासघात का भय है. कंपनी में उसके कामकाज के तौरतरीके यह ज़ाहिर करते हैं कि उसमें निराशा घर करती जा रही है. अपने संघर्ष के दिनों में उसमें जो आशावादिता थी वह अब कहीं नज़र नहीं आती. कभी वह शिकार था और अब वह शिकारी बनकर अवांछित निर्वासन और प्रतिशोधात्मक वापसी के चक्र को गति दे रहा है.

हमारे ग्रंथों में ऐसे संकीर्णमना नायकों की निंदा की गयी है. ऐसे लक्षण उनके चरित्र के उथलेपन और आस्थाहीनता को प्रदर्शित करते हैं. दोनों महाकाव्यों में वनागमन को शक्ति-संसाधन और पौरुषपूर्ण वापसी के अवसर के रूप में देखा गया है. यदि राम वन को नहीं जाते तो रावण का दमन नहीं होता और यदि पांडव वनवास नहीं करते तो उनके भीतर आपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने का नैतिक बल उत्पन्न नहीं होता. अंततः दीर्घकाल तक गौरवपूर्ण शासन करने के उपरांत राम और पांडवों ने राजसत्ता अपनी अगली पीढ़ी के सुयोग्य व्यक्तियों को सौंप दी और यह दर्शाया कि हर नायक को एक-न-एक दिन राजपाट को तिलांजलि देनी होती है.

श्री देवदत्त पटनायक का यह आलेख अंग्रेजी अखबार कॉरपोरेट डॉज़ियर ईटी में 21 मार्च, 2008 को प्रकाशित हो चुका है. उनकी अनुमति से मैं इसका हिंदी अनुवाद करके यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ. यदि आप मूल अंग्रेजी आलेख पढना चाहें तो यहाँ क्लिक करें.

There are 15 comments

  1. प्रवीण पाण्डेय

    इस बात से पूर्णतया सहमत हूँ कि बिना योग्य बने सिंहासन नहीं मिलना चाहिये। योग्य बनने के लिये सामाज के हर वर्ग के साथ समय बिताना भी आवश्यक है और स्वयं उनके समान रहना भी। अति उत्साह और अति शान्ति, दोनों ही नहीं चाहिये राजा को।

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  2. Arvind Mishra

    चूंकि मूल लेख आपका नहीं है इसलिए अपने मूल और मौलिक विचार भी यहाँ प्रगट करने में संकोच है ! हाँ रामनवमीं की शुभकामनाएं स्वीकार करें !!

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  3. AK

    लेख में विसंगति :

    राम के द्वारा शिव के धनुष को खंडित कर देना संभवतः इस बात का प्रतीक है कि राम ने कामनाओं और आसक्तियों का खंडन कर दिया है. क्या इसीलिए उन्हें चौदह वर्ष के वनवास पर भेजा जाता है ताकि वे अपने भीतर कुछ मोह-माया लेकर वापस लौटें?

    प्राचीन दृष्टाओं ने राजाओं से ऐसी ही अनासक्ति की अपेक्षा की थी. यहाँ राजत्व का महत्व परिवार से भी बढ़कर था. यही कारण है कि राम को सर्वोच्च पदवी पर आसीन कर दिया गया.
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    वाहियात आलेख, ये भाई खुद कन्फ्यूज़ है, मिथक-मैनेजमेंट-जबरन मतलब निकालने के की प्रक्रिया में कुछ भी लिखे चला जा रहा है. इसीलिए तो भारतीय स्तंभकार प्रायः भारत से बाहर नहीं पढ़े जाते. न स्वयंभू भारतीय मैनेजमेंट गुरुओं की कोई पूछ है.

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  4. सिद्धार्थ जोशी

    बेहतरीन आलेख… निश्‍चय ही भारतीय मनीषियों ने रामायण और महाभारत लिखते समय मानव मन के गहरे पैठकर कुछ ऐसे प्रसंग डाले होंगे जो नैतिकता के स्‍तर पर आज भी उतने ही खरे हैं…

    इसके साथ आज के कॉर्पोरेट युग के बारे में कुछ चर्चा करना चाहूंगा। पहले जहां राजपाट खुद राजा का हुआ करता था वहीं अब कॉर्पोरेट हाउस किसी एक व्‍यक्ति या संस्‍था का होता है। ऐसे में सीईओ बना व्‍यक्ति अपने मूल्‍यों पर कितना ही खरा क्‍यों न उतर ले, आखिरकार काम वह कॉर्पोरेट हाउस के मालिक का ही कर रहा होता है।

    वनवास को कुछ कुछ मैं इस तरह मानूं कि सेठजी के कहने या ऑफिस पॉलिटिक्‍स के चलते अगर आपका तबादला बेहद घटिया जगह कर दिया जाए, तो कंपनी छोड़कर दूसरी जगह जाने के बजाय आपको खुद में सुधार की संभावनाएं तलाश करनी चाहिए…

    कम से कम मैं इसे मूल्‍य नहीं बल्कि मूर्ख बनाए जाने की प्रक्रिया मानूंगा… 🙂

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  5. अली सैयद

    मिथिकीय /धार्मिक सन्दर्भों से देखा जाए तो वनगमन पारलौकिक जीवन /मोक्ष की प्रशिक्षुता अवधि है पर देवदत्त इसे ‘राजनैतिक ताप’ पाने का अवसर मान रहे हैं ! उनके नज़रिये से देखें तो श्री राम के पत्नी वियोग में भटकने की नारदीय थ्योरी , रावण के वध के पूर्व निर्धारित देव संकल्प आदि आदि व्यर्थ हो जायेंगे !

    एक तो वे धार्मिक सात्विक समाज के सरोकारों को लेकर प्रचलित मान्यताओं में ‘राजनैतिक उद्देश्यों’ की खोज कर रहे है दूसरी ओर अपने उद्धरण को ‘आर्थिक सेक्टर’ पर आरोपित भी कर रहे हैं जबकि आर्थिक अरीना में टेम्परेरी तौर पर डिसकार्डेड व्यक्ति हर हाल में उसी अरीना में बना रहता है भले ही हाशिए पे ही सही !

    मेरा ख्याल ये है कि देवदत्त का यह मंतव्य तो सही है कि वंचित होने पर शिद्दत से पाने की कोशिश जैसे हालात बन सकते हैं पर इसके लिए प्रस्तुत उद्धरण और उद्धरणों की उनकी व्याख्या इस मंतव्य के अनुकूल नहीं हैं !

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    1. Smart Indian - अनुराग शर्मा

      सहमत हूँ। अवलोकन अनुभवजन्य लगते हैं, लेकिन उनके लिए दिये गए उद्धरण असम्बद्ध। निशांत का धन्यवाद कि उनके अनुवाद की वजह से देवदत्त पटनायक और उनके लेखन के बारे में जानने को मिला।

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  6. AMITA NEERAV

    बेहतरीन… विसंगतियों को इंगित करते कमेंट पढ़ने और सोचने के बाद भी बेहतरीन… धार्मिक संदर्भों से यदि जीवन दर्शन/ दृष्टि मिलती है तो थोड़ा कम-ज्यादा क्षम्य है। सकारात्मक, राह दिखाने वाला और धार्मिक आख्यानों की नए संदर्भों में व्याख्या करने के लिए लेखक को धन्यवाद।

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