यह कहानी श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ जी ने भेजी है.
एक डॉक्टर ने अपने अति-महत्वाकांक्षी और आक्रामक बिजनेसमैन मरीज को एक बेतुकी लगनेवाली सलाह दी. बिजनेसमैन ने डॉक्टर को बहुत कठिनाई से यह समझाने की कोशिश की कि उसे कितनी ज़रूरी मीटिंग्स और बिजनेस डील वगैरह करनी हैं और काम से थोड़ा सा भी समय निकालने पर बहुत बड़ा नुकसान हो जाएगा:
“मैं हर रात अपना ब्रीफकेस खोलकर देखता हूँ और उसमें ढेर सारा काम बचा हुआ दिखता है” – बिजनेसमैन ने बड़े चिंतित स्वर में कहा.
“तुम उसे अपने साथ घर लेकर जाते ही क्यों हो?” – डॉक्टर ने पूछा.
“और मैं क्या कर सकता हूँ!? काम तो पूरा करना ही है न?” – बिजनेसमैन झुंझलाते हुए बोला.
“क्या और कोई इसे नहीं कर सकता? तुम किसी और की मदद क्यों नहीं लेते?” – डॉक्टर ने पूछा.
“नहीं” – बिजनेसमैन ने कहा – “सिर्फ मैं ही ये काम कर सकता हूँ. इसे तय समय में पूरा करना ज़रूरी है और सब कुछ मुझपर ही निर्भर करता है.”
“यदि मैं तुम्हारे पर्चे पर कुछ सलाह लिख दूं तो तुम उसे मानोगे?” – डॉक्टर ने पूछा.
यकीन मानिए पर डाक्टर ने बिजनेसमैन मरीज के पर्चे पर यह लिखा कि वह सप्ताह में आधे दिन की छुट्टी लेकर वह समय कब्रिस्तान में बिताये!
मरीज ने हैरत से पूछा – “लेकिन मैं आधा दिन कब्रिस्तान में क्यों बैठूं? उससे क्या होगा?”
“देखो” – डॉक्टर ने कहा – “मैं चाहता हूँ कि तुम आधा दिन वहां बैठकर कब्रों पर लगे पत्थरों को देखो. उन्हें देखकर तुम यह विचार करो कि तुम्हारी तरह ही वे भी यही सोचते थे कि पूरी दुनिया का भार उनके ही कंधों पर ही था. अब ज़रा यह सोचो कि यदि तुम भी उनकी दुनिया में चले जाओगे तब भी यह दुनिया चलती रहेगी. तुम नहीं रहेगो तो तुम्हारे जगह कोई और ले लेगा. दुनिया घूमनी बंद नहीं हो जायेगी!”
मरीज को यह बात समझ में आ गयी. उसने झुंझलाना और कुढ़ना छोड़ दिया. शांतिपूर्वक अपने कामों को निपटाते हुए उसने अपने बिजनेस में खुद के लिए और अपने कामगारों के लिए काम करने के बेहतर वातावरण का निर्माण किया.
सचमुच इलाज करने वाला डॉक्टर.
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तो जनाब ये डॉक्टर थोड़े ही न था . ये तो सच को बताने वाला एक दार्शनिक था . ये तो भला हुआ की डॉक्टर के भेष में था तो उसकी बात इस व्यापारी ने समझ ली . अगर कोई संत या दार्शनिक इसी बात को उसे समझाता तो उसके भेजे में ये बात नहीं घुसती . क्योकि सच को बताने वाले ये दार्शनिक और संत झक्की और पागल जो होते है .
हा अगर मोटी फीस को लेकर कोई विदेशी “Motivational” गुरु उन्हें यही बात समझाए तो तुरंत कुछ देर के लिये ये बड़ी बड़ी बाते उन्हें सम्मोहित कर लेती है.
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डॉ का पता बताईये, हमारे बहुत मित्र इस बीमारी से ग्रसित हैं।
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जी, नाम-पता लगते ही सबसे पहले हम ही लाइन में लगेंगे.
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सलाह अनमोल है।
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बहुत सही सलाह दी डाक्टर ने। आभार।
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निशांतजी,
कहानी छापने के लिए धन्यवाद।
स्पष्टीकरण:
कहानी मेरी लिखी हुई नहीं है।
मुझे किसी मित्र ने ई मेल द्वारा forward किया था।
हमने सोचा इसका सही स्थान तो इस ब्लॉग में है।
सो हमने उस ई मेल आपको को forward कर दिया।
श्रेय किसी गुमनामी को जाना चाहिए
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
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फिलहाल तो पूरा श्रेय आपको ही है विश्वनाथ जी.
नाव खेते हुए आप ज़िंदगी से भरपूर लग रहे हैं.
अगली बार दिल्ली आएं तो ज़रूर सूचित करें.
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बहुत अच्छी कहानी। बोधमयी प्रस्तुति।
आभार।
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यह वास्तव में आश्चर्य है कि मृत्यु अवश्यम्भावी सभी जानते हैं। पर उसके लिये तैयार कोई नहीं होता!
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अब ये बात ऐसी है कि किसी से पूछ भी नहीं सकते 😦
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यक्ष ने पूछा था : आश्चर्य क्या है !
युधिष्ठिर बोले : मानव जानता है कि मृत्यु अंतिम सत्य है पर वह उसे सदैव झुठलाने की कोशिश में लगा रहता है !
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संदेश-पूर्ण कथा है , आभार आपको एतदर्थ में नामी-गुमनामी किसी को भी !
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अलग अलग लोगों के इलाज भी अलग। इससे उलट भी लोग हैं।
मिर्ज़ा ग़ालिब तभी कह गये हैं
[ मौत का एक दिन मुअय्यन है नींद क्यों रात भर नहीं आती ]
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Dear Sir,
“Jeevan ek kiraye ka makan he,
ek din khali karna padega.
maut akar awaj degi,
ghar se bahar niklna padega.”
ab hame bhi samajh me aya. thanks.
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बहुत अच्छा
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