ज़हर बुझे तीर

(ज़ेन मास्टर स्युंग साह्न ने दक्षिण अफ्रीका में 1989 में धम्म पर चर्चा की थी, नीचे दिया गया अंश उसी में से लेकर अनूदित किया गया है)

दुनिया में बहुत से लोग चीज़ों और घटनाओं के बारे में जानना चाहते हैं, उनकी व्याख्या करना चाहते हैं, उन्हें समझना चाहते हैं. किसी लाइब्रेरी में जाइए तो पायेंगे कि तमाम विषयों पर लिखी किताबों से शेल्फ-दर-शेल्फ पटे पड़े हैं. इन किताबों में लेखकों के विचार ही तो हैं. मैं हार्वर्ड विश्वविद्यालय में धम्म के ऊपर एक व्याख्यान देने गया था. हार्वर्ड विश्वविद्यालय में हर वर्ष हजारों किताबें छापी जाती हैं. लाखों लोग इन किताबों को पढ़ते हैं और इस दुनिया को और ज्यादा जटिल और अव्यवस्थित बना देते हैं. हार्वर्ड की इस किताबी चेतना ने सारे अमेरिका को आक्रांत कर रखा है इसलिए इन किताबों को जला देना ज़रूरी है – फिर कोई समस्या नहीं होगी. हा हा हा (सभी हँसते हैं).

बहुत ज्यादा जानने से और बहुत ज्यादा समझने लेने की कोशिश करने से भी समस्याएँ बढ़तीं हैं. ठीक है न?

दक्षिण अमेरिका के आदिवासी अपने मुंह से बांस की पोंगरी में फूंक मारकर ज़हरीला तीर छोड़ देते हैं. फू! और अब कोई आदमी यहाँ आये जिसके शरीर में वह तीर घुस गया है और तीर को जल्द ही निकालना बहुत ज़रूरी है. और जब तुम वह तीर निकालने लगो तो वह बोले – “रुको! पहले मुझे बताओ कि यह तीर कहाँ से आया? इसे किसने चलाया और क्यों चलाया?” – विचार, चिंतन, मनन, अध्ययन – यह सब पूरा होने तक वह आदमी चल बसेगा. यह सोचविचार अनावश्यक है. पहले तीर को बाहर निकालो, नहीं तो ज़हर शरीर में फैलता जायेगा.

बहुत से लोग तीर को बाहर नहीं निकालते और सवाल करते रहते हैं – “यह तीर कहाँ से आया? इसे किसने चलाया और क्यों चलाया?”. – जांच-पड़ताल, निरीक्षण-अन्वेषण, जिज्ञासा-कौतूहल. और तब तक आदमी चल बसता है.

यह मानव स्वभाव है. यह पूछता है – “संसार में इतना दुःख क्यों है? दुःख की उत्पत्ति कैसे होती है? जीवन में सब कुछ सहज-सरल क्यों नहीं है?” – जांच-पड़ताल, निरीक्षण-अन्वेषण, जिज्ञासा-कौतूहल. – वह यह नहीं पूछता कि – “मैं कौन हूँ?” – “मैं नहीं जानता” – तभी तो इस खोज-खबर रखनेवाले मन की पड़ताल होगी! ‘मैं नहीं जानता’ कहनेवाला मन ही इस तीर को निकाल सकता है. पहले तीर को निकाल लो, फिर प्रश्न-मीमांसा करने में कोई समस्या नहीं है. ठीक है न? अगर मैं तीर के बारे में ही सोचता रहूँगा तो बहुत देर हो जाएगी और मैं मर जाऊँगा, या और कोई मर जायेगा.

दुनिया में छः अरब से ज्यादा मनुष्य हैं और हर विषय पर निरीक्षण-परीक्षण जारी है. लोग मरते जा रहे हैं. कोई भी खुद से यह नहीं पूछता कि ‘मैं कौन हूँ?’ कोई यह जानना नहीं चाहता कि ‘मैं क्या हूँ?’ इसमें गहराई से चिंतन करने जैसा कुछ नहीं है, सीधा सा प्रश्न है – ‘मैं क्या हूँ?’. जहर अपने आप चला जाता है, तीर निकल चुका है, अब कोई समस्या नहीं. सहजता और सजगता को अपना लें, कोई समस्या नहीं होगी. जांच-पड़ताल में नहीं उलझें, बस यही ध्यान रखें कि आप नहीं जानते. क्षण-प्रतिक्षण यही भावना बनी रहे. फिर कोई समस्या नहीं रहेगी.

Photo by Andalucía Andaluía on Unsplash

There are 10 comments

  1. संतोष त्रिवेदी

    इसीलिए बुजुर्गों का कहना है कि अनुभव से सीखो ! कुछ काम तो ऐसे हैं जिन्हें स्वयं करके ही समझा जा सकता है,पर कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें इतिहास से ,अनुभव से भी माना जा सकता है !

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  2. विवेक गुप्ता

    बहुत शानदार. आपकी यह पूरी वेबसाइट ही ज़बर्दस्त काबिले तारीफ़ है. पहले कहीं पढा था कि जब कोई चिंता हो, तो कोई अच्छी किताब निकालकर कहीं से भी पढना शुरू कर दो, उसमें उसका हल मिल जाएगा. अब किताब तो नहीं खोलता, पर आपकी वेबसाइट ज़रूर देखता हूं, दिन में कम से कम एक बार- चाहे कोई चिंता हो या न हो! उम्मीद रहती है कि हर दिन कोई नई और अच्छी चीज़ पढने को मिलेगी. अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद अगर आप यह मुराद पूरी कर सकें तो फ़िर क्या बात है!

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  3. राहुल सिंह

    पुस्‍तकों पर निर्भर हो कर अपनी सोच के रास्‍ते बंद कर देना मुश्किलों की जड़ है, बुद्ध अपने उपदेशों को भी सीधे मान लेने से मना करते हुए कहते हैं- Belive nothing. No matter where you read it. Even if I have said it. Unless it agrees with your own reasons n your own commonsense.

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  4. G Vishwanath

    लेख को दो बार पढा।
    बात समझ में नहीं आई।
    शायद मुझमें कोई कमी है।

    आपने दो जगह “धम्म” लिखा।
    क्या सही शब्द “धर्म” होना चाहिए?

    पिछले दो सप्ताह से व्यस्त रहा हूँ।
    आपका और अन्य मित्रों के ब्लॉग नहीं पढ सका।

    आज से फ़िर फ़ुर्सत है।
    आते रहेंगे।
    शुभकामनाएं
    जी विश्वनाथ

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    1. Nishant

      टिपण्णी के लिए धन्यवाद, विश्वनाथ जी.
      यह पोस्ट एक ज़ेन मास्टर के प्रवचन का अंश है. ज़ेन परंपरा में विचार और चिंतन पर जोर नहीं दिया जाता. इसमें सहज अनुभूतियों का अवलोकन और उनके स्वीकरण की बात कही गयी है.

      Zen-based practices give emphasis on becoming aware of the sensations, thoughts, actions, emotions, and so on without actually getting involved or analyzing them. In other words, you become a witness to things that is happening in and around you. (copied from a website)

      ज़ेन परंपरा का सम्बन्ध बौद्ध धर्म से है. बौद्ध धर्म का अधिकांश साहित्य पाली भाषा में है जिसमें ‘धर्म’ को ‘धम्म’ कहा जाता है. आपने बौद्ध पुस्तक ‘धम्मपद’ का नाम सुना होगा.
      आपकी विस्तृत टिप्पणियां प्रेरित करतीं हैं. आभार.

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  5. Dr Prabhat Tandon

    प्रेरक प्रसंग … एक बार गौतम बुद्ध कौशम्बी मे सिमसा जगंल मे विहार कर रहे थे । एक दिन उन्होने जंगल मे पेडॊं के कुछ पत्तों को अपने हाथ मे लेकर भिक्षुओं से पूछा , “ क्या लगता है भिक्षुओं , मैने हाथ मे जो पत्ते लिये हैं वह या जंगल मे पेडॊं पर लगे पत्ते संख्या मे अधिक हैं । “

    भिक्षुओं ने कहा , “ जाहिर हैं जो पत्ते जंगल मे पेडॊं पर लगे हैं वही संख्या मे आपके हाथ मे रखे पत्तों से अधिक हैं “

    इसी तरह भिक्षुओं ऐसी अनगिनत चीजे हैं जिन्का प्रत्यक्ष ज्ञान के साथ संबध हैं लेकिन उनको मै तुम लोगों को नही सिखाता क्योंकि उनका संबध लक्ष्य के साथ नही जुडा है , न ही वह चितंन का नेतूत्व करती हैं , न ही विराग को दूर करती है, न आत्मजागरुकता उत्पन्न करती है और न ही मन को शांत करती है ।

    इसलिये भिक्षुओं तुम्हारा कर्तव्य तुम्हारे चिंतन मे है ..उस दु:ख की उत्पत्ति …दु:ख की समाप्ति और उस अभ्यास मे है जो इस जीवन मे तनाव या दु:ख को दूर कर सकती है । और यह अभ्यास इस जीवन के लक्ष्य से जुडा है , निराशा और विराग को दूर करता हैं और मन को शांत करता है ।

    संयुत्त निकाय 56.31

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