जब मैं ज़िंदगी से हार बैठा

मेरे इंटरनेटी मित्र स्टीवन ऐचिंसन अपने ब्लॉग में आत्मविकास और प्रेरणा पर चार सौ से भी अधिक पोस्टें लिख चुके हैं. नीचे उनकी एक पोस्ट का अनुवाद दिया गया है जिसमें उन्होंने बताया है कि अवसाद के किन क्षणों में उन्होंने खुद को बस खो ही दिया होता:


मुझे नहीं पता कि मैं अपने जीवन की यह नितांत निजी कथा आपके समक्ष क्यों उद्घाटित कर रहा हूँ. मेरे भीतर से ही एक स्वर उठ रहा है जो मुझसे ऐसा करने के लिए कह रहा है और मैंने उसकी बात मान ली है.

कुछ लोगों को मेरी यह पोस्ट असहज और क्रुद्ध कर सकती है इसलिए मैं उनसे पहले ही क्षमा मांग लेता हूँ.

मैं आपको उस रात के बारे में बताने जा रहा हूँ जब मैंने अपनी ज़िंदगी बस तमाम कर ही ली थी.

90 के दशक के अंत की बात है. बाहर से यह लग रहा था कि ज़िंदगी मज़े में कट रही है. बहुत से दोस्त थे, बढ़िया नौकरी थी. नई-नई जगहें देखने को मिलतीं थीं. मैं दिखने में भी अच्छा था और जेब में पैसे भी रहते थे. कुल मिलाकर सब कुछ ठीक-ठाक था. लेकिन कुछ तो था कि मैं खुश नहीं था और मुझे इसका पता भी न था कि मेरे भीतर अवसाद क्यों गहराता जा रहा है. मैं खुद को ख़त्म करने के बारे में सोचता रहता था और यह सोचने में ही शांति मिलती थी कि मुझे अब जीने और मरने में से सिर्फ एक चीज़ का चुनाव ही करना है.

मैं अपने जीवन को ख़त्म करने की ऐसी योजनायें बनाता रहता था कि लोगों को मेरी मौत एक दुर्घटना लगे और मेरे परिजनों को ज्यादा दुःख न हो. ऊंची बिल्डिंग से कूदकर जान देने का ख़याल मुझे बहुत लुभा रहा था.

एक रात मैं बार से निकलकर रात के एक बजे दो मील दूर अपने घर पैदल जा रहा था. हल्की बारिश शुरू हो चुकी थी और मुझे अपने शरीर पर बूंदों के गिरने का अहसास अच्छा लग रहा था जिसका लुत्फ़ लेने के लिए मैं धीरे-धीरे चल रहा था.

सड़क पर कुछ दूर मैंने एक कुत्ते को आते देखा. वह बहुत लंगड़ा कर चल रहा था. जब वह मेरे करीब से गुज़रा तो मैंने देखा कि उसकी एक टांग ही नहीं है. मुझे यह देखकर न जाने क्या हुआ कि मैं फूट-फूट कर रोने लगा. दूसरे दिन तक भी मेरे ज़हन से उस अभागे कुत्ते का ख़याल नहीं निकला और मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं उसके कारण इतना दुखी क्यों हो गया. शायद मैं उस कुत्ते में खुद को ही देख रहा था – अकेला, तरबतर, अपूर्ण, और बेघर.

इसके कुछ दिनों बाद ही एक रात मुझमें जीवन के आवरण की कैद से बाहर निकलने की छटपटाहट तेज़ हो गयी और मैंने इसे उतारने का फैसला कर लिया. मैंने अपने माता-पिता को गुडनाईट कहा और बहन से फोन पर प्यार से बातें की. मैंने पिता से कहा कि मुझे छुट्टी के दिन दूसरी सुबह देर तक सोने दें और बैडरूम में नीद की 26 गोलियां लेकर चला गया. अपने बिस्तर पर बैठकर मैंने रोते-रोते सारी गोलियां दूध के साथ गटक लीं. मुझे माँ का ख़याल आया कि दूसरे दिन उन्हें कितना दुःख होगा और यह कि मैंने अपने पिता को ज़िंदगी में एक बार ही कहा था कि मैं उनसे प्यार करता हूँ. मैं अपनी बहन के लिए रोया कि मैं उससे हमेशा के लिए बिछुड़ जाऊंगा. सारी गोलियां लेने के बाद मैं तकिये पर सर रखकर अंतिम पलों की प्रतीक्षा करने लगा. इस समय आपको यह बताते हुए भी मेरी रुलाई फूट रही है.

मुझे नहीं पता कि मैं नींद से कब जागा. मैं अस्पताल में था और मेरे माता-पिता, बहन और दो दोस्त मेरे साथ थे. मैं बहुत लम्बे समय तक बेहोश रहा. कितना? मुझे नहीं मालूम क्योंकि इस बारे में किसी ने मुझे कुछ नहीं बताया, न मैंने कुछ पूछा. मुझे बस इतना ही पता चला कि जिस रात मैंने नींद की गोलियां लीं थीं उस रात मेरे पिता अपने समय से सुबह पांच बजे उठे. मैंने उन्हें मुझे नहीं जगाने के लिए कह रखा था इसलिए वह मुझे उठाने नहीं आये लेकिन उन्हें मेरे पलंग से गिरने की आवाज़ सुनाई दी. पलंग से गिरने और पिता को उसकी आवाज़ सुनाई देने ने मेरी जान बचा ली, अन्यथा…

मेरे होश में आने पर सभी खूब रोये. बहुत सवाल-जवाब और पूछताछ हुई. अस्पताल की मनोचिकित्सक ने मेरी मदद करने की पेशकश की. मैंने उसे सब कुछ बता दिया कि मैं अपनी ज़िंदगी के मसले नहीं हल कर पा रहा था. मेरे भीतर बहुत शर्मिन्दगी, अपराधबोध, असहजता, और नाराज़गी थी कि मेरी वज़ह से मेरे परिवार को ये दिन देखने पड़े, सिर्फ इसलिए क्योंकि मुझमें ज़िंदगी की दुश्वारियों का सामना करने की ताक़त नहीं थी.

मुझे यह लग रहा था कि मैं अपने दोस्तों, नौकरी, और हर किसी चीज़ से तालमेल नहीं बिठा पा रहा था. फिर मैंने क्या किया? मैंने नए सिरे से अपने जीवन की शुरुआत की. मैंने अपने दोस्तों से किनारा कर लिया क्योंकि मैं यह जान गया था कि वे बस खाने-पीने के यार थे. मैंने अपनी नौकरी बदली, नई चीज़ें सीखीं, पैसों की दिक्कत से छुटकारा पाया, और दूसरे शहर चला गया. तब से मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा है और अच्छी बातों को दूसरों से बांटने लगा हूँ.

उस रात का सबक – मैं जोर देकर यह कहूँगा कि ज़िंदगी में कुछ भी इतना बुरा नहीं होता कि हमें मरने की ख्वाहिश होने लगे. राहें कभी बंद नहीं होतीं, गर कभी बहुत बुरा भी हो जाए तो भी नई शुरुआत संभव है. यदि आप मेरी जैसी परिस्तिथियों से गुज़र रहे हों तो मैं आपको यह यकीन दिलाना चाहता हूँ कि मौसम ज़रूर बदलेगा और आपकी मदद के लिए कोई-न-कोई ज़रूर मिलेगा.

मैं यह सीख गया हूँ कि मुझे हमेशा ही लोगों को यह महसूस कराना है कि मैं उनसे बहुत प्यार करता हूँ और मेरी ज़िंदगी में उनकी बहुत अहमियत है.

जिन हृदयविदारक अनुभूतियों से मैं गुज़र चुका हूँ उन्हें मैं दूसरों में जल्द पहचान लेता हूँ और उनकी मदद कर सकता हूँ.

मैंने आपको ऊपर यह बताया है कि मैं ज़िंदगी के आवरण में खुद को समा नहीं पा रहा था. अस्पताल में होश आने पर मुझे यह समझ में आ गया कि इस आवरण को हम अपने मुताबिक़ ढाल सकते हैं. हमें इसके अनुसार खुद को बदलने की ज़रुरत नहीं है.

उस कठोर रात के बाद बीते सालों में मैं इस बात को समझ गया हूँ कि मेरी लंबी हताशा और अवसाद मेरे सिर्फ एक निर्णय से छंट गए – यह कि मैं अपनी ख़ुशी और सलामती के लिए अपने जीवन को रूपांतरित करने के लिए हमेशा तत्पर रहूँगा.

Photo by Tobi Oluremi on Unsplash

There are 16 comments

  1. Arvind Mishra

    एक प्रेरक प्रबोध कथा -बल्कि सच्ची कथा! आभार! हम सभी अपने जीवन में कभी कभी ऐसा ही सोचते हैं -मगर कोई एक चेतना या कुछ हमें वापस अपने राह पर ला देती हैं !

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  2. nirmla.kapila

    बहुत प्रेरक प्रसंग है। जब इन्सान मे आत्मविश्वास आ जाता है तो वो खुद को हर परिस्थिती मे डालने की क्षमता रखता है। आपकी पोस्ट हमेशा एक नया उत्साह देती है। धन्यवाद।

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  3. सतीश चन्द्र सत्यार्थी

    ऐसे अवसाद के पल जीवन में कई बार आते हैं..
    मैं तो बस ऐसे समय में अपने गाँव के सबसे गंदे और गरीब टोले को ध्यान में लाता हूँ.. फिर लगता है कि मुझसे सुखी और संपन्न कौन होगा दुनिया में……
    काफी प्रेरणादायक पोस्ट है…

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  4. G Vishwanath

    सतीशचन्द्रजी से सहमत।
    Look at people below you.
    You will notice that you are not badly off after all.

    पर क्या अपनी जान लेना कानूनी जुर्म नहीं है?
    भारत में तो अस्पताल से सीधा पुलिस स्टेशन जाना पडेगा।

    खुदखुशी भी एक अजीब जुर्म है।
    यदि हम सफ़ल होते हैं तो कानून कुछ नहीं कर सकती!
    यदि असफ़ल होते हैं तो और मुसीबत मोल लेते हैं

    रोचक और प्रेरणादायक पोस्ट। धन्यवाद
    जी विश्वनाथ

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  5. संतोष त्रिवेदी

    कहते हैं जीवन ईश्वर का अनमोल तोहफ़ा है,तो क्या हम तोहफ़े में पाई चीज़ को नष्ट या ‘शिफ्ट’ कर देते हैं? यदि ऐसा हम निर्जीव चीज़ों के साथ नहीं करते तो जिस परमात्मा को हम सबसे ज्यादा मानते हैं ‘आत्महत्या’ जैसा कदम उठाकर उसी को क्या रुसवा नहीं करते ?
    जीवन की ओर एक सार्थक कदम !

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