बहुत समय पहले कहीं एक बौद्ध साधू रहता था. उसने अप्रतिम बौद्ध ग्रन्थ ‘हीरक सूत्र’ का गहन अध्ययन किया था. उन दिनों पुस्तकें दुर्लभ थीं और वह एकमात्र छपी हुई ‘हीरक सूत्र’ पुस्तक की मोटी-सी प्रति को अपनी पीठ पर लादे घूमता-फिरता रहता था. उसके बारे में सभी जानते थे कि वह ‘हीरक सूत्र’ का महान अध्येता है और न केवल ज्ञानी संन्यासी और लामा बल्कि सामान्य नागरिक भी उससे ‘हीरक सूत्र’ में वर्णित जटिल विषयों को सरल भाषा में समझ लेते थे.
एक बार यह साधू किसी अन्य देश की यात्रा पर निकला. पर्वतीय मार्गों पर उसे राह में एक बुढ़िया दिखी जो चाय-बिस्कुट बेच रही थी. साधू को बहुत भूख लगी थी पर उसके पास चाय-बिस्कुट खरीदने के लिए पैसे नहीं थे. उसने बुढ़िया से कहा – “माताजी, मेरी पीठ पर ज्ञान का महान स्रोत रुपी पुस्तक ‘हीरक सूत्र’ लदी है. यदि आप मुझे थोड़ी सी चाय-बिस्कुट खाने के लिए देंगी तो मैं इसमें से ज्ञान की कोई बात आपको बताऊँगा जिससे आपका भला होगा.”
बुढ़िया को भी ‘हीरक सूत्र’ के बारे में कुछ पता था. उसने साधू के सामने प्रस्ताव रखा. वह बोली – “आप बहुत ज्ञानी साधू हैं, यदि आप मेरे एक सरल प्रश्न का उत्तर दे देंगे तो मैं आपको चाय-बिस्कुट खिलाऊंगी.”
साधू ने बुढ़िया की पेशकश को स्वीकार कर लिया. बुढ़िया ने साधू से पूछा – “आप जब बिस्कुट खाते हैं तो आप इन्हें अतीत के मन से खाते हैं या वर्तमान के मन से खाते हैं या भविष्य के मन से खाते हैं?”
साधू को इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं सूझा. उसने अपनी पीठ पर लदी भारी-भरकम पोथी उतारी और उसमें प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करने लगा. उसे उत्तर खोजते बहुत समय हो गया. इस बीच सांझ हो गयी और बुढ़िया अपना सामान समेटकर चली गयी.
जाते समय बुढ़िया ने साधू से कहा – “तुम बहुत ही मूर्ख साधू हो. क्या तुम्हें इतना भी नहीं पता कि बिस्कुट मुंह से खाए जाते हैं!?”
इसे कहते हैं victory of earthy commonsense over bookish knowledge and snobbery
अपने व्याहारिक जीवन में इसे अनुभव किया हूँ।
पेशेवर एक structural engineer हूँ। इस्पात के बने हुए ढाँचों का अभिकल्पन में मेरा विशेष ज्ञान है।
कभी कभी अपने किताबी और theoretical ideas लेकर construction site par जाता हूँ और वहाँ किसी अनपढ कारीगर का practical idea इतना अचछा लगता है कि उसे ही अपनाता हूँ। श्रेय उस बेचारे कारीगर को नहीं मिलता। न चाहते हुए भी कभी कभी श्रेय हमें मिल जाता है!
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सरल को ज्ञान के माध्यम से कठिन बना देने को तो विवेक नहीं कहा जा सकता है।
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ये कहानी उस लोक परंपरा का एक हिस्सा भर है, जो मन की काल्पनिक उड़ानों के बरअक्स अपना एक वास्तविक भौतिक विधान रचती थीं, यथार्थ ज्ञान की धाराओं को संपृक्त करती थीं।
शुक्रिया।
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Nice story
“happy new year” nishant ji
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समय की सार्थक और सारगर्भित टिप्पणी पर ही अपना भी ‘Favourite’ बटन दब रहा है !
बेहतरीन ! आभार |
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Stupid Story – No meaning in actual.
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The knowledge has to be simple. This plain truth told brilliantly.
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if you put here a photo of an indian Sadhu,
it will be properer than this,
because Tibetan monks don’t eat biscuit and drink tea as Sadhu do
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good one
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Beautiful Story.
Learnt a Lesson today.
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