मैं लिखने और बातें करने का शौकीन किस्सागो हूं, भले ही मैं खुद को कितना ही सीरियस शख्स जताऊं. हर मौके के लिए मुफ़ीद मेरे पास कोई चुटकुला या कहानी या प्रसंग होता है.
बहुत साल पहले (40 साल के आसपास के लोगों को यह याद होगा) दूरदर्शन पर कथासागर नाम का एक धारावाहिक आता था जिसमें विश्व के महान लेखकों की कहानियों का नाट्य रूपांतर दिखाते थे. उसमें एक बार लेव तॉल्स्तॉय की एक कहानी दिखाई थी जिसमें एक पादरी नाव पर बैठकर किसी द्वीप पर मौजूद तीन तथाकथित संतों को देखने जाता है.
जब पादरी उन संतों से मिलता है तो वे उसे बिल्कुल साधारण व्यक्ति जान पड़ते हैं. पादरी उनसे पूछता है कि वे भगवान के बारे में क्या जानते हैं और कौन सी प्रार्थना करते हैं. वे तीनों उसे कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाते तो पादरी उन्हें बाइबिल की एक प्रार्थना याद करवाता है और वहां से चल देता है.
नाव में बैठा पादरी मन-ही-मन हंसता है कि लोग भी पता नहीं कैसे-कैसे लोगों को संत मान लेते हैं. इतने में कोई चिल्लाता है कि देखो वो संत पानी पर चलते हुए नाव की ओर आ रहे हैं. इस चमत्कार को देखकर पादरी की आंखें विस्मित रह जाती हैं. वे तीनों पानी पर चलते हुए झील के बीचोंबीच पादरी के पास आकर कहते हैं कि आप बड़े महात्मा है, हमें क्षमा करें, आपने हमें जो असली प्रार्थना सिखाई थी उसे हम बहुत जल्दी भूल गए. तब हमने ईश्वर से कहा कि हमें आपके पास जाने की शक्ति दे. इस तरह हम पानी पर चलते आए हैं. कृपया अपनी असली प्रार्थना हमें फिर से याद करा दें.
कहना ना होगा कि यह चमत्कार देखकर पादरी को ज्ञान हो जाता है कि वह ईश्वर से कितना दूर है और वे तीन निरक्षर जंगली ईश्वर के कितना निकट हैं. ईश्वर के सामने पादरी की शास्त्रोक्त प्रार्थना का कोई मोल नहीं था. ईश्वर ने उन तीन भले व्यक्तियों की दिल से बिना लागलपेट के कही गई प्रार्थना को सुना और उनकी सहायता की. शायद इसी बहाने ईश्वर पादरी तक भी अपना संदेश पहुंचाना चाहता था.
आप चाहें तो इस कहानी से सबक ले सकते हैं. ईसाई कहानी हुई तो क्या हुआ? यह हमें बताती है कि ईश्वर निर्मल हृदय व्यक्तियों के निकट है और सदा उनके साथ रहता है.
लेकिन प्रार्थना का एक पक्ष यह भी है कि हमें अपनी निजी प्रार्थना गढ़नी पड़ती है. कभी हमें किसी पुरानी प्रार्थना या परंपरा का अवलंब लेकर ईश्वर से संवाद करना पड़ता है. हमें ईश्वर से कहना पड़ता है हम कुछ नहीं जानते…
न जानामि योगं जपं नैव पूजां । नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम् ॥
हमें ईश्वर से कहना पड़ता है कि हमारी सहायता, हमारी रक्षा उसी तरह करो जैसे तुमने अमुक या फलां-फलां की रक्षा की थी…
जैसा पाउलो कोएलो की किताब By The River Piedra I Sat Down And Wept से ली गई इस यहूदी कहानी में बताया गया है. अनुवाद हर बार की तरह इस नाचीज़ काः
महान रब्बाई (यहूदी धर्मगुरु) इज़राएल शेम तोव ने देखा कि उनके लोगों के साथ अन्याय हो रहा है और इसे दूर करने का उपाय करने के लिए वे वन में गए. वहां उन्होंने पवित्र अग्नि प्रज्वलित की और अपने धर्मावलम्बियों की रक्षा के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की.
और परमेश्वर ने उनकी प्रार्थना सुनकर उन्हें चमत्कार सौंपा.
बाद में उनके शिष्य मेज़रेथ के मैगिद ने भी अपने गुरु के पदचिह्नों का अनुसरण किया. वन में उसी स्थान पर जाकर उसने भी परमेश्वर से कहा – “हे परमपिता, मुझे पवित्र अग्नि प्रज्वलित करना नहीं आता पर मैं शास्त्रोक्त प्रार्थना कहता हूँ… मेरी प्रार्थना सुनो!”
और इस बार भी चमत्कार प्रकट हुआ.
एक और पीढ़ी गुज़र गयी और सोसोव के रब्बाई मोशे-लीब ने जब युद्ध का खतरा मंडराता देखा तो वन में जाकर परमेश्वर से कहा – “परमपिता, मुझे पवित्र अग्नि प्रज्वलित करना नहीं आता और मैं विधिवत प्रार्थना भी नहीं जानता लेकिन इसी स्थान पर मेरे पुरखों ने आपका स्मरण किया था. हम पर दया करो, प्रभु!”
और ईश्वर ने उसकी सहायता की.
पचास साल बाद रिज़िन के रब्बाई इज़राएल ने अपनी व्हीलचेयर पर बैठकर कहा – “मुझे पवित्र आग जलाना नहीं आता, मैं प्रार्थना भी नहीं जानता और मुझे वन के किसी स्थान का भी कुछ पता नहीं है. मैं केवल इस परंपरा का स्मरण कर सकता हूँ और मुझे आशा है कि ईश्वर मुझे अवश्य सुनेगा”
ईश्वर ने उसकी सहायता भी की. परंपरा का स्मरण मात्र ही संकट को टालने के लिए पर्याप्त था.
आप ईश्वर की प्रार्थना करने का सही तरीका जानना चाहते हैं तो हर व्यक्ति आपको वह अलग-अलग बताएगा. अपने हिसाब से बताएगा. पंडित व्यक्ति आपको किसी शास्त्र या पुस्तक में लिखित प्रार्थना करने के लिए कहेगा. संत आपसे कहेगा कि हाथ जोड़कर शुद्ध मन से ईश्वर का स्मरण कर लो. दोनों ही अपनी-अपनी जगह पर सही है.
यदि आपको प्रार्थना करनी ही है तो क्यों न अपनी निजी प्रार्थना गढ़ी जाए? यही बेहतर होगा कि ईश्वर को अपनी परंपरा का हवाला दिया जाए. मनुष्यता का हवाला दिया जाए. यदि ईश्वर ने आपके सैंकड़ों-हजारों पुरखों का संरक्षण न किया होता तो आप यहां नहीं होते.
अपनी कथा कहिए, अपने स्वर और अपने शब्दों में कहिए. बहुत संभव है कि आपके पड़ोसी आपको समझ नहीं पायें पर ईश्वर आपके मन की शुद्धता को अवश्य देखेगा.
बहूत हि सच बात हे यह दिल से कि गइ प्राथना पुजा का रुप ले लेती हे मन को छु लेने वाली कहानी धन्यवाद निशांतजी.
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प्रार्थना में बड़ी शक्ति है, परम्परा तो बनी रहेगी।
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निशांत जी ,महापुरूषों की बातें तो सर्वमान्य हैं ही मुझे आज आपका छोटा सा स्टेमेंनट बहुत पसंद आया जो आपने कथा में जोड़ा है .सचमुच विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृति की ये कथाएँ हमारे बीच सेतु का कार्य करती हैं.
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अपनी कथा कहो… अपनी परंपरा का स्मरण करो. बहुत संभव है कि तुम्हारे पडोसी तुम्हें समझ नहीं पायें पर वे तुम्हारे मन की शुद्धता को अवश्य देख लेंगे. कथाएं ही वह एकमात्र सेतु रह गईं हैं जो विभिन्न संस्कृति और सभ्यताओं के मनुष्यों को एक सूत्र में जोड़ सकतीं हैं.
100% sahi kaha aapne…
prerak sundar is prasang ke liye sadhuwaad !!
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यह कथा बहुत कुछ कहती है..
आचार नहीं, विचार शुद्ध हो..तो बात बनेगी !
विनत भाव ही ईश्वर को करुणार्द्र करने को पर्याप्त है ।
साधन का महत्व नहीं, महत्व साधना का है ।
देवी का क्षमापन स्तोत्र भी तो यही कहता है .. “न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो…….”
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