एक बूढ़ा यहूदी मृत्युशैय्या पर था. उसके तीन पुत्र थे. तीनों बहुत धनी थे और अलग-अलग घरों में रहते थे. अपने पिता के मरणासन्न होने का समाचार पाकर वे तुरंत चले आये. बूढ़ा बिस्तर पर लेटा अपनी अंतिम साँसें ले रहा था और वे तीनों उसे घेरकर खड़े हुए थे. सभी पुत्र इस बात पर विचार करने लगे कि मृत्यु के बाद बूढ़े के शव को कब्रिस्तान तक कैसे लेकर जायेंगे. उन्हें अपने पिता की कोई परवाह नहीं थी – कुछ ही देर में बूढ़ा तो मरनेवाला था ही, और उसके बाद वे सभी अपने-अपने रास्ते चल देते और शायद फिर एक-दूसरे से नहीं मिलते… लेकिन फिलहाल उनकी चिंता का विषय एक ही था…
वे यह सोच रहे थे कि बूढ़े के मरने के बाद उसके शव को कैसे लेकर जायेंगे.
सबसे छोटे पुत्र ने कहा – “पिताजी को रोल्स रायस कार बहुत अच्छी लगती थी. उनके पास बहुत पैसा है और हमारे पास भी काफी पैसा है. क्यों न हम उनकी इस सीधी-सादी ख्वाहिश को इस समय पूरा कर दें और एक रोल्स रायस कार किराए पर लेकर उनके शव को कब्रिस्तान तक लेकर चलें. अपने जीते जी तो वे रोल्स रायस में नहीं बैठ सके पर मरने के बाद तो उसमें सवार हो ही सकते हैं.”
दूसरे पुत्र ने कहा – “तुम अभी बच्चे हो और रुपये-पैसे के मामले में अभी तुम्हें सीखने में बहुत वक़्त लगेगा. ये तो सरासर पैसे की बर्बादी है! एक मरे हुए आदमी को तुम रोल्स रायस में ले जाओ या ट्रक में, इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. उसे कुछ पता ही नहीं चलेगा! तो इतने पैसे बर्बाद करने में क्या तुक है? मेरा सुझाव है कि ऐसे में किसी सस्ते ट्रक से भी वही काम चल जाएगा जो रोल्स रायस से होगा. जो मर ही गया उसे इस सबसे क्या!?”
तीसरे पुत्र ने कहा – “और तुम खुद तो कोई ख़ास समझदारी की बात नहीं कर रहे! ट्रक किराए पर लेने की क्या ज़रुरत है? रोज़ म्युनिसिपालिटी का ट्रक सड़कों पर मरनेवाले भिखारियों को मुफ्त में उठाकर ले जाता है. शव को उठाकर बाहर सड़क पर रख दो. सुबह म्युनिसिपालिटी का ट्रक जब कचरा उठाने के लिए आएगा तो इन्हें भी मुफ्त में उठाकर ले जाएगा. इन्हें भी मुफ्त की सवारी का मज़ा लेने दो! मरे हुए आदमी के लिए क्या सरकारी ट्रक, क्या किराए का ट्रक और क्या रोल्स रायस! सब एक बराबर है!”
उसी समय बूढ़े ने अपनी आँखें खोलीं और बोला – “मेरी चप्पलें कहाँ हैं?” – तीनों लड़के हैरत में पड़ गए. बोले – “अब आप चप्पलों का क्या करोगे? अब तो आप मरनेवाले ही हो! चप्पलें बर्बाद करने की क्या ज़रुरत है?”
बूढ़ा बोला – “अभी तो मैं जिंदा हूँ और मुझमें कुछ साँसें बाकी हैं. मेरी चप्पलें ले आओ, मैं खुद ही चलकर कब्रिस्तान तक चला जाऊँगा और कब्र में लेट जाऊँगा. यही सबसे सरल और सस्ता उपाय है. तुम सब बस पैसा उड़ाना जानते हो!”
Insightful!
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बेचारा बुजुर्ग.
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इसलिए ही हिन्दू कर्मकांड में जीवित रहते ही खुद का त्रयोदश संस्कार का प्रावधान है -मैं तो यही चुनूँगा !
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bachhon kee fajulkharchi aur naasamajhee nazar men n aayee ho to yah dekhen kitni sakaaratmak soch thee baap kee
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मार्मिक सत्य आज कल के बेटों का भी।
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वर्तमान पीड़ी के बदलते संबंधों पर यह कथा इक दम सच्ची उतरती है .भारतीय खून अभी इतना तो सफ़ेद नहीं हुआ है की पिता को खुद चिता तक जाने की नोबत आये.परन्तु फिर भी घर-घर भाई बंधुओं की गंदे विवाद रोज देखे जा सकते हैं.इस सुंदर प्रसंग को पढ़ कोई दिल द्रवित हों पिता के चरणों में जा बेठे या कोई तो भ्राता ग्लानी महसूस कर क्षमा कामना करे, यही दुआ है मेरी .
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सब यहीं रह जाना है … किसी और के उड़ाने के लिए … (चप्पल भी )
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Good One!!!
Ashish
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कहानी का शीर्षक कंजूस बेटे की बजाए, कंजूस पिता होना चाहिए था…आखिरकार तो पिता ही कहता है ना – तुम सब बस पैसा उड़ाना जानते हो!
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हूं. लेकिन पिता का कथन कटाक्ष भी हो सकता है.
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यदि ऐसा है तो आखिरी वाक्य – तुम सब सिर्फ पैसा उड़ाना जानते हो!
उस कटाक्ष के सम्प्रेषण में रूकावट है।
ये आलोचना नहीं है, बस एक पाठक के तौर पर जो मुझे लगा वही मैं कह रही हूँ।
अब बात मेरे ब्लॉग पर आपके कमेंट की – तत्वमीमांसा मेरा भी विषय नहीं है, दर्शन औऱ अध्यात्म से तो बहुत दूर का भी वास्ता नहीं है। मैं वो कह रही हूँ, जिसे मैं जी रही हूँ, महसूस कर रही हूँ। शायद कहने का ढंग गड़बड़ हो…
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अरे कटाक्ष नही है भाई! एक पक्का कंजूस याहूदी बाप बिल्कुल ऐसा ही कहेगा.. सच कह रहा हूं! 🙂
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