एक ज़ेनगुरु के सौ शिष्य थे. उनमें से एक हमेशा नशे में रहता था जबकि बाकी शिष्य नियमानुसार प्रार्थना करते रहते थे.
ज़ेनगुरु बूढ़ा हो रहा था. कुछ गुणी शिष्यों के मन में यह प्रश्न उठने लगा कि आश्रम का अगला गुरु कौन बनेगा. गुरु की गद्दी पर बैठनेवाला शिष्य आश्रम की सदियों पुरानी रहस्यमयी गौरवशाली परंपरा का स्तम्भ बन जाता.
शरीर छोड़ने से पहले ज़ेनगुरु ने शराबी शिष्य को बुलाया और उसे गुप्त मन्त्रों से दीक्षित करके अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया.
इस घटना ने आश्रम में विद्रोह की स्थिति निर्मित कर दी.
“कितने शर्म की बात है!” – शिष्य चिल्ला रहे थे – “हमने अपना जीवन ऐसे गुरु को समर्पित कर दिया जो हमारे गुणों को नहीं देख पाया.”
बाहर कोलाहल की आवाज़ सुनकर मरते हुए ज़ेनगुरु ने कहा – “मैं गुप्त रहस्यों और मन्त्रों को उसी के सामने प्रकट कर सकता था जिसे मैं भली भांति जानता हूँ. मेरे सभी शिष्य सद्गुणी और योग्य हैं लेकिन इसके भी कई खतरे हैं क्योंकि सद्गुण बहुधा भीतरी लघुता, अहंकार और अनुदारता को ढँक देते हैं. यही कारण है कि मैंने केवल उसी शिष्य का चयन किया जिसे मैं बहुत अच्छे से जानता हूँ और उसके एकमात्र दोष ‘शराब पीना’ को देख सकता हूँ.”
(A zen story about a drunkard disciple)
मन के घरों में अकेला विचरता व्यक्ति औरों के लिये कितना अबूझ हो जाता है।
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सद्गुण बहुधा भीतरी लघुता, अहंकार और अनुदारता को ढँक देते हैं. … सत्य वचन … अच्छी पोस्ट
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रोचक व प्रेरक कथा…
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वाह क्या बात है सच में बड़ी गहरी सोच है
ज्ञानी लोग सच में आम इंसान से कितना अलग सोचते हैं
इसे लिए तो वे ज्ञानी होते
इस ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए धन्यवाद
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रक्षा बंधन [ कथाएं, चर्चाएँ, एक कविता भी ] समय निकालो पढ़ डालो
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बहुतखूब , अब क्या कमेन्ट हो जब कमेन्ट की कोई गुंजाइश ही नहीं.जेन कथा सुंदर और सच्ची है .
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