वरदान

buddha is a bridge


बहुत पहले मैसूर में एक महान गुरु रहते थे. बहुत सारे लोग उनके भक्त थे और उनके ज्ञान की महिमा को हर कोई मानता था.

एक बार प्रौढ़ावस्था में उन्हें मलेरिया हो गया, पर वे रोज़ की भांति ही अपने सारे कार्य करते थे. प्रातः स्नान करने के बाद वे अपने शिष्यों को ज्ञान देते और मंदिर में दोनों समय पूजा करते थे.

जब तेज बुखार और कंपकंपी के कारण उन्हें ध्यानस्थ होने में असुविधा होती तो वे अपनी शाल को उतारकर एक कोने में रख देते थे. उनके भीतर इतनी विलक्षण शक्तियां थीं कि वह शाल कोने में पड़ी-पड़ी कांपती रहती थी. इस प्रकार वे सुविधापूर्वक ध्यानस्थ हो रहते. ध्यान से उठने के बाद वे पुनः शाल ओढ़ लेते. शाल को ओढ़ते ही उनपर बुखार और कंपकंपी दोबारा लौट आती.

एक बार एक पत्रकार ने भी इस चमत्कार को देखा. उसने गुरु से पूछा – “आप इस शाल को हमेशा के लिए ही क्यों नहीं छोड़ देते? ऐसा लगता है कि यही आपके रोग का कारण है”.

“नहीं. ऐसा नहीं है” – गुरु ने कहा – “कुछ देर बिना किसी कष्ट के ईश्वर का ध्यान लगा लेना ही मेरे लिए वरदान स्वरूप है. रोग और कष्ट आदि तो जीवन के अंग हैं. उन्हें इस प्रकार अस्वीकार कर देना तो कायरता होगी.”

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