त्याग : Sacrifice

vase

“मैं सब कुछ छोड़ने के लिए तैयार हूँ” – एक राजकुमार ने गुरु से कहा – “कृपया मुझे अपना शिष्य बना लीजिये”.

“ठीक है. लेकिन पहले तुम मुझे इस प्रश्न का उत्तर दो कि मनुष्य ज्ञान के पथ का चयन कैसे करता है?” – गुरु ने पूछा.
“त्याग के द्वारा ही हम सत्य और ज्ञान के पथ पर अग्रसर हो सकते हैं” – राजकुमार ने उत्तर दिया.
गुरु ने पास रखी टेबल को अपने पैरों से ठोकर मार दी. टेबल पर रखा एक अमूल्य फूलदान नीचे लुढ़क गया. राजकुमार उसे जमीन पर गिरने से बचाने के लिए लपका. इस प्रयास में वह बुरी तरह से गिर गया. उसने फूलदान को तो टूटने से बचा लिया लेकिन उसके हाथों में चोट लग गयी.
“अब तुम बताओ कि सच्चा त्याग किसमें है : फूलदान को टूटते हुए देखने में या इसे बचाने के लिए खुद को आहत कर लेने में?” – गुरु ने पूछा.
“मैं नहीं जानता” – राजकुमार ने कहा.
“यदि तुम यह नहीं जानते हो तो त्याग के पथ का चुनाव कैसे कर सकते हो? सच्चा त्याग इसके प्रति दुःख झेलना नहीं बल्कि उससे प्रेम करने में निहित है”.
(पाउलो कोएलो की कहानी – A story of Paulo Coelho in Hindi)

“I am willing to give up everything”, said the prince to the master. “Please accept me as your disciple.”

“How does a man choose his path?” asked the master.

“Through sacrifice,” answered the prince. “A path which demands sacrifice, is a true path.”

The master bumped into some shelves. A precious vase fell, and the prince threw himself down in order to grab hold of it. He fell badly and broke his arm, but managed to save the vase.

“What is the greater sacrifice: to watch the vase smash, or break one’s arm in order to save it?” asked the master.

“I do not know,” said the prince.

“Then how can you guide your choice for sacrifice? The true path is chosen by our ability to love it, not to suffer for it.”

There are 13 comments

  1. sandhya

    वाह क्या बात कही है आज ही ये सिख मै अपने बेटे को बताउंगी और उसे भी अच्छा लगेगा कहानी के जरिये मै अक्सर उसे काम लेती हूँ और वह उन बातों का हमेशा याद करता है . बहुत बहुत धन्यवाद् .

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  2. उन्मुक्त

    निशांत जी, यह कहानी कम समझ में आयी।

    राजकुमार ने अपने हाथ की परवाह न कर फूलदान को बचा कर ठीक किया उसका आचरण और कर्म ठीक था।

    अन्तर ही क्या पड़ता है कि वह गुरू के सवाल का जवाब नहीं दे पाया। उसने जवाब अपने आचरण से दिया। उसे गुरू की जरूरत नही है। वह स्वयं दूसरों को बेहतर शिक्षा दे सकता है।

    कर्म के द्वारा दी गयी शिक्षा, बातों के द्वारा दी गयी शिक्षा से कहीं बेहतर है।

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  3. praveen jakhar

    लाजवाब लेखन निशांत भाई। हिंदी ब्लॉगिंग में चुनिंदा लोग हैं, जो सार्थक लेखन करते हैं, सार्थक लेखन के समर्थक हैं और अपने प्रयास एक दिशा में बढ़ा रहे हैं। आपकी पोस्ट से अपने दैनिक कामकाज की शुरूआत होती है। …और हर रोज अपने लिए आत्ममंथन करने का मौका मिलता है।

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    1. Nishant

      राजेन्द्र जी, राजकुमार त्याग के लिए तत्पर है लेकिन एक फूलदान को खो देना उसे गवारा नहीं है. एक प्रकार से देखें तो गुरु का फूलदान तोड़ने का प्रयास भी अनुचित है पर जैसा हिमांशु जी ने ऊपर कहा है ‘त्याग प्रवृत्ति में नहीं बल्कि निवृत्ति में है’.

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  4. निम्बस

    ये गुरु की पवित्र मरियादा पर निर्भर करता है की हमारा मार्ग क्या होगा पर आज कल के ढोंगी बाबाओ का माया जल इतना बढ चूका है की आज ऐसे गुरु की तलाश करना भी निरर्थक है …
    पर पहले की बात ही कुछ और थी आज तो हमारा मन भी क्या का क्या बना देता है तो फिर ऐसे स्थिति की तो बात ही क्या होगी पर एक अव्ह्ही कहानी के लिया धन्यवाद्!!…

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