कुछ दिनों पहले मेरी पिताजी से एक मसले पर बहुत कहा-सुनी हो गयी. मैं होली पर घर जानेवाला था. पिताजी ने होली के पहले घर की सफाई-पुताई कराई. घर में बहुत सा कबाड़ का सामान था जिसे निकालकर फेंकना ज़रूरी था. मैंने पिताजी से कह रखा था कि होली में घर आने पर मैं चीज़ों की छंटनी करा दूंगा.
भोपाल में मेरे घर में हमारे पास लगभग तीन हज़ार किताबें हैं. बहुत सी तो पिताजी ने पिछले चालीस साल में खरीदीं. उन्हें यहाँ-वहां से समीक्षा के लिए भी बहुत सारी किताबें मिलती रहतीं हैं. मेरी खुद की किताबें भी बहुत हैं. इनमें से कई मैंने पिछले दस-पंद्रह सालों में खरीदीं. ज्यादातर किताबों को मैंने पढ़ा नहीं था. हमेशा यह सोचता रहता था कि अभी तो खूब लम्बा जीवन पड़ा है किताबें पढ़ने के लिए. फुर्सत मिलने पर इन्हें पढ़ेंगे. इसी चक्कर में पुरानी किताबें पढ़ीं नहीं और नई खरीदता गया.
होली के पहले साफ़-सफाई के जोश में पिताजी ने मेरी बहुत सी किताबों को (लगभग 150-200) ग़ैरज़रूरी समझकर रद्दी में बेच दिया. बेचने के बाद घर में इस बात का अंदेशा हुआ कि यह समाचार मिलने पर मैं तो उबल ही जाऊँगा. ऐसा ही हुआ भी. फोन पर कुछ दिनों बाद मुझे बहन ने यह समाचार सुनाया और…
चंद रोज़ बाद मैं होली पर भोपाल पहुंचा. तब तक मेरा गुस्सा तो ठंडा पड़ चुका था इसलिए भोपाल में समय शांतिपूर्वक बिताया. आज इस बात को एक महीने से भी ज्यादा हो चला है और अब मुझे अपनी बिक चुकी किताबों की याद तो आती है पर मैं इस बात को भी समझता हूँ कि मैं यूं ही ताउम्र उन्हें अलमारी की शोभा बनाये रखता और उनको पढ़ने की नौबत कम ही आती. अफ़सोस सिर्फ दो बातों का है कि यह काम करने के पहले घरवालों ने मुझसे पूछा नहीं, और यह कि हजारों रुपयों की किताबों को कौड़ियों के मोल बेच दिया गया.
खैर, चीज़ गयी सो गयी. अब उसका कितना अफ़सोस मनाया जाये! जब तक वे किताबें मेरे पास थीं तब तक मुझमें उनके स्वामित्व का अहंकार था. जहाँ मेरे हमउम्र लड़के हमेशा गैजेट्स और फैशनेबल आयटम्स में अपनी सेक्योरिटी तलाशते थे वहां मैं अपनी किताबगाह में दुबके दीन-दुनिया से बेख़बर सुरक्षित महसूस करता था.
इस वाकये का ताल्लुक इस पोस्ट से भी है. न केवल किताबें बल्कि और भी बहुत सी वस्तुएं हममें से बहुतों के लिए सुरक्षा की भावना का जरिया होतीं हैं. वे हमारे पास होतीं हैं तो हम बेहतर अनुभव करते हैं और उनके उपयोग-उपभोग के बहाने तलाशते हैं.
मुझे लगता है कि मनुष्य और पशुओं में समानता आहार-भय-निद्रा-संतानोत्पत्ति के स्तर पर तो है ही लेकिन मनुष्य में पशुओं के विपरीत संग्रह की भावना अति प्रबल है. अपने घर-आँगन में हम नानाविध वस्तुओं को भरके उनमें अपना सुकून खोजते हैं, अपना अकेलापन दूर करते हैं. वस्तुओं से भावनात्मक सम्बन्ध जोड़कर हम उनके साए में यादों को संजो कर रखते हैं.
वस्तुओं से भावनात्मक सम्बन्ध जोड़ लेना सहज है. आज भी मेरे परिवार की महिलाओं ने अपनी शादी की साड़ी और पुराने जेवरों को संभाल कर रखा है. “यह कड़ा तुम्हारी दादी के हाथ का है. अब ऐसा सोना नहीं मिलता” – माँ मुझसे कहती हैं. मैं सर हिलाता हूँ. घर में और भी नए-पुराने जेवर हैं लेकिन माँ जब इस कड़े के बारे में बताती हैं तो उनकी आंखों में सोने की कोई और किरण चमकती है. माँ के पास यह कड़ा हिफाज़त से है और माँ इसमें अपनी हिफाज़त ढूंढ रही है.
यह सुरक्षा की भावना बड़ी विकट है. यह इन रूपों में भी झलकती है:-
* अलमारी भर कपड़ों में इस बात का इत्मीनान है कि किसी भी मौके में पहनने के लिए कपडे़ हैं. आजकल लोग गमी में पहनने वाले कपडे़ भी नील-कलफ लगाकर तैयार रखते हैं.
* बड़ा घर इसलिए चाहिए क्योंकि घर में मांगलिक कार्य के मौके पर जगह कम नहीं पड़ेगी. घर बड़ा हो तो हर मौसम में अनुकूलता रहती है. गर्मी में छत पर भी सो सकते हैं. दोनों बेटों की शादी हो जाएगी तो वे अपनी पसंद के फ्लोर पे रहेंगे.
* कार होनी ज़रूरी है. फिर इमरजेंसी में किसी का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा.
* गैरेज में अच्छी टूल-किट, ऊंचा सामान रखने के लिए सीढ़ी, और बागवानी के औजार रखना चाहिए. क्या पता कब किस चीज़ की ज़रुरत पड़ जाये!
* नया गैजेट (ब्लैकबेरी, आईफोन, आइपैड आदि) पास हों तो हम तकनीक से ताल-से-ताल मिलकर चल सकते हैं. आउट-ऑफ़-डेट कौन कहलाना चाहेगा? और फिर ये हों तो आप कहीं से भी काम करो, मेल, करो, ब्लौग पढ़ो, टच में रहो.
और भी न जाने क्या-क्या. ऐसे ही बहुत से कारण और भी हो सकते हैं जब हम वस्तुओं में सुरक्षा तलाशने लगते हों.
पर क्या वाकई इन चीज़ों का पास में होना कुछ सुरक्षा देता है? कहीं यह सुरक्षा भ्रम तो नहीं!
आज मेरे पिता मुझे समझाते हैं कि ऐसी बहुत सी चीज़ें हम अपने आसपास कबाड़ बनाकर रखे रहते हैं जिनकी हमें वाकई ज़रुरत नहीं होती. यदि वे हमारे पास न भी हों तो हम उतने ‘अभाव’ में नहीं होते जितना हमें लगता है. देखिये:-
* आप साल भर में पहने जाने वाले कपड़ों का लेखा-जोखा करें तो आप जान जायेंगे कि आपको ‘क्या-पता-कब-इसकी-ज़रुरत-पड़-जाये’ जैसे कपड़ों को पहनने के मौके न के बराबर ही मिलते हैं. ज्यादातर अवसरों पर हम सिर्फ-और-सिर्फ वही कपडे़ पहनते हैं जिन्हें पहनना ज़रूरी होता है (या जिन्हें ही पहनना चाहिए). गैरज़रूरी कपड़ों को बिना किसी इमोशनल अत्याचार झेले किसी और को दिया जा सकता है (और उसे भी शायद उनकी ज़रुरत न हो).
* छोटे घरों में रहने के कुछ फायदों को अनदेखा किया जाता है. जैसे – छोटा घर, कम कचरा. छोटा घर, कम कर्जा. छोटा घर, ज़रुरत भर का सामान.
* कार न भी हो तो बाइक से, ऑटो से, बस से, या पैदल भी काम चल जाता है बशर्ते ज़रूरतें कम हों. वाकई कोई इमरजेंसी हो तो एम्बुलेंस की ही ज़रुरत पड़ती है जिसे शायद कोई भी खरीद के रखना नहीं चाहेगा.
* लेटेस्ट गैजेट लेने में कोई तुक नहीं है. मैं यह सब दस साल पुराने कम्प्यूटर पर लिख रहा हूँ जिसे वक़्त-ज़रुरत के हिसाब से मैं अपग्रेड कर चुका हूँ. बहुत कम ही ऐसे मौके आते हैं जब नया लिए बगैर काम करना नामुमकिन हो जाये. सच में!
* हर जगह हर समय कनेक्ट रहने की ज़रुरत नहीं है. इस बात को ज्यादा अरसा नहीं हुआ जब कोई भी कहीं भी कनेक्टेड नहीं रहता था और फिर भी सब जीते रहे! मैं गाड़ी चलाते वक़्त, खाने के समय, और यूं ही कभी एकांत के लिए फोन बंद रखता हूँ. मेरा फोन केवल बातचीत ही करा सकता है. बाकी इंटरटेनमेंट के लिए टीवी/कम्प्यूटर है.
अब यह सोचकर बड़ी राहत मिलती है कि कभी एक रात को इन्टरनेट बंद पड़ जाये तो मैं झुंझलाते हुए कम्पनी फोन नहीं करने लगूंगा. “कोई बात नहीं. कल देख लेंगे.”
अब आप बताएं कि आप उन हालत में क्या करेंगे:-
1. जब आपके कलेजे के टुकड़े के मानिंद कोई चीज़ या सुविधा आप अपने करीब नहीं पायें.
2. ऐसा होने की संभावना कितनी है, और,
3. तब क्या होगा यदि वह चीज़ या सुविधा आपसे हमेशा के लिए छिन जाये!
कम-से-कम चीज़ों और सुविधाओं के साथ रहकर देखें. यह देखें कि क्या जीवन दुनियावी वस्तुओं से उपजती खोखली सुरक्षा के बिना वाकई कष्टदायक है! अपना बैक-अप प्लान तैयार रखें.
Photo by Glen Carrie on Unsplash
अब क्या कहें..हम तो खुद ही अभी यह झेलकर लौटे हैं जब हमारी दो अलमारी किताबें कबाड़ी को बेच दी गई सिर्फ इसलिए कि जगह बेकार में घेर रही है और तुमको तो आना नहीं है और न इन किताबों को ले जाओ पाओगे. मेरा बचपन का क्रिकेट का बल्ला, प्लास्टिक वाला लाल गुलाब ( एक ने दिया था), एस लिखा रुमाल…सब गायब!!
अपने घर में अपने कमरे में बंद मेरा बचपन, मेरी जवानी..सब कबाड़ के हाथों निकल गया और मैं खड़ा तमाशा देखता रहा इतनी दूर से कि कोई आह!! भी न सुन पाया.
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सही कहा निशांत. हम चाहें तो बहुत कम में काम चला सकते हैं. मेरे पास बहुत कम चीज़ें हैं और भरसक मैं बेकार की चीज़ें नहीं खरीदती. पर किताबें खरीदकर रखने का मेरा शौक भी है और इसी कारण मेरे कमरे में और सभी सामानों से ज्यादा किताबें हैं. ज्यादातर पढ़ी हुई हैं, कुछ बिना पढ़ी. पर क्या करूँ, उन्हें बेचने का मेरा बिल्कुल मन नहीं करता. लेकिन खुशी इस बात की है कि मैं आराम की कोई चीज़ ऐसी नहीं है, जिसके न रहने पर मैं बेचैनी महसूस करूँ.
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@ मनुष्य में पशुओं के विपरीत संग्रह की भावना अति प्रबल है. अपने घर-आँगन में हम नानाविध वस्तुओं को भरके उनमें अपना सुकून खोजते हैं, अपना अकेलापन दूर करते हैं. वस्तुओं से भावनात्मक सम्बन्ध जोड़कर हम उनके साए में यादों को संजो कर रखते हैं.
सही कहा। लेख बहुत अच्छा लगा। अमल में लाने लायक बातें। बैक अप प्लान की बात समझ में नहीं आई।
@ सुरक्षितता – ‘इत’ और ‘ता’ दो दो प्रत्यय एक साथ ! ठीक कीजिए। ‘सुरक्षा’ पर्याप्त है।
@ समीर जी – प्लास्टिक गुलाब + s लिखा रुमाल – चले गए ! हाय रे अनर्थ हुआ !! वहीं खरीद कर पुराना करवा लीजिए। लेकिन वो बात कैसे आएगी। वस्तुएँ नहीं उनसे जुड़ी यादें, लोग कीमती होते हैं। लेकिन कब तक सँजोए रखेंगे ?
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गिरिजेश, प्रत्यय वाली गलती की ओर ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद. सुधार कर लिया है.
सुविधाओं के बिना रह सकने का अभ्यास या अभिमुखता बैक-अप प्लान हो सकता है (?).
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इस पोस्ट के साथ के चित्र में दिखाए गए कबाड़ के स्थान पर इस चित्र को सहेजना पर्याप्त नहीं है। बशर्तें कि वे जरूरी किताबें न हों।
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मैं भी सयास यह कर चुका हूं। एक दिन तय किया कि अपनी पुस्तकें २५% कम कर दूंगा। और बाकायदा कैल्क्यूलेटर से गणना कर कम कीं।
उस समय अपने को निर्मम कसाई मान रहा था। पर बाद में लगा कि ठीक ही किया।
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सुरक्षा का भ्रम या कबाड़ी का श्रम ।
यदि एक एक वस्तु की उपयोगिता पर चिन्तन नहीं किया तो जीवनी ही चिन्ता में बदल जायेगी ।
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यह हम सभी की बात है।
और यह भी कि फिर भी हम अपने आपको अध्यात्मवादी समझते हैं।
इसमें बेकार ही सकून ढूंढ़ते हैं।
जबकि वह हमारी अलमारी में पड़ा होता है।
सुरक्षा के कवच के रूप में। और यह कतई भ्रम नहीं होता, क्योंकि यह होता है।
अलौकिक सुरक्षा का अवलंबन भ्रम होता है। दुनियावी चीज़ों का प्रबन्धन ही कहीं असल सकून पैदा कर रहा होता है।
शुक्रिया।
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दुखद है भाई.. वो कहते हैं ना कि किताबें ही सच्ची मित्र हैं.. और मित्रों से इस तरह विछोह दिया जाना गलत तो है ही..
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bahoot achcha laga .
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