पेड़ों के झुनझुने,
बजने लगे;
लुढ़कती आ रही है
सूरज की लाल गेंद।
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तूने जो छोड़े थे,
गैस के गुब्बारे,
तारे अब दिखाई नहीं देते,
(जाने कितने ऊपर चले गए)
चांद देख, अब गिरा, अब गिरा,
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तूने थपकियां देकर,
जिन गुड्डे-गुड्डियों को सुला दिया था,
टीले, मुंहरंगे आंख मलते हुए बैठे हैं,
गुड्डे की ज़रवारी टोपी
उलटी नीचे पड़ी है, छोटी तलैया
वह देखो उड़ी जा रही है चूनर
तेरी गुड़िया की, झिलमिल नदी
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तेरे साथ थककर
सोई थी जो तेरी सहेली हवा,
जाने किस झरने में नहा के आ गई है,
गीले हाथों से छू रही है तेरी तस्वीरों की किताब,
देख तो, कितना रंग फैल गया
उठ, घंटियों की आवाज धीमी होती जा रही है
दूसरी गली में मुड़ने लग गया है बूढ़ा आसमान,
अभी भी दिखाई दे रहे हैं उसकी लाठी में बंधे
रंग बिरंगे गुब्बारे, कागज़ पन्नी की हवा चर्खियां,
लाल हरी ऐनकें, दफ्ती के रंगीन भोंपू,
उठ मेरी बेटी, आवाज दे, सुबह हो गई।
उठ देख,
बंदर तेरे बिस्कुट का डिब्बा लिए,
छत की मुंडेर पर बैठा है,
धूप आ गई।
(A poem of Sarveshvar Dayal Saxena)
बहुत आभार सर्वेश्वर जी की बेहतरीन रचना पढ़वाने का.
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Bahut achhi lagi. Bahut barson baad phir bachpan yaad aagaya. Apani Bhatiji ko sunaoongi ab ki baar, wahi to meri beti hai.
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Vah-Vah
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बहुत ही प्यारी कविता है. धन्यवाद इसे हम तक पहुँचाने के लिये.
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पेड़ों के झुनझुने,
बजने लगे;
लुढ़कती आ रही है
सूरज की लाल गेंद।
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
नये दिन का खेल भरा न्योता
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बहुत अच्छी कविता है। पढ़वाने के लिये आभार।
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बहुत खूब!
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बहुत ही प्यारी रचना। बचपन की खूशबू लिए हुए। बेटी को जरुर सुनाऊँगा जी।
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वास्तविक जीवन की कविता / भोगा हुआ रचना-संसार असल में कविता का अर्थ होता है, जिसकी अनुभूति सर्वेश्वरदयाल सक्सेना जी ने करवायी | खूब-खूब आभार |
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कोटिशः आभार इस लाजवाब रचना को पढवाने के लिए….
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एक बेहतरीन कवि की बेहतरीन रचना है ये, हम पाठकों को पढ़ने का मौका देने के लिए धन्यवाद :))
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very nice!
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आभार!!
बच्चों पर जिम्मेदारी से लिखा जाना अब दुर्लभ हो गया है…
बच्चों में कल्पनाशीलता को उकेरती कविता…
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गहरी कल्पनाशीलता से सहज संपृक्त रचना के लिए आभार ।
सर्वेश्वर जी की यह कविता बेहतरीन बाल-रचना है !
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