आज पहली बार
थकी शीतल हवा ने
शीश मेरा उठा कर
चुपचाप अपनी गोद में रक्खा,
और जलते हुए मस्तक पर
काँपता सा हाथ रख कर कहा-
“सुनो, मैं भी पराजित हूँ
सुनो, मैं भी बहुत भटकी हूँ
सुनो, मेरा भी नहीं कोई
सुनो, मैं भी कहीं अटकी हूँ
पर न जाने क्यों
पराजय नें मुझे शीतल किया
और हर भटकाव ने गति दी;
नहीं कोई था
इसी से सब हो गए मेरे
मैं स्वयं को बाँटती ही फिरी
किसी ने मुझको नहीं यति दी”
लगा मुझको उठा कर कोई खडा कर गया
और मेरे दर्द को मुझसे बड़ा कर गया
आज पहली बार.
(A poem of Sarveshwar Dayal Saxena)
सक्सेना जी की बेहतरीन और गहन रचना पढ़वाने का आभार!!
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बहुत अच्छा लगा सुबह सुबह यह कविता पढ़ना!
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ओह !!! ये तो मेरे मनपसंद कवि की कविता है. आभार आपका .
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ओह!
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बहुत बदिया !
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bahut hi badhiya
sundar shabdo me apki abhivyakti hui hai
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bahut hi khub kaha……. ati sundar rachana……
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बहुत दिनों बाद
आज पहली बार, झोंका कोई हुलसा गया
तपते वन में था
कोई शीतल हवा सा सहला गया…
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