डॉ. अल्बर्ट श्वाइट्ज़र (1875 -1965 ) फ्रांसीसी-जर्मन चिकित्सक, दार्शनिक, और संगीतकार थे. उन्होंने अपना लगभग सारा जीवन मध्य अफ्रीका के बेहद अभावग्रस्त क्षेत्रों में मानवता की सेवा के लिए समर्पित कर दिया और उन्हें इसके लिए वर्ष 1952 के नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उनके ह्रदय में मनुष्यों के लिए ही नहीं बल्कि प्राणी मात्र के लिए दया थी. वे छोटे-से-छोटे प्राणी की पीड़ा भी नहीं देख सकते थे.
एक बार उन्हें अपने एक मित्र के साथ ज़रूरी काम से जाना था. स्टेशन बहुत दूर था और पहले ही कुछ देर हो चुकी थी. उन्होंने अपना आवश्यक सामान एक डंडे पर बाँधा और उसे अपने कंधे पर लादकर चल दिए. समय बहुत कम था और दोनों मित्र तेज चाल से चले जा रहे थे. श्वाइट्ज़र अपने मित्र के आगे चल रहे थे.
अचानक श्वाइट्ज़र उछलकर रास्ते के एक ओर खड़े हो गए. उनका मित्र झटका खाकर गिरते-गिरते बचा. मित्र ने पूछा – “क्या हुआ?”
श्वाइट्ज़र ने कहा – “देखो, ये एक छोटा सा जीव रास्ते में पड़ा हुआ है. अभी यह हमारे पैरों के नीचे आकर कुचला जाता. इसे यहाँ से हटा देना चाहिए.”
श्वाइट्ज़र के मित्र ने समझाया कि समय बहुत कम है और इस चक्कर में पड़े तो ट्रेन छूट जाएगी. लेकिन श्वाइट्ज़र ने उसकी नहीं सुनी और अपने डंडे की सहायता से उसे रास्ते से दूर हटा दिया ताकि उनके बाद में रास्ते से गुज़रनेवाले के पैरों के नीचे वह प्राणी न आ जाये.
उसके बाद उन्होंने स्टेशन के लिए दौड़ लगा दी. वहां पहुँचने तक गाड़ी ने सीटी दे दी थी और वे दोनों बड़ी कठिनाई से गाड़ी पकड़ सके. श्वाइट्ज़र ने अपने मित्र के मन में चल रहे भावों को भांपकर उससे पूछा – “किसी जीव की रक्षा करना ट्रेन पकड़ने से ज्यादा ज़रूरी काम नहीं है क्या?”
(An anecdote of Dr. Albert Schweitzer – in Hindi)
अच्छा लगा!
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nice bhai..nice..
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