संयुक्त राज्य अमेरिका के 32 वें राष्ट्रपति फ़्रेंकलिन डिलानो रूज़वेल्ट की आदत थी कि जब उनका निजी सचिव कोई पत्र तैयार करके उनके पास हस्ताक्षर के लिए लाता था तो रूज़वेल्ट उसमें कहीं-न-कहीं कुछ संशोधन कर देते थे या पत्र के अंत में पेन से कुछ लिख देते थे.
एक बार उन्होंने पत्र में कुछ जोड़ दिया जिसे उनका सचिव फिर से टाइप करके हस्ताक्षर के लिए ले आया. सचिव को यह देखकर बड़ी खीझ हुई कि रूज़वेल्ट ने पत्र में फिर से कुछ लिख दिया था.(उन दिनों तो पत्रादि लोहा पीटकर ही टाइप किए जाते थे).
सचिव ने रूज़वेल्ट से पूछ ही लिया – “आपको जो कुछ भी लिखाना हो उसे आप डिक्टेशन देते समय ही क्यों नहीं लिखा देते? इस तरह हर बार हाथ से कुछ लिख देने से तो पत्र भद्दा दिखने लगता है.”
रूज़वेल्ट ने सचिव से कहा – “तुम गलत समझ रहे हो. मेरे हाथ से कुछ लिख देने से तो पत्र की शोभा बढ़ जाती है. पत्र पाने वाला व्यक्ति यह समझता है कि यह औपचारिक पत्र नहीं है. उसे यह देखकर अच्छा लगता है कि राष्ट्रपति ने ये शब्द सस्नेह उसके लिए खास तौर ले लिखे हैं. इस तरह पत्र रस्मी नहीं रहके सौहार्दपूर्ण हो जाता है.”
(A motivational / inspirational anecdote of Franklin Roosevelt – in Hindi)
रुजवेल्ट का यह प्रसंग खूबसूरत संदेश दे रहा है । आत्मीय भाव ही खो गये हैं इस जगत में । यांत्रिक क्रियाओं ने चुरा लिये हैं मन के संवेग, गुम हो गयी है आत्मीयता ।
जरूरत है इस प्रविष्टि की , भाव की भी ।
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पढ़कर अच्छा लगा । सौहार्द की बहुत आवश्यकता है जीवन में । आभार
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आभार।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
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pahle patra likhte the , tab usme kitna pyar umadata tha . ab phone se aeisa lagata hai jaise ek koram pura kar liya hai . patra ko bar bar padh kar khush ho lete the. ise ek rashtrapati ne samajha . bahut badhiya.
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