प्रकृतिविज्ञानियों ने जापान के प्रसिद्द और खूबसूरत मकाक बंदरों का उनके प्राकृतिक परिवेश में 30 सालों तक अध्ययन किया.
1952 में जापान के कोशिमा द्वीप पर प्रकृतिविज्ञानियों ने बंदरों को खाने के लिए शकरकंद दिए जो रेत में गिर जाते थे. बंदरों को शकरकंद का स्वाद भा गया लेकिन रेत के कारण उनके मुंह में किरकिरी हो जाती थी.
18 माह की इमो नामक एक मादा बन्दर ने इस समस्या का हल शकरकंद को समीप बहती स्वच्छ जलधारा में धोकर निकाल लिया. उसने यह तरकीब अपनी माँ को भी सिखा दी. देखते-ही-देखते बहुत सारे बच्चे और उनकी माएँ पानी में धोकर शकरकंद खाने लगे.
प्रकृतिविज्ञानियों के सामने ही बहुत सारे बंदरों ने इस नायब तरीके को अपना लिया. 1952 से 1958 के दौरान सभी वयस्क बन्दर शकाराकंदों को पानी में धोकर खाने लायक बनाना सीख गए. केवल वे वयस्क बन्दर ही इसे सीख पाए जिन्होंने अपने बच्चों को ऐसा करते देखा था. वे बन्दर जिनकी कोई संतान नहीं थीं, वे पहले की भांति गंदे शकरकंद खाते रहे.
तभी एक अनूठी घटना हुई. 1958 के वसंत में कोशिमा द्वीप के बहुत सारे बंदर शकरकंदों को धोकर खा रहे थे – उनकी निश्चित संख्या का पता नहीं है. मान लें कि एक सुबह वहां 99 बंदर थे जिन्हें पानी में धोकर खाना आ गया था. अब यह भी मान लें कि अगली सुबह 100 वें बंदर ने भी पानी में धोकर शकरकंद खाना सीख लिया.
इसके बाद तो चमत्कार हो गया!
उस शाम तक द्वीप के सभी बंदर पानी में धोकर फल खाने लगे. उस 100 वें बन्दर द्वारा उठाये गए कदम ने एक वैचारिक क्रांति को जन्म दे दिया था.
यह चमत्कार यहीं पर नहीं रुका बल्कि समुद्र को लांघकर दूसरे द्वीपों तक जा पहुंचा! ताकासकियामा द्वीप के सारे बंदर भी अपने फल को पानी में धोकर खाते देखे गए. और भी द्वीपों पर मौजूद बंदर अपने फल धोकर खा रहे थे.
इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि जब किसी समूह में निश्चित संख्या में सदस्यों में जागरूकता आ जाती है तो वह जागरूकता चेतना के रहस्यमयी मानसिक स्तर पर फ़ैल जाती है. सही-सही संख्या का अनुमान लगाना संभव नहीं है लेकिन 100 वें बन्दर की क्रान्ति यह बताती है कि जब सुनिश्चित संख्या में यह जागरूकता उत्पन्न हो जाती है तो वह चेतना में घर कर लेती है.
ऐसे में यदि केवल एक अतिरिक्त जीव में इस जागरूकता का प्रसार हो जाये तो वह चेतना एकाएक विराट समुदाय में फ़ैल जाती है.
क्या मनुष्यों के विषय में भी ऐसा कहा जा सकता है?
(The revolution of 100th monkey – in Hindi)
रोचक व्यवहार ! मगर १00 वें मर्कट व्यवहार का और वैज्ञानिक विश्लेषण अपेक्षित है !
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बहुत दिलचस्प..ऐसे ही तो जो भी जितना भी मानवता का विकास हुआ है, हुआ होगा.
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अरविंद जी की बात में दम है।
आपकी बात में तो था ही।
अधिभूतवादी नजरिया इसमें चमत्कार देखेगा, और द्वंदवादी नज़रिया गुणात्मक परिवर्तन।
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सौंवे बंदर की जागरुकता को क्रांति कहें या क्रांति को आखिरी तक पहुंचने की प्रक्रिया। ट्रेड यूनियनों के जरिए श्रमिकों का शोषण रोकने की कवायद आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं से लेकर आईएएस लॉबी तक पहुंच जाए तो इसे जनरल सेंस कह सकते हैं। दुनिया में पत्थर को घिसकर आग पैदा करने का काम एक स्थान से फैलकर बाकी दुनिया में पहुंचा या दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में किसी विशेष काल खण्ड में इसके लिए जनरल सेंस पैदा हुआ।
यह बात भी उसी प्रकार की है। देश काल और परिस्थिति यानि टाइम स्पेस एण्ड एटमॉसफीयर सेंस पैदा करने में बड़ा रोल रखते होंगे।
वैसे शोध हर स्तर पर किया जा सकता है।
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बहुत दिलचस्प
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mindboggling and meaningful
thanks
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निशांत जी,
सभ्यता का विकास शायद इस प्रकार से ही हुआ होगा।
हमारे पूर्वजों को प्रणाम।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
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